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मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali (86-90)
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali-Narottam Das (86-90) in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम फिर से नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले पदों की व्याख्या लेकर हाजिर है। तो चलिए आज इसके अगले 86-90 पदों का शब्दार्थ सहित सार समझते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (86-90)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 86-90 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 86 से लेकर 90 तक के पदों का शब्दार्थ सहित सार निम्नानुसार है :
पद : 86.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali Ke 86-90 Pad in Hindi
चालां वाही देस, प्रीतम पावां,
चालां वाही देस।
कहो कसुमल साड़ी रंगावाँ, कहो तो भगवां भेस।।
कहो तो मोतियान माँग भरावाँ, कहो छिटकावाँ केस।
मीरां के प्रभु गिरधर-नागर, सुणज्यो बिड़द नरेस।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | चालां | चलो |
2. | पावां | पायेंगे |
3. | कसुमल | पीला रंग |
4. | भरावाँ | भर लूँ |
5. | छिटकावाँ | बिखेर लूँ |
6. | सुणज्यो | सुन लो |
7. | बिड़द | विरुदधारी प्रियतम |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई अपने मन से कहती है कि हे मन ! उसी देश में चलो, जहाँ हम प्रीतम को पा सके अर्थात् जहाँ मेरे प्रियतम रहते हैं, वहाँ हम प्रियतम को पायेंगे।
मीरा बाई अपने अनन्य समर्पण शीलता को प्रदर्शित करती हुई कहती है कि हे मेरे प्रभु ! यदि आप कहो तो अपनी साड़ी को कुसुमी रंग में रंगा लूँगी और आप कहो तो मैं भगवा वेश धारण कर लूँगी। आप जिस रूप में मिलना चाहो, मैं वैसा भेष धारण कर लूँगी।
आप कहो तो मैं मोतियों से अपनी मांग भर लूँ और कहो तो मैं अपने बालों को बिखेर लूँगी। मीराबाई कहती है कि हे विरुदधारी प्रियतम राजा ! आप मेरी सुन लो और दर्शन देकर मुझे अपनी शरण में ले लो।
पद : 87.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali Bhav – Narottamdas Swami in Hindi
गळी तो चारों बंद हुई,
मैं हरि से मिलूं कैसे जाइ?
ऊंची-नीची राह लपटीली, पांव नहीं ठहराइ।
सोच-सोच पग धरूं जतन से, बार-बार डिग जाइ।।
ऊंचा-नीचा महल पिया का, म्हांसूं चढ़्या न जाइ।
पिया दूर, पंथ म्हारा झीणा, सुरत झकोळा खाइ।।
कोस-कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड़-पैंड़ वटमार।
हे विधना, कैसी रच दीनी, दूर वस्यो म्हांरो गाम।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सतगुरु दयी वताइ।
जुगन-जुगन से विछड़ी मीरां, घर में लीनी आइ।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | गळी | रास्ता/मार्ग |
2. | लपटीली | रपटने वाली |
3. | ठहराइ | टिकता है |
4. | जतन | प्रयत्न |
5. | डिग जाइ | विचलित हो जाता है |
6. | झीणा | संकरा |
7. | सुरत | ध्यान |
8. | पैंड-पैंड | पग-पग |
9. | गाम | गाँव |
10. | जुगन-जुगन | युग-युग |
11. | लीनी आइ | घर में ही लक्ष्य को पा लिया |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि चारों तरफ से रास्ता बंद है और मैं मेरे हरी से मिलूँ तो कैसे मिलूँ ? मार्ग बहुत ऊँचा-नीचा और रपटने वाला है और जैसे ही पाँव रखती हूँ तो पाँव भी उस स्थान पर नहीं ठहरता है। मैं सोच-सोचकर के प्रयत्न करके पाँव रखती हूँ और ये बार-बार विचलित हो जाता है।
