Contents
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali (76-80)
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali-Narottam Das (76-80) in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले 76-80 पदों की शब्दार्थ-व्याख्या करने जा रहे है। तो चलिये शुरु करते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
नीचे दी गयी पुस्तकों को खरीद सकते है। ये आपके लिए उपयोगी पुस्तके है। तो अभी Shop Now कीजिये :
Meera Muktavali मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (76-80)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 76-80 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 76 से लेकर 80 तक के पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 76.
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali Ke 76-80 Pad in Hindi
मेहा ! वरसबो कर दे,
आज तो रमइयो म्हारै घर रै।
नान्ही-नान्ही बूँदन मेहा वरसै, सूखे सरवर भर रे।।
बहुत दिनन पै प्रीतम पायो, बिछुड़न को माहि डर रे।
मीरां कह अति नेह जुडायो, मैं लियो पुरबलो बर रे।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | मेहा | वर्षा |
2. | सरवर | सरोवर |
3. | पै | के बाद |
4. | माहि | मुझे |
5. | नेह | प्रेम |
6. | जुड़ायो | जोड़ लिया है |
7. | पुरबलो | पूर्व जन्म |
8. | बर | वरदान |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई कह रही है कि अरे वर्षा ! अब बरसना शुरू कर दो। आज तो मेरे रमइया मेरे घर में है। नन्हीं-नन्हीं बूंदों में वर्षा बरस रही है और जो सूखे सरोवर हैं, उन्हें भर दो। बहुत दिनों के बाद मैंने प्रियतम को पाया है। अब मुझे डर लग रहा है कि प्रियतम मेरे से बिछड़ ना जाये।
मीराबाई कहती है कि मैंने अत्यधिक प्रेम जोड़ लिया है। ये मेरा पूर्व जन्म का वरदान था, जो मैंने प्राप्त कर लिया है।
पद : 77.
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali Vyakhya – Narottamdas Swami in Hindi
आवो सहेल्यां ! रळी करां हे।
पर-घर-गवण निवारि।।
झूठा माणिक-मोतिया हे, झूठी जगमग जोति।
झूठा सब आभूखणा हे, सांचि पियाजी री पोति।।
झूठा पाट-पटंबरा हे, झूठा दिखणी चीर।
सांची पियाजी री गूदड़ी हे, निरमळ करे सरीर।।
छप्पन भोग बहाइ दे हे, इन भोगण में दाग।
लूण-अलूणो ही भलो हे, अपणै पियाजी रो साग।।
देखि विराणै निवाण कूँ हे, क्यूँ उपजावै खीज।
कालर अपणो ही भलो हे, जामें निपजै चीज।।
छैल बिराणो लाख को हे, अपणै काज न होइ।
वा कै संग सिधारतां हे, भलो न कहसी कोइ।।
अविनासी सू वालभा हे, जिणसूं सांची प्रीति।
मीरां कूं प्रभु मिल्या हे, अेहि भगति की रीत।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | रळी | आनंद |
2. | निवारि | रोक दो / छोड़ दो |
3. | जाति | ज्योति |
4. | आभूखणा | आभूषण |
5. | सांचि | सच्ची |
6. | पोति | पोत की माला |
7. | चीर | वस्त्र |
8. | पाट-पटंबरा | रेशमी वस्त्रादि |
9. | बहाइ दे | छोड़ दो |
10. | साग | सब्जी |
11. | बिराणै | पराये |
12. | निवाण | नीची उपजाऊ भूमि |
13. | कहसी | कहेगा |
14. | वालभा | वल्लभ |
15. | जिणसूं | उनसे |
16. | अेहि | यही |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि आओ मेरी सहेलियों ! मिल करके आनंद करें। अब दूसरों के घर नहीं जाना, अपने घर पर ही आनंद करना है। यह सब माणक-मोती झूठे हैं। यह जो जगमगाती ज्योति है, ये भी झूठी है। सब आभूषण झूठे है और सच्ची तो केवल पिया जी की पोत की माला है।
ये जो कीमती रेशमी वस्त्र आदि हैं, ये सब झूठ है। पिया जी की तो गूदडी भी सच्ची है। जो प्रियतम की प्रेम-भक्ति है, वह तो शरीर को भी निर्मल कर देती है। आप इन छप्पन भोग को भी हटा दो, बहा दो। इनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन भोगों में तो दाग है। अपने पिया जी का तो नमक का या बिना नमक का साग भी अच्छा है।
मीराबाई कहती है कि दूसरों की सुख-सुविधा को देखकर अपने मन में खींज क्यों करता है ? पराई, नीची उपजाऊ भूमि को देखकर क्यों खींजता है ? अपनी भूमि खरी ऊसर भी अच्छी है, जिसमें कोई भी वस्तु उत्पन्न होती हो। दूसरा, पराया चाहे लाख का हो, पर वह अपने किसी काम का नहीं है। पराये के साथ जाते हुये को कोई अच्छा नहीं कहेगा। यह तो गलत बात है।
मीराबाई कहती है कि मेरी तो सच्ची प्रीत उनसे ही है, जो मेरे वल्लभ हैं अर्थात् श्रीकृष्ण जी है। यही भक्ति की पद्धति है, यही रीती है। अपने प्रियतम से एक निष्ठ प्रेम किया जाये और उससे कीमती कोई चीज नहीं होती, चाहे पराया लाख का हो।
पद : 78.
