Ras ke Avyav Aur Visheshtaye | रस के अवयव और विशेषताएँ


Ras ke Avyav Aur Visheshtaye | रस के अवयव और विशेषताएँ : दोस्तों ! आज के लेख में हम रस के अवयव या अंग या भेद तथा उसकी प्रमुख विशेषताओं के बारे में अध्ययन करने जा रहे है। यह एक अति महत्वपूर्ण टॉपिक है जिसमेँ से अक्सर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते रहते है।



Ras ke Avyav | रस के अवयव या अंग


Ras ke Avyav | रस के अवयव या अंग : जैसा कि आपने पूर्व में पढ़ा है कि स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव ये रस के अंग माने गये हैं । जिन्हें इस प्रकार समझ सकते हैं:-

  • स्थायी भाव
  • संचारी भाव
  • विभाव
  • अनुभाव
Ras ke Avyav Aur Visheshtaye | रस के अवयव और विशेषताएँ

Sthayi Bhav | स्थायी भाव

Sthayi Bhav | स्थायी भाव : मनुष्य के जन्म लेने के साथ ही यह भाव चित्त में विद्यमान रहते हैं। स्थाई भाव का गुण है : स्थायित्व

  • यह स्थायी भाव किन्हीं भी अनुकूल या प्रतिकूल भाव से नष्ट नहीं होते बल्कि प्रतिकूल भावों को भी अपने अनुकूल बना लेते हैं ।
  • प्रत्येक रस का एक निश्चित स्थाई भाव होता है अतः स्थायी भाव की विशेषता है = एकनिष्ठता
  • स्थायी भाव की सत्ता तब तक रहती है जब तक रस की स्थिति रहती है।
स्थायी भावरस
शोककरुण रस
विस्मयअद्भुत रस
उत्साहवीर रस
क्रोधरौद्र रस
हास हास्य रस
जुगुप्सावीभत्स रस
भयभयानक रस
रतिश्रृंगार रस
शम या निर्वेदशांत रस
संतान विषयक रतिवात्सल्य रस
भगवत विषयक रतिभक्ति रस
  • स्थायी भावों की संख्या 9 होती है।

दोस्तों ! जैसा कि आप जानते हैं कि आचार्य भरतमुनि ने 8 रस और 8 स्थायी भाव ही माने हैं।

  • नवें रस के रूप में शांत रस की पहली बार उदभावना करने वाले विद्वान आचार्य उदभट हैं । बाद में आचार्य अभिनव गुप्त ने शांत रस को विशेष रूप से स्थापित करते हुए इसे सभी रसों में श्रेष्ठ बतलाया है।
  • 10वें रस के रूप में वात्सल्य रस, आचार्य विश्वनाथ के समय तक आते-आते स्थापित हो गया था।
  • 11वें रस के रूप में भक्ति रस, पंडितराज जगन्नाथ के समय तक स्थापित हो गया था।

दोस्तों ! भक्ति को रास के रूप में स्थापित करने में इन रचनाओं का विशेष योगदान रहा है :-

रूप गोस्वामी कृत उज्जवल नीलमणि
मधुसूदन सरस्वती कृत भगवद भक्ति रसायन
आचार्य शांडिल्य कृत शांडिल्य भक्ति सूत्र

दोस्तों ! हम आपको बता दें कि आचार्य भरतमुनि ने 4 मुख्य रस और 4 गुण रस माने हैं जो इस प्रकार से हैं :

मुख्य रसगौण रस
वीर रस अद्भुत रस
रौद्र रसकरुण रस
वीभत्स रस भयानक रस
श्रृंगार रसहास्य रस


Sanchari Bhav | संचारी भाव

Sanchari Bhav | संचारी भाव : अस्थिर चित्तवृत्तियों या मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। यह संचरण करने वाले ऐसे भाव है जो विविध रसों के अनुकूल होकर चलते हैं । इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं ।