मेरे प्रिय का महल ऊँचा-नीचा है, जिस पर हमसे चढ़ा ही नहीं जाता है। मेरे प्रिय बहुत दूर है मुझसे और रास्ता बहुत संकरा है, जिस पर मैं झकोर खाती हूँ अर्थात् मेरा ध्यान स्थिर नहीं हो पाता है। कोस-कोस पर पहरेदार बैठे हैं और पग-पग पर लुटेरे/ठग बैठे हुये हैं। हे विधाता ! तूने यह कैसा रचा है, मेरा गाँव मेरे प्रियतम से बहुत दूर बसा हुआ है।
मीराबाई कहती है कि मीरा के प्रभु तो गिरिधर नागर है। मेरे सतगुरु ने मुझे यह बात अच्छे से बता दी कि प्रभु से मिलन जुगत कैसे होगी ? युगो-युगो से बिछड़ी हुई मीरा ने अपने प्रियतम से घर में ही मिलन कर लिया। घर में ही आकर लक्ष्य को पा लिया अर्थात् अपनी ही आत्मा में परमात्मा का आभास कर लिया।
पद : 88.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali – Saar Shabdarth Sahit in Hindi
चालो अगम के देस।
काळ देखत डरै।।
वहां भरा प्रेम का हौज, हंस केळा केसै।
ओढ़ण लज्जा चीर, धीरज को घाघरो।।
छिमता कांकण हाथ, सुमत को मूंदसो।
दिल दुलड़ी दरियाव, साँच को दोवड़ो।।
उबटन गुरु को ग्यान, ध्यान को धोवणो।
कान अखोटा ग्यान, जुगत को झूटणो।।
बेसरि हरि को नाम, चूड़ो चित को घूंघरो।
बिंदली गज और हार, तिलक गुरु-ग्यान को।।
सजि सोळह सिणगार, पहरि सोनै राखड़ी।
साँवळिया सूं प्रीत, औरां सूं आखड़ी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | अगम | अगम्य |
2. | हौज | पानी का तालाब |
3. | केळा | क्रीडा |
4. | चीर | वस्त्र |
5. | छिमता | क्षमता |
6. | सुमत | सुबुद्धि |
7. | मूंदसो | अंगूठी |
8. | दरियाव | समुन्द्र |
9. | धोवणो | धुलाई |
10. | अखोटा | कान का भूषण |
11. | जुगत | युक्ति |
12. | झूटणो | झुमका |
13. | बेसरि | नाक का आभूषण |
14. | राखड़ी | सिर का गहना |
15. | आखडी | विरक्ति |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई कहती है कि चलो, उस अगम्य प्रभु के देश। यह वह देश है, जहाँ काल भी उसको देखते हुये डरता है। वहाँ प्रेम रूपी पानी का तालाब है, वहाँ हँस क्रीड़ा करते हैं। जीव आत्मा रूपी हँस प्रभु के प्रेम रूपी तालाब में क्रीड़ा करते है। मैं लज्जा रूपी वस्त्र की ओढ़नी बना लूँगी और धीरज रूपी घाघरा पहन लूँगी तथा क्षमता रूपी कंगन हाथ में धारण कर लूँगी।
सुबुद्धि रुपी अँगूठी को धारण करुँगी और मेरा विस्तृत उदार हृदय दो लड़ी माला के समान है। सत्य रूपी (दोवडो) आभूषण को धारण करुँगी। ज्ञान रूपी उबटन को लगाऊँगी और ध्यान रुपी धुलाई करुँगी। ज्ञान रूपी कान का अखोटा आभूषण पहनूँगी और ईश्वर प्राप्ति की युक्ति रूपी झुमका पहनूँगी।
अपने नाक में बेसरि को हरी का नाम बना लूँगी और चित्त रूपी चूड़ा धारण करुँगी। बिंदी और हार को ज्ञान का प्रतीक मानूँगी। गुरु-ज्ञान रूपी माथे का तिलक मैं धारण करुँगी। मैं सोलह श्रृंगार की सजावट लूँगी और सिर का गहना (राखड़ी) को पहनूँगी। यह सब श्रृंगार पहनकर मैं साँवरियाँ से प्रेम करुँगी और सब से विरक्ति कर लूँगी।
पद : 89.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali Saar with Hard Meanings in Hindi
वडै घर ताळी लागी रे।
म्हारा मन री उणारथ भागी रे।।
छीलरियै म्हारो चित नहीं रे, डाबरियै कुण जाव।
गंगा-जमना सूं काम नहीं रे, मैं तो जाइ मिलूँ दरियाव।।
हळयां-मोळयां सूं काम नहीं रे, सीख नहीं सिरदार।
कामदारां सूं काम नहीं रे, लोहा चढ़ै सिर भार।।
