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मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali (81-85)
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali-Narottam Das (81-85) in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! हमेशा की तरह आज भी हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले पदों की व्याख्या लेकर हाजिर है। तो चलिए आज इसके अगले 81-85 पदों का शब्दार्थ सहित भाव समझते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (81-85)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 81-85 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 81 से लेकर 85 तक के पदों का शब्दार्थ सहित भाव निम्नानुसार है :
पद : 81.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali Ke 81-85 Pad in Hindi
मैंने राम रतन धन पायो।
वसत अमोलक दी मेरे सतगुर, करि किरपा अपणायो।।
जनम-जनम की पूँजी पायी, जग मैं सबै खोवायो।
चरचै नहिं कोई चोर न लेवे, दिन-दिन वधत सवायो।।
सत की नींव खेवठिया सतगुर, भवसागर तरि आयो।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, हरखि-हरखि जस गयो।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | वसत | वस्तु |
2. | अमोलक | अमूल्य |
3. | सबै | सभी |
4. | खोवायो | खो दिया है |
5. | नींव | नाव |
6. | खेवठिया | खेने वाला कर्णधार |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीरा कह रही है कि मैंने तो राम-रत्न रूपी धन पा लिया है। यह अमूल्य वस्तु मुझे मेरे सतगुरु ने दी है और मैंने इसे अपने पर कृपा समझ करके अपना लिया है। मैंने तो जनम-जनम की पूँजी को पा लिया और मैंने इस जगत के सभी सांसारिक सुखों को खोकर ही राम-रत्न रूपी धन को पाया है।
ये ऐसी पूँजी है, जो कभी खर्च नहीं होगी। कोई चोर इसको चुरा नहीं सकता है और ये दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। इस सत की नाव को खेने वाले सतगुरु हैं। अब मैं इस संसार रूपी भवसागर को पार कर जाऊँगी।
मीराबाई कहती है कि हे मीरा के प्रभु गिरिधर नागर ! यह मीरा अपने प्रभु के यश का गायन प्रसन्न-प्रसन्न होकर के करती है।
पद : 82.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali Bhav – Narottamdas Swami in Hindi
मेरो मन राम-हि-राम रटै,
राम-नाम जप लीजै प्राणी ! कोटिक पाप कटै।
जनम-जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत फटै।।
कनक-कटोरे इमरत भरियो, पीवत कूण नटै।
मीरां के प्रभु हरि अविनासी तन मन ताहि पटै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | रटै | रटता है |
2. | कोटिक | करोड़ों |
3. | इमरत | अमृत |
4. | कूण | कौन |
5. | पटै | अधीन |
6. | ताहि | उसके |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि मेरा मन तो केवल श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण (श्रीराम) ही रटता रहता है। अरे प्राणी अपने प्रभु का नाम जप लो, तुम्हारे करोड़ों पाप मिट जायेंगे। जो तुम्हारे जन्म-जन्म के पुराने कर्मों के चिट्ठे हैं, वे सब फट करके नष्ट हो जायेंगे।
मीरा कहती है कि आपके सोने के कटोरे जैसे शरीर में प्रेम रूपी अमृत भरा हुआ है। इसको पीने से कौन मना करेगा ? हे मीरा के प्रभु ! आप हरि अविनाशी है। अब मैं तन-मन को आप के अधीन करती हूँ।
पद : 83.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali – Bhav Shabdarth Sahit in Hindi
नहिं अैसो जनम वारंवार।
का जानूं, कछू पुण्य प्रगटे मानुसा अवतार।।
बधत छिन-छिन, घटत पल-पल, जात न लागै वार।
बिरछ के ज्यों पात टूटे, बहुरि न लागै डार।।
भौसागर अति जोर कहियै, अनंत ऊंडी धार।
राम-नाम का बांध बेड़ा, उतर परले पार।।
ग्यान-चौसर मंडी चोहटे, सुरत पासा पार।
या दुनिया में रची बाजी, जीत भावैं हार।।
साधु संत महंत ग्यानी चलत करत पुकार।
दासि मीरां लाल गिरधर, जीवणो दिन च्यार।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | मानुसा | मनुष्य |
2. | बधत | आयु बढ़ना |
3. | वार | देर |
4. | बिरछ | वृक्ष |
5. | भौसागर | भव रूपी सागर |
6. | ऊंडी | गहरी |
7. | बेड़ा | नाव |
8. | परले | उस पार |
9. | मंडी | बिछी है |
10. | चोहटे | बाजार |
व्याख्या :
कवयित्री मीराबाई कहती है कि ऐसा जन्म बार-बार नहीं मिलता है। यह जो मनुष्य रूपी देह मिली है, यह बार-बार नहीं मिलती है। तुम्हें क्या पता, कुछ बड़े पुण्य पुराने जन्म में किये थे, जो यह मानव जीवन तुमको मिला है।
तुम्हें क्या, पता क्षण-क्षण में यह आयु बढ़ती जा रही है और जीवन पल-पल घटता जा रहा है, ऐसे कम होते हुये इसे देर भी नहीं लग रही है। जैसे वृक्ष के पत्ते टूट जाते हैं और फिर दोबारा वे डाली पर नहीं लगते हैं। वैभव रूपी सागर अत्यंत प्रबल है। इसकी धार बहुत गहरी है और डूबने की पूरी पूरी संभावना है।
मीरा बाई आगे कहती हैं कि राम-नाम रूपी नाव बना ले, यदि तुझे संसार रूपी भवसागर से पार जाना है और उस पार उतरना है। ज्ञान रूपी चौसर का खेल बाजार में बिछा हुआ है। तू उस खेल को खेल तथा श्रीराम के ध्यान रूपी पाशे फेंक और उस पार हो जा। इस दुनिया में यह खेल बना हुआ है, अब कोई जीते या चाहे हारे।
मीराबाई कह रही है कि साधु-संत लोग और महन्त लोग चलते हुये पुकार कर रहे हैं कि ईश्वर के चरणों में ध्यान लगाओ और अपने इस मानव देह के जीवन को ऐसे ही नष्ट मत करो।
मीरा कहती है कि मैं तो दासी हूँ, अपने प्रभु की और यहाँ तो केवल 4 दिन का यह जीवन है। यह संसार नश्वर है, इसलिए अपने श्रीकृष्ण जी से भक्ति कर लो और अपने जीवन को हमेशा-हमेशा के लिए सफल बना लो।
पद : 84.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali Bhav with Hard Meanings in Hindi
लागि मोहि राम-खुमारी हो !