यह ना तो स्थायी होते हैं और ना ही एकनिष्ठ । बहुत सारे संचारी भाव मिलकर एक स्थायी भाव का निर्माण करते हैं और स्वयं पृष्ठभूमि में चले जाते हैं।

संचारी भावों की संख्या 33 मानी जाती है। जो इसप्रकार से है :

  • : असूया, अमर्ष, अवहित्था, अपस्मार
  • ब : व्याधि, ब्रीडा, विवोध, विषाद, वितर्क
  • आ : आवेग, आलस्य
  • उ : उग्रता, उत्सुकता, उन्माद
  • स : श्रम, स्मृति, शंका, स्वप्न
  • म : मति, मोह, मद, मरण
  • न : निद्रा, निर्वेद
  • च : चिंता, चपलता
  • ज : जड़ता
  • ग : गर्व, ग्लानि
  • ह : हर्ष
  • त्र : त्रास
  • धृ : धृति
  • द : दैन्य ( दीनता)

स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर

स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर : स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर निम्नप्रकार समझा जा सकता है –

  • संचारी अस्थिर होते हैं जबकि स्थायी भाव स्थिर होते हैं।
  • संचारी भाव एकनिष्ठ नहीं होते है क्योंकि यह अनेक रसों के अनुकूल और सहयोगी होकर चलते हैं जबकि स्थायी भाव एकनिष्ठ होता है प्रत्येक रस का एक निश्चित भाव होता है ।
  • स्थायी भाव को उत्पन्न करके संचारी भाव स्वयं हट जाते हैं जबकि स्थायी भाव रस को उत्पन्न करके स्वयं नहीं हटता ।
  • स्थायी भाव और रस दोनों की सत्ता अन्योन्याश्रित है।

Vibhav | विभाव

Vibhav | विभाव : स्थायी भाव की उत्पत्ति के कारण विभाव कहलाते हैं । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार विभाव से हमारा तात्पर्य उन वस्तुओं या पदार्थों से हैं, जिनके प्रति हमारे मन में कोई भाव या संवेदना होती है।

विभाव के भेद : विभाव के दो भेद होते हैं :

  1. आलंबन विभाव
  2. उद्दीपन विभाव

1. आलंबन विभाव :

जिसके द्वारा या जिसके आधार पर अवलंबित होकर रस उत्पन्न होता है उसे आलंबन विभाव कहते हैं ।
(i) आश्रय विभाव : जिसके हृदय में रति आदि स्थायी भाव पैदा होते हैं और स्थिर रहते हैं उसे आश्रय विभाव कहते हैं।

2. उद्दीपन विभाव :

आश्रय के हृदय में स्थिति रति आदि स्थायी भाव को तीव्र/ चमक /उद्दीप्त करने वाले कारक उद्दीपन विभाव कहलाता है । इसमें बाहरी परिस्थितियां भी होती है तथा आलंबन की चेष्टाएं भी होती है। जैसे-

मधुबन तुम कत रहत हरे , विरह वियोग स्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरें।।

यहां —

  • आलंबन = श्री कृष्ण
  • आश्रय = गोपियां
  • उद्दीपन = श्री कृष्ण की यादें, मधुबन का हरा भरा होना।

Anubhav | अनुभाव

Anubhav | अनुभाव : अनुभाव का शाब्दिक अर्थ है = बाद में

आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं । जबकि आलंबन की चेष्टाएँ उद्दीपन कहलाती है। आप इसको ऐसे समझ सकते हैं कि आश्रय के हृदय में स्थित रति आदी स्थायी भाव की जानकारी उनकी जिन चेष्टाओं से मिलती है, उसे अनुभाव कहते हैं । जैसे कुछ उदाहरण से समझें:

आश्रय त्रासति मुख नटति आँखिन सौ लपटाती ।
एचि खींचती करि आगे इचि आवतै जाति ।। — (कायिक अनुभाव)

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौह करें भौंहनु हंसे देन कहे नटि जाहि।। — (कायिक अनुभव)

