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Ghananand Kavitt Vyakhya घनानन्द कवित्त के पदों की व्याख्या


Ghananand Kavitt Vyakhya Edited by Vishwanath Prasad Mishra in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित “घनानन्द कवित्त” के अगले 6-9 तक के पदों की विस्तृत व्याख्या करने जा रहे है। चलिए समझते है :

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Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त के पदों की विस्तृत व्याख्या (6-9)


Vishwanath Prasad Mishra Sampadit Ghananand Kavitt Ke Pad 6-9 Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! घनानंद कवित्त के 6-9 पदों की व्याख्या इसप्रकार है :

पद : 6.

Ghananand Kavitt Ke Pad 6 ki Vykhya in Hindi

भोर तैं साँझ लौं कानन ओर निहारति बाबरी नैकु न हारति।
साँझ तैं भोर लौं तारिन ताकिबौ तारनि सों इकतार न टारति।।
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनंद आँसुनि औसर गारति।
मोहन सोंहन जोहन की लगियै रहै आँखिन कें उर आरति।।

व्याख्या :

दोस्तों ! अनुरागवती नायिका दिन-रात विरह में पड़ी रहती है। उसकी इसी स्थिति का वर्णन कवि घनानंद करते हैं। सवेरे से साँझ और साँझ से सवेरे तक वह अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करती है, परंतु वह उनके दिखाई पड़ने पर भी उन्हें देख नहीं पाती है। उसके नेत्रों की लालसा तृप्त नहीं हो पाती है।

सखी अनुरागवती नायिका का वर्णन कर रही है और कह रही है कि सवेरे से साँझ तक वन की ओर वह अनुरागिनी देखती रहती है। इस प्रकार लगातार देखते रहने में वह बिल्कुल भी थकती नहीं है। और यदि इस दौरान भी श्रीकृष्ण जी दिखाई नहीं देते हैं तो वह शाम से लेकर सवेरे तक अपने आँखों के तारों से आकाश के तारों को लगातार देखती रहती है। वह अपनी आँखों को हटाती नहीं है।

इस प्रकार वह पूरी रात आँखों में ही काट देती है। यदि किसी अवसर पर उसके प्रिय दिखाई दे जाते हैं तो वह आँसूं गिराती है। उसके नेत्रों से आँसूं आ जाते हैं और आँसूं के गिरने से प्रिय के दृश्य होने पर भी उसे दिखाई नहीं देते हैं। उसे देखने का अवसर मिलकर भी नहीं मिलता। इस तरह श्रीकृष्ण जी को सामने देखने की लालसा उसकी आँखों के हृदय में लगी ही रहती है और उसकी उत्कंठा बनी रहती है।

पद : 7.

Ghananand Kavitt Ke Pad 7 Ka Arth in Hindi

भए अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी,
याही दु:ख हमैं जक लागी हाय हाय है।
तुम तौ निपट निरदई, गई भूलि सुधि,
हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिलें तो तब,
अब जिय जारत, कहौ धौं कौन न्याय है।
सुनी है कै नाहीं, यह प्रकट कहावति जू,
काहू कलपाय है, सु कैसें कल पायहै।।

व्याख्या :

दोस्तों ! यह कविता प्रेमिका का कथन है। नायिका कहती है कि हे प्रिय ! आप निष्ठुर ही नहीं, अति निष्ठुर हो गये हैं। आपने मुझे भुलाया ही नहीं, मेरी पहचान तक को मिटा दिया है, क्योंकि भूलने पर स्मरण तो फिर भी हो सकता है, पर जिसकी पहचान की रेखाएँ ही मिटा दी गई हो, वह फिर कैसे ध्यान में आ सकता है ?

इस दु:ख से मुझे हाय-हाय की रट लगी हुई है। मुझे दु:ख है कि मैंने जिससे प्रेम किया, उसने मेरी पहचान तक को नष्ट कर डाला। दूसरा दु:ख यह है कि यह हृदय ऐसा है, जो किसी प्रकार से भी वेदना का परित्याग नहीं करता।

आप तो अत्यंत ही निर्दयी हैं। स्मृति की वृत्ति आप में रही ही नहीं। जिसमें स्मृति होती है, वह तो समय पर घटित घटना का स्मरण कर भी सकता है। पर आप में स्मृति ही नहीं रही। पहले भूली हुई स्मृति आये और फिर स्मृति में मैं आऊं, यह असंभव हो गया है।

घनानन्द कवित्त व्याख्या :

इधर मैं हूँ कि आपके विरह की वेदना की कसक किसी भी प्रकार से भूलती नहीं। यदि उस वेदना को भूलने का प्रयास भी करती हूँ तो वह दूर नहीं हटती है। पहले संयोग-अवस्था में मीठी-मीठी बातें करके मुझे ठग लिया और अब वियोग-अवस्था में मेरा जी क्यों जलाते हो ?

ठग जिसे लगता है, उसे तब तक ही कष्ट देता है, जब तक उसकी कार्य सिद्धि नहीं हो जाती, परंतु आप तो कार्य सिद्धि होने के बाद भी मुझे अब तक जला रहे हो। आपने यह प्रसिद्ध कहावत सुनी है या नहीं कि जो किसी को कलपाता है अर्थात् तड़पाता है, उसे भी कल नहीं मिलता अर्थात् दूसरों को कष्ट देने वाला भी सुख नहीं पाता है । यदि आपने सुना होता तो आप ऐसा कभी नहीं करते। हो सकता है सुना तो हो, पर उस पर ध्यान ही नहीं दे रहे हो।

पद : 8.