काथ-कथीर सूं काम नहीं रे, लोहा चढ़ै सिर भार।
सोना-रूपा सूं काम नहीं रे, म्हारे हीरां रो वौपार।।
भाग हमारे जागियो रे, भयो समँद सूँ सीर।
इमरत-प्याला छाँड़ि कै, कुण पीवै कड़वो नीर।।
पीपा कूँ प्रभु परचो दीन्हौ, दिया रे खजीना पूर।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, धणी मिल्या छै हजूर।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | ताळी | संबंध हो गया |
2. | छीलरियै | छिछली तलैया |
3. | सिरदार | सामंत |
4. | रूपा | चाँदी |
5. | वौपार | व्यापार |
6. | भाग | भाग्य |
7. | सीर | संबंध |
8. | इमरत | अमृत |
9. | कुण | कौन |
10. | परचो | चमत्कार |
11. | पूर | पूरा भर दिया |
12. | हजूर | स्वयं भगवान |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि बड़े घर से संबंध हो गया है। बड़े घराने वाले व्यक्ति से संबंध हो गया है। मेरे मन की लालसा भाग गयी है। मेरा मन बहुत गहरा है। वह छिछली तलैया नहीं है। डाबरिया अर्थात् पानी से भरा हुये छोटे गड्ढे में कौन जायेगा?
ईश्वरीय प्रेम बहुत गहरा है। गंगा-जमुना से मेरा काम नहीं चलेगा रे। मैं तो जाकर समंदर से मिलूँगी। हाली-मुहाली (खेत पर काम करने वाले किसान) से कोई काम नहीं है। सामंतो से भी संबंध नहीं है। जागीरो का बंदोबस्त करने वाले प्रधानों से मेरा कोई काम नहीं है। यह अतिरिक्त भार अब मैं धारण नहीं करूँगी।
कम मूल्य की हल्की धातु से मेरा काम नहीं है। यह सिर पर भार के समान लगती है। अनावश्यक सिर पर भार मैं नहीं रखूँगी। सोना-चांदी से भी कोई काम नहीं है, क्योंकि हमारा व्यापार तो हीरों से है अर्थात् श्रीकृष्ण रूपी हीरों से व्यापार करती हूँ। हमारा भाग्य तो जाग गया है, क्योंकि समुद्र से संबंध हो गया है।
मीराबाई कहती है कि प्रभु की भक्ति का अमृत प्याला छोड़कर ये कौन कड़वा जल पियेगा। हे प्रभु ! आपने संत पीपा को चमत्कार दिखाया और खजाना पूरा भर दिया। ईश्वरीय प्रेम रूपी खजाने से परिपूर्ण कर दिया है। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर ! आप तो मुझे स्वयं मिल गये हैं। मेरे स्वामी मुझे मिल गये हैं।
पद : 90.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ सार Meera Muktavali Saar in Hindi
मोहि लागी लगन गुरु-चरणन की।
चरन विना कछुवै नहि भावै, जग-माया सब सपनन की।।
भव-सागर सब देख लियो है, फिकर नहीं मोहे तरनन की।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर, आस वही गुरु-सरनन की।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | मोहि | मुझे |
2. | लागी | लग गई है |
3. | कछुवै | कुछ भी |
4. | भावै | भाता है |
5. | सपनन की | सपनों की |
6. | फिकर | चिंता करना |
7. | तरनन | संसार सागर को पार करने की |
8. | आस | आशा |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि मुझे गुरुजी के चरणों से प्रेम की लगन लग गई है। गुरुजी के चरणों के बिना कुछ भी मुझे नहीं भाता है। संसार की ये जो माया है, सपनों की है। स्वपन जितनी झूठी, ये माया है। संसार रूपी सागर को देख लिया है। अब मुझे संसार सागर को पार करने की चिंता नहीं है। गुरु के शरण की ही आशा शेष है।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के अगले 86-90 पदों का सार शब्दार्थ सहित समझा। फिर मिलते है कुछ नये महत्वपूर्ण पदों के साथ।
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