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मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali (46-50)
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali-Narottam Das (46-50) in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! जैसाकि हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” का अध्ययन कर रहे है। इसी श्रृंखला में हम आज इसके अगले 46-50 पदों की व्याख्या समझने जा रहे है। तो चलिए शुरू करते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (46-50)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 46-50 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 46 से लेकर 50 तक के पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 46.
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali Ke 46-50 Pad in Hindi
हम ने सुणी छै, हरी अधम उधारण,
अधम-उधारण, सब-जग-तारण।
गज की अरजि गरजि उठी धायो, संकट पड्यो तब कष्ट निवारण।।
द्रुपद-सुता को चीर वधायो, दूसासन को मान-मद मारण।
प्रहलाद की प्रतंग्या राखी, हरणाकस नख उद्र विदारण।।
रिख-पतनी पर किरपा किन्हीं, विप्र सुदामा की विपत्ति विडारण।
मीरां के प्रभु मो बंदी परि अेती अबेर भयी किण कारण।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | सुणी | सुनना |
2. | धायो | भाग कर आये |
3. | उद्र | पेट को फाड़ने वाला |
4. | विदारण | नाश करने वाले |
5. | विप्र | ब्राह्मण |
6. | बंदी | दासी |
7. | अेती | इतनी |
8. | अबेर | देर |
व्याख्या :
मीरा बाई कहती है कि मैंने सुना है कि श्रीहरि पापी का उद्धार करने वाले है और सारे संसार को तारने वाले है। एक बार तो हाथी की प्रार्थना पर प्रभु गर्जना करके उठे और भाग कर गये तथा हाथी के कष्टों का निवारण कर दिया।
द्रुपद की पुत्री अर्थात् द्रोपदी के चीर को बढ़ाया और दुशासन के अभिमान को नष्ट कर दिया। भक्त प्रहलाद की प्रतिज्ञा को बनाये रखे और हिरण्यकश्यप का नाख़ून से पेट फाड़कर अपने भक्त के कष्टों का निवारण कर दिया।
गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर कृपा की। गरीब ब्राह्मण की विपत्ति का नाश कर दिया। मीरा आपकी दासी है। आपके प्रेम बंधन में फँसी हुई है। तो बताइये इतने उद्धार आपने कर दिये, फिर मेरे उद्धार में इतनी देर किस कारण कर रहे हो।
पद : 47.
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali– Narottamdas Swami in Hindi
प्रभु विन ना सरै माई !
मेरा प्राण निकस्या जात, हरी विन ना सरै माई !
मीन दादुर बसत जल में, जल से उपजाई।
मीन जल से बाहर कीना, तुरत मर जाई।।
काठ लकरी बन परी, काठ घुन खाई।
ले अगन प्रभु डार आये, भसम हो जाई।।
वन-वन ढूंढत मैं फिरी, आली ! सुधि नहिं पायी।
अेक वेर दरसण दीजै, सब कसर मिटि जाई।।
पात ज्यों पीरी अरु बिपत तन छायी।
दासि मीरां लाल गिरधर, मिल्या सुख दायी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | ना सरै | काम नहीं चलता है |
2. | निकस्या | निकलना |
3. | कसर | शेष पीड़ा |
4. | पात | पत्ता |
5. | पीरी | पीली |
व्याख्या :
मीरा बाई कह रही है कि प्रभु के बिना मुझे कुछ भी सूझता नहीं है। प्रभु के बिना तो मेरा कुछ भी काम नहीं चलता है और ना ही कुछ अच्छा लगता है। जल में मछली, मेंढक बसते है और जल से ही उपजते है। यदि मछली को जल से बाहर कर दे तो वह तुरंत मर जायेगी।
मैं उस लकड़ी के समान हो गयी हूँ, जो वन में पड़ी है और उस काठ को घुन खा गयी है अर्थात् नष्ट हो रही है। उस काठ पर प्रभु आग डाल रहे है, जिससे वह भस्म हो रही है। मैं प्रभु को वन-वन ढूँढती फिर रही हूँ।
हे सखी ! मुझे मेरी कोई सुध-बुध नहीं रहती है। बस एक बार हे प्रभु ! मुझे दर्शन दे दीजिये। जितनी भी कसर शेष रह गयी है, वे सभी मिट जायेगी। पत्ते के समान मैं पीली पड़ती जा रही हूँ। बड़ी विपत्ति मेरे शरीर पर छाई हुई है। मैं दासी हूँ आपकी। हे प्रभु ! मेरे सुखदाई मुझे मिल जाइए। मुझे सुख प्रदान करने वाले मुझे एक दर्शन दे दीजिये।
पद : 48.
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali– Vyakhya Shabdarth Sahit in Hindi
हूँ बूझूं पंडित जोसी !
म्हांरो राम-मिलण कद होसी ?
म्हांरी आँख फरुकै बांयी।
म्हांनै साध मिलै कै सांई।।
म्हांरा पिव परदेसां छाया।
किण वैरण ने विलमाया।।
म्हांरी रोइ-रोइ अंखियां राती।
म्हांरो तन दिवलो मन वाती।।
म्हांरा झुर-झुर पिंजर खीना।
जैसें जल विच तळफै मीना।।
उड-उड रे काळा कागा !