Ghananand Kavitt Ke Pad 8 Ki Vykhya Bhav Sahit in Hindi

हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि-समानै।
नीर-सनेही कों लाय कलंक, निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सू क्यों समुझै जड़, मीत के यानि परे कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै।।

व्याख्या :

दोस्तों ! रीतिकाल में प्रेमियों के लिये दो उपमान आते थे। वियोग और संयोग के लिये दो अप्रस्तुतों की चर्चा होती थी : मीन की और पतंगे की अर्थात् मीन का बिछुड़ना और पतंगे का मिलना। मीन अर्थात् मछली पानी से अलग होती है तो मर जाती है और पतंगा दीपक से मिलने के प्रयत्न में जलकर मर जाता है।

इसमें से मीन के बिछुड़ने की चर्चा करते हुये कवि कहता है कि मानव की प्रेम साधना को मीन की प्रेम साधना के समान कहना उसको घटाना है। प्रेम में विरह न सहकर मरना ऊंची बात नहीं है, इससे प्रिय को कलंक लगता है। मानव विरह में मरता नहीं है, कष्ट सहता है।

मछली मानव के समान वेदना सहने की क्षमता नहीं रखती है। पानी जड़ पदार्थ है, जबकि मानव का प्रिय तो चेतन है। किसी जड़ पदार्थ को प्रभावित करना संभव नहीं है, परंतु चेतन को प्रभावित करना संभव है। इसलिए मानव और मीन को एक करना ठीक नहीं है।

घनानन्द कवित्त व्याख्या :

दोस्तों ! जल से हीन होने पर मछली अधीन हो जाती है अर्थात् व्याकुल हो जाती है। क्या यह थोड़ा सा भी मेरी आकुलता की समता कर सकता है ? विरहियों की स्थिति के लिये मीन का जो दृष्टांत दिया जाता है, उस पर यदि विचार करे तो स्पष्ट होता है कि जल के घटने पर मीन विवश होकर व्याकुल होती है, पर जैसी आकुलता उसको होती है, क्या वह थोड़ी सी भी मेरी व्याकुलता की बराबरी कर सकता है अर्थात् नहीं।

इसका स्पष्ट कारण यह है कि वह कायर मीन अपने प्रिय जल को कलंक लगाकर और स्वयं निराश होकर अपने प्राण त्याग देती है। प्रीति की वास्तविक रीति को वह क्या समझे। वह चेतन होकर भी जड़ ही है। उसका प्रिय तो उसके मन की स्थिति समझने वाला चेतन प्रिय नहीं है, पर मेरी प्रियसी मेरे मन की दशा को समझने वाली है।

मीन का प्रिय जड़ है और स्वतः मीन में भी विरह का कष्ट सहन करने का साहस नहीं है, इसलिए यदि प्रेम की मेरी व्याकुलता की उससे तुलना की जाये तो अनुचित है। जड़ ना सही, पर चेतन तो प्रभावित किया जा सकता है। यही संभावना मुझे वेदना सहने का सहारा भी देती है। मुझे जिलाती भी है। मेरा प्रिय मेरी वेदना समझने वाला है। मानव प्रेम संबंध, मीन प्रेम संबंध से बहुत गूढ़ है।

पद : 9.

Ghananand Kavitt Pad 9 – Vishwanath Prasad Mishra in Hindi

मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।
डीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।।

व्याख्या :

दोस्तों ! विरहिणी का प्रिय के प्रति उपालम्भ प्रस्तुत कवित्त में स्पष्ट है। प्रिय के मोहित करने और फिर अमोही हो जाने, पहले छवि रूपी छटा से तृप्त करने, फिर दर्शन ने देने, आशा देकर विश्वासघात करने और जीवनदायक होकर प्यासे मारने के प्रति उलाहना है।

दोस्तों ! कवि कहते हैं कि हे मित्र सुजान ! आप मित्र भी है और सुजान भी है, जानकार भी है, जिसके लिये नीति से चलना, न्याय करना यही जगत की रीति है। आप मेरे साथ अनीति ना करें। मोहित कर के तो अमोही ना हो। यह कितने खेद की बात है कि आपने दर्शन देना भी छोड़ दिया।

पर आप यह नहीं जानते कि मेरे नेत्रों के लिये अन्यत्र और कोई स्थान नहीं है। यह नेत्र केवल आपको ही देखना चाहते हैं। इन नेत्रों में और किसी के लिये स्थान नहीं रह गया है, क्योंकि इनमें आपके सौंदर्य की दुहाई फिर गई है। सर्वत्र आप का ही रूप छाया हुआ है। इन नेत्रों के लिये ना और कहीं टिकने का स्थान रह गया है और ना ही इन नेत्रों में किसी और के टिकने का स्थान बचा हुआ है।

फिर भी आपने मेरे साथ विश्वासघात किया अर्थात् आप आने का समय देकर भी नहीं आये। औरों से प्रेम संबंध जोड़ लिया। फिर भी आपके विश्वासघात में विश्वास की ही संभावना करके मेरे पथिक प्राण बचे हुये हैं। आप जल के भंडार हैं और आनंद के बादल होकर भी क्यों मुझे प्यासे मार रहे हो अर्थात् आप मेरे प्राणों के तत्व, आनंददायक होकर भी मेरे प्राणों को संकट में क्यों डाल रहे हो ?

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने घनानंद कवित्त के अगले 6-9 तक के पदों की व्याख्या को समझा। अगले पार्ट में फिर मिलते है कुछ नए पदों के साथ। धन्यवाद !


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Ghananand Kavitt Vyakhya घनानन्द कवित्त के पदों की व्याख्या” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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