रिमझिम वरसै मेहड़ा, भीजै तन सारी हो।
चहुँदिस चमकै दामणी, गरजै घन भारी हो।।
सतगुर भेद बताइया, खोली भरम-किंवारी हो।
सब घट दीसै आतमा, सबही सूँ न्यारी हो।।
दीपग जोऊँ ग्यान का, चढूँ अगम-अटारी हो।
मीरां दासी राम की, इमरत बलिहारी हो।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | मोहि | मुझे |
2. | खुमारी | नशे की मस्ती |
3. | मेहड़ा | वर्षा |
4. | सारी | संपूर्ण |
5. | दामणी | बिजली |
6. | भेद | रहस्य |
7. | भरम | भ्रम |
8. | किंवारी | भ्रम रूपी द्वार |
9. | घट | तन |
10. | दीसै | दिखलाई देती है |
11. | न्यारी | निराली |
12. | जोऊँ | जलाना |
13. | अगम-अटारी | अगम्य रूपी अटारी (ईश्वरीय लोक) |
14. | इमरत | अमृत |
व्याख्या :
मीरा बाई कह रही है कि मुझे श्रीराम या श्रीकृष्ण नाम की खुमारी लग गई है और ईश्वर के प्रेम जल की वर्षा में मेरा संपूर्ण अंतर्मन भीग रहा है। चारों दिशाओं में बिजली चमक रही है और बादल भारी गर्जना कर रहे हैं। सतगुरु इस रहस्य को बता रहे हैं कि भ्रम के द्वार को खोल दो।
मीराबाई कहती है कि सभी शरीर में आत्मा दिखलाई देती है। जो आत्मा, परमात्मा के रंग में रंग गई है, वह तो सबसे निराली दिखलाई देगी। मैं ज्ञान रूपी दीपक जलाऊँगी और अगम्य रुपी अटारी पर चढ़ जाऊँगी, जो ईश्वरीय लोक है, उस पर मैं चढ जाऊँगी। मीरा अपने श्रीकृष्ण जी की दासी है और प्रभु श्रीकृष्ण जी के प्रेम रुपी अमृत पर बलिहारी जाती हूँ।
पद : 85.
मीरा मुक्तावली का शब्दार्थ भाव Meera Muktavali Bhav in Hindi
वाला ! मैं वैरागण हूंगी।
जिहि-जिहि भेख मेरो साहब रीझै, सोइ-सोइ भेख करूंगी।।
सील संतोस धरूं घर भीतर, समता पकड़ रहूंगी।
प्रेम-प्रीती सूं हरि-गुण गाऊं, चरणन लिपट रहूंगी।।
या तन की मैं करूं किंगरी, रसना राम कहूंगी।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, साधां संग रहूंगी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | वैरागण | वैराग्य |
2. | भेख | वेश |
3. | रीझै | प्रसन्न |
4. | सील | चरित्र |
5. | घर | हृदय |
6. | किंगरी | एक तांत का बाजा |
7. | रसना | जीभ |
8. | सांधा | साधुओं |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि हे वल्लभ (श्री कृष्ण) ! मैं आपके प्रेम में वैराग्य ले लूँगी। जिस-जिस वेशभूषा में मेरे श्रीकृष्ण जी प्रसन्न होंगे, मैं वैसा-वैसा ही वेश धारण करुँगी। चरित्र, संतोष को मैं अपने हृदय के भीतर धारण करुँगी और समता के भाव को पकड़ूँगी।
सुख व दु:ख में समान भाव रहूँगी। इस तन को मैं किंगरी (ताँत का बाजा) बना दूँगी और जीभ से श्रीराम जी का नाम कहती रहूँगी। जो ईश्वर जी के भक्त हैं, उनके संग रहूँगी। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तो गिरधर नागर ही हैं, मैं तो उन्हीं के गुण गाऊँगी।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के अगले 81-85 पदों का भाव शब्दार्थ सहित समझा। फिर मिलते है कुछ नये महत्वपूर्ण पदों के साथ।
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एक गुजारिश :
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