म्हांरै पिया नै घणा दिन लागा।।
बाई मीरां विरह विसूरै।
म्हारी आस गुसइयां पूरै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | बूझूं | पूछती हूँ |
2. | साध | साधु |
3. | पिव | प्रिय |
4. | छाया | बसा हुआ है |
5. | वैरण | शत्रु स्त्री |
6. | राती | रक्त वर्ण या लाल |
7. | झुर-झुर | जर्जर |
8. | विसूरै | रोती है |
व्याख्या :
मीरा बाई कहती है कि मैं पंडित और जोशी से अपने बारे में पूछती रहती हूँ कि मेरा श्रीकृष्ण जी से कब मिलना होगा ? मेरी बायीं आँख फड़क रही है। मीरा पूछती है कि हमको हरि भक्त मिलेंगे या हमको प्रभु मिलेंगे। मेरा प्रियतम परदेस बसा हुआ है। किस शत्रु स्त्री ने मुझे मेरे प्रियतम से अलग कर दिया है ?
रो-रो कर मेरी आँखें लाल हो गयी है। हमारा शरीर तो दीये के समान और मन बाती के समान हो गया है। मेरा शरीर का पिंजर क्षीण होता जा रहा है। हमारा शरीर जर्जर होता जा रहा है, क्योंकि इस तन दिवले में ये प्राण बाती निरंतर जलती रहती है। जैसे जल के बिना मछली तड़पती है, वैसी ही स्थिति श्रीकृष्ण जी के वियोग में मेरी हो रही है।
मीरा कौवे को उड़ा रही है। वह श्रीकृष्ण जी की प्रतीक्षा में कौवे को उड़ा रही है। हमारे प्रियतम को बहुत ज्यादा दिन लग गये है। मीरा बाई श्रीकृष्ण जी के विरह में रोती रहती है। अब तो हमारी आशा हमारे गुसइयां स्वामी पर ही टिकी हुई है, वही आशा को पूरी कर सकता है।
पद : 49.
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali with Hard Meanings in Hindi
मेरे प्रियतम प्यारे राम कूं, लिख भेजूं रे पाती,
स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हो, जाणि-बूझ गुझबाती।
डगर बुहारूं, पंथ निहारूं जोइ-जोइ अँखियाँ राती।।
राति-दिवस मोहि कल न पडत है, हियो फटत मेरी छाती।
मीरां के प्रभु कब र मिलोगे, पूरब जनम का साथी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | पाती | पत्री |
2. | सनेसो | स्नेही |
3. | गुझबाती | रहस्य |
4. | डगर | रास्ता |
5. | बुहारूं | साफ़ करूँ |
6. | निहारूं | देखती हूँ |
7. | राती | लाल |
8. | कल | शांति |
9. | हियो | हृदय |
10. | फटत | फटना |
व्याख्या :
मीरा बाई कहती है कि मैं प्रियतम श्रीकृष्ण जी को चिट्ठी लिखकर भेज दूँ। मीरा कह रही है कि मेरे श्याम बहुत ही स्नेही है। मैंने मेरे प्रियतम से जानबूझ कर कोई भी बात नहीं छुपाई है। मैं अपने प्रियतम के रस्ते को देखते हुये उस रस्ते को साफ करती हूँ। उस रस्ते को देख-देखकर मेरी आँखें लाल हो गयी है।
रात-दिन मुझे शांति नहीं पड़ती है। वियोग के कारण मेरा हृदय फटा जा रहा है। हे मीरा के प्रभु ! आप तो मेरे पूर्व जन्म के साथी हो। आप मुझे कब मिलोगे ?
पद : 50.
मीरा मुक्तावली की व्याख्या Meera Muktavali Ki Vyakhya in Hindi
पतियां मैं कैसे लिखूं लिखि ही न जाइ,
कलम धरत मेरो, कर कंपत, हिरदो रह्यो धरराइ।
वात कहूं मोहि वात न आवै, नैण रहे झरराइ।।
किस विध चरण-कंवल मैं गहि हौं, सबहि अंग थरराइ।
मीरां कहै प्रभु गिरधर नागर, सबही दुख विसराइ।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | पतियां | चिट्ठी |
2. | कंपत | काँपना |
3. | झरराइ | झरते रहते है |
4. | थरराइ | काँप रहे है |
5. | विसराइ | भुला देना |
व्याख्या :
मीरा बाई कह रही है कि जब मैं कलम को धारण करती हूँ तो मेरा हाथ काँपता है। मैं पत्री कैसे लिखूँ ? मुझसे लिखी नहीं जाती है और मेरा हृदय भी धड़कता रहता है। मैं कोई बात कहना चाहती हूँ, पर मैं बात कह नहीं पाती हूँ। नेत्र मेरे निरंतर झरते रहते है।
मैं किस विधि से कमल रुपी चरणों को ग्रहण कर सकती हूँ। मेरे तो सभी अंग काँप रहे है। मीरा कहती है कि हे मेरे प्रभु ! सब दुःख बिसरा देना। मुझे आप मिल जाओ तो मैं सब दुःख भूल जाऊँगी।
तो ये थी दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के अगले 46-50 पदों की व्याख्या। उम्मीद है कि आपको समझने में कोई कठिनाई तो नहीं हुई होगी। फिर मिलते है अगले अंक में कुछ नए पदों के साथ।
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एक गुजारिश :
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