फिर सुना अट्टहास हंस रहा रावण खल खल
भावित नैनों से सजल गिरे दो मुक्ता दल — (सात्विक अनुभाव)



Ras ki Visheshtaye | रस की विशेषताएं


Ras ki Visheshtaye | रस की विशेषताएं : रस की विशेषताएं इस प्रकार से है –

  • आचार्य भरतमुनि ने रस की भावमूलक सत्ता मानी है । इनके अनुसार रस आस्वाद्य रूप है । जो कवि निबद्ध भाव से सहृदय के लिए आस्वाद रूप बनता है ।

हम आपको बता दें कि आचार्य विश्वनाथ ने रस को आस्वाद रूप माना है।

  • आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है कि जिस प्रकार अनेक प्रकार के व्यंजनों एवं औषधियों के द्वारा हमें सुसंस्कृत व सुस्वादिष्ट भोजन के आनंद की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार काव्य अथवा नाटक में विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के संयोग द्वारा हमें आनंद की प्राप्ति होती है — यही आनंद रस है।
  • भरतमुनि ने रस की प्रकृति आनंद बतलाया है लेकिन यह आनंद भौतिकवादी सुख नहीं है । यह आनंद दार्शनिकता से जुड़ा हुआ शब्द है । रस द्वारा हम नैतिकता की तरफ उन्मुख होते हैं ।
  • रस राग द्वेष मुक्त अवस्था का नाम है । रसमग्न पाठक देश काल के क्षुद्र बंधनों से ऊपर उठ जाता है ।वह ममत्व-परत्व, सुख-दु:ख के बंधनों से मुक्त हो जाता है और एक निर्वैयक्तिक अनुभव करने लगता है — यही रस दशा है।
  • आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार रस चर्वणा दशा में पूर्ण आत्मविश्रांतिक रुप होता है । अभिनव गुप्त का विचार है कि विभावादी व्यंजक होते हैं तथा रस व्यंग्य होता है ।
  • रस की मूल स्थिति अलौकिक होती है लौकिक नहीं।
  • आचार्य विश्वनाथ ने “साहित्य दर्पण” में रस के स्वरूप को इस प्रकार से व्यक्त किया है :-

“सत्वोद्रेका खंड : स्वप्रकाशानंद चिन्मय , वेद्यान्तर स्पर्श शून्य ब्रह्मानन्द सहोदर:।
लोकोत्तर चमत्कार प्राण: कैश्चितप्रमातृयि, स्वकारवद भिन्न तवे नायमा स्वाद्यते रस: ।

— रस सत्वोद्रेका खंड है अर्थात सत्व गुण के उद्रेक में रस की स्थिति होती है। जब रजोगुण एवं तमोगुण का तिरोभाव हो जाता है और सत्व गुण का आविर्भाव हो वहां रस की स्थिति मानी जाती है ।

— रस विभाज्य एवं अखंडित है क्योंकि रस टुकड़ों में प्राप्त नहीं होता है ।

— यह स्वप्रकाशानंद है ,वह चिन्मय रूप है, अद्वितीय है।

— यह वेद्यान्तर स्पर्श शून्य है अर्थात रस मग्न पाठक को संसार के अन्य वैद्य विषयों की जानकारी नहीं रह जाती।

— रस ब्रह्मानंद सहोदर है (तैत्तिरीय उपनिषद में लिखा है = रसो व:स: ( रस वैसा ही है)

— यह लोकोत्तर चमत्कार प्राण है अर्थात रस की मूल स्थिति अलौकिक है।

— रस कैश्चितप्रमातृयि है अर्थात रस का प्रमाता (सहृदय) कोई कोई होता है।

  • विद्वानों ने रस की चार श्रेणियां स्वीकार की है जो इस प्रकार है :
  1. सौहित्य रस = वनस्पति रस
  2. पारद रस = आयुर्वेद का रस
  3. भक्ति का रस = ब्रह्मानंद
  4. साहित्य का रस = काव्य रस/ब्रह्मानंद सहोदर

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एक गुजारिश :

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