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali – Vyakhya Shabdarth Sahit in Hindi
भज मन ! चरण कँवल अविनासी।
जताइ दीसै धरणि-गगन विच, तेताइ सव उठ जासी।।
इस देही का गरब न करणा, माटी में मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पड्या उड़ जासी।।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भये संन्यासी।
जोगी हुई जुगति नहिं जाणी, उलटि जन्म फिर आसी।।
अरज करूँ अबळा कर जोरे, स्याम ! तुम्हारी दासी।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर ! काटी जम की फाँसी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | जताइ | जितना भी |
2. | दीसै | दिखना |
3. | धरणि | धरती |
4. | विच | बीच |
5. | उठ जासी | नष्ट हो जायेगा |
6. | चहर | चौसर का खेल |
7. | अरज | प्रार्थना |
8. | जम | यमराज |
व्याख्या :
मीराबाई अपने मन को संबोधित करते हुई कह रही है कि रे मन ! तू चरण-कमलों पर ध्यान लगा, जो अविनाशी है। धरती और आकाश के बीच में जितना भी दिख रहा है, वह सब नष्ट हो जायेगा। इस शरीर का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। यह एक दिन माटी में मिल जायेगा।
यह संसार चौसर का खेल है। सांझ होते ही यह उठ जायेगा। यह संसार नश्वरता प्रदर्शित कर रहा है। मीराबाई ऐसे लोगों को पर व्यंग्य कर रही है, जो सच्चे ईश्वर भक्त नहीं होते है और केवल वस्त्र-वेशभूषा धारण करके आडंबर करते हैं।
इसलिए मीराबाई कहती है कि भगवा-वस्त्र धारण कर लेने से कोई ईश्वर का भक्त नहीं हो जाता है। घर को त्याग कर, जो सन्यासी बन जाता है, वह भी असली सन्यासी नहीं है। जोगी बनकर परमात्मा से मिलन की युक्ति जिसने नहीं जानी, वह फिर इसी जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहेगा।
मीराबाई कहती है कि हे प्रभु ! मैं अबला आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ। हे प्रभु ! मैं आपकी दासी हूँ। हे मेरे गिरधर नागर ! आप मेरे जन्म-मरण के फंदों से मुझे आजाद कर दीजिये। इस यम की फाँसी को भी काट दीजिये।
पद : 79.
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali Arth with Hard Meanings in Hindi
मन रे परसि हरि के चरण।
सुभग सीतल कंवर-कोमल, त्रिविध ज्वाला हरण।।
जिण चरण प्रहळाद परसे, इंद्र पदवी धरण।।
जिण चरण ध्रुव अटल कीने, राखि अपनी सरण।
जिण चरण ब्रह्मांड भेट्यो, नख-सिखा सिरि धरण।।
जिण चरण प्रभु परसि लीने तरी गौतम धरण।
जिण चरण काली नाग नाथ्यों, गोप-लीला करण।।
जिण चरण गोवरधन धरयो, इंद्र को ग्रब हरण।
दासि मीरां लाल गिरधर, अगम तारण-तरण।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | परसि | स्पर्श |
2. | त्रिविधी | तीन ताप |
3. | सुभग | सुंदर |
4. | सिरि | श्री / शोभा |
5. | तरी | उद्धार |
6. | नाथ्यों | मथ दिया |
7. | ग्रब | गर्व |
8. | अगम | अगम्य |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि हे मन ! हरि के चरणों का स्पर्श कर, ये बहुत ही सुंदर है और शीतलता प्रदान करने वाले हैं। ये कमल के समान कोमल है और तीनों तापों (दैहिक, दैविक एवं भौतिक) की ज्वालाओं का हरण करने वाले हैं। इन चरणों की भक्ति-भावना की तो इंद्र के समान पदवी प्रह्लाद को धारण करवा दी। जिन चरणों ने भक्त ध्रुव को अटल कर दिया और अपनी शरण में बनाये रखा, ये चरण तो शरणागत वत्सल हैं।
इन चरणों ने संपूर्ण ब्रह्मांड से ही भेंट कर ली वामन अवतार में। इनके चरणों की नख-शिख पर श्री शोभायमान है। इन चरणों से गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार हो गया। ये वही चरण है, जिन्होंने कालिया नाग को यमुना में मथ दिया एवं जिन्होंने गोप के संग ग्वाला बनकर के विचरण किया। ये वही चरण है, जिन्होंने गोवर्धन को धारण किया और इंद्र के गर्व का नाश किया। हे मेरे गिरधर नागर ! आप तो अगम्य उद्धारक है और मीरा आपकी दासी है।
पद : 80.
मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali Bhav in Hindi
राम-नाम-रस पीजै,
मनवा ! राम-नाम रस पीजै।
तजि कुसंग सतसंग बैठि नित हरि चरचा सुणि लीजै।।
काम क्रोध मद मोह लोभ कूँ चित से बहाय भीजै।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, ता के रंग में भीजै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | मनवा | मन |
2. | तजि | त्याग दें |
3. | चित् | मन |
4. | बहाय | बाहर निकाल |
5. | मद | अहंकार |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि हे मन ! तू श्रीकृष्ण जी के नाम का रस पी लें । हे मन ! तू कुसंगति को त्याग दें और सत्संग में बैठ। हमेशा हरि की चर्चा सुनने में मन लगा। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह को अपने मन से निकाल दे और मेरे प्रभु श्री गिरिधर नागर के भक्ति-प्रेम रंग में भीग जा।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के अगले 76-80 पदों की व्याख्या को शब्दार्थ सहित समझा। फिर मिलते है कुछ नये महत्वपूर्ण पदों के साथ।
यह भी जरूर पढ़े :
एक गुजारिश :
दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या Meera Muktavali (76-80)” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
नोट्स अच्छे लगे हो तो अपने दोस्तों को सोशल मीडिया पर शेयर करना ना भूले I नोट्स पढ़ने और HindiShri पर बने रहने के लिए आपका धन्यवाद..!