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मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali (56-60)


मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali-Narottam Das (56-60) in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले 56-60 पदों का भावार्थ शब्दार्थ सहित समझने जा रहे है। तो चलिए शुरू करते है :

नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित मीरा मुक्तावली के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (56-60)


Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 56-60 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 56 से लेकर 60 तक के पदों का शब्दार्थ सहित भावार्थ निम्नानुसार है :

पद : 56.

मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali Ke 56-60 Pad in Hindi

हरि बिन कूण गती मेरी ?
तुम मेरे प्रतिपाळ कहियै, मैं रावरी चेरी।।
आदि-अंत निज नाँव तेरो हीया में फेरी।
वेरि-वेरि पुकारि कहूँ, प्रभु ! आरति है तेरी।।
यौ संसार विकार-सागर, वीच में वेरि।
नाव फाटी प्रभु पाळि बाँधो, बूड़त है बेरी।।
विरहणि पिव की बाट जोवै, राखि ल्यौ नेरी।
दासि मीरां राम रटन है, मैं सरण हूँ तेरी।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1. कूणकौन
2.रावरीआपकी
3. चेरीदासी
4. आरतिलालसा
5. फाटी फटी
6.बेरीनौका
7.नेरीनिकट

व्याख्या :

मीरा बाई कह रही है कि श्रीकृष्ण जी के बिना कौनसी गति रह जायेगी? मेरे प्रतिपालक, मेरा पालन-पोषण करने वाले प्रभु जी आप ही है और मैं आपकी दासी हूँ। मैं आपका ही नाम अपने हृदय में निरन्तर स्मरण करती रहती हूँ।

बार-बार पुकारती हुई आपसे कहती हूँ कि मुझे बस आपकी ही लालसा है। ये संसार विकार रुपी सागर है और मेरी नौका मध्य में है। आप ही मुझे पार लगायेंगे। मेरी नाव फटी हुई है। ये डूब जायेगी।

मैं विरहिणी हूँ और अपने प्रियतम का इंतज़ार करती रहती हूँ, इसलिए मुझे अपने पास ही रख लीजिये। मीरा आपकी दासी है और आपका नाम ही रटती रहती है। मैं आपकी शरण में आ गयी हूँ। हे प्रभु ! मुझ दासी पर कृपा कीजिये।

पद : 57.

मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali– Narottamdas Swami in Hindi

घडी अंक नहिं आवडै, तुम दरसण विन मोय।
तुम हो मेरे प्राण जी ! का सूं जीवणं होय।।
धान न भावै, नींद न आवै, विरह सतावै मोहि।
घायल-सी घूमत फिरूं रे, मेरो दरद न जाणै कोइ।।
दिवस तो खाय गमाइयो रे, रैण गमायी सोइ।
प्राण गमायो झूरतां रे, नैण गमाया रोइ।।
जो मैं अैसी जाणती रे, प्रीत कियाँ दुख होइ।
नगर ढंढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोइ।।
पंथ निहारूं, डगर बुहारूं, अभी मारग जोइ।
मीरां के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मिळियॉँ सुख होइ।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.आवडैअच्छा लग्न
2.जीवणंजीवन
3.धानअन्न
4.झूरतांरोते हुये
5. ढंढोराघोषणा करती
6.डगरमार्ग
7.बुहारूंसाफ़ करना

व्याख्या :

मीरा बाई कहती है कि मुझे आपके दर्शन के बिना घडी भर भी कुछ अच्छा नहीं लगता है। आप ही तो मेरे प्राण है। कैसे मेरा जीवन बना रहेगा ? आप ही मेरे पास नहीं हो तो अन्न मुझे सुहाता नहीं है, नींद मुझे आती नहीं है और विरह मुझे लगातार सताता रहता है। घायल के जैसे घूमती रहती हूँ। मेरी पीड़ा कोई नहीं जानता है।

दिन तो खा-खा कर गँवा दिया है और रात सो-सो कर नष्ट कर दी है। प्राण रोते-रोते नष्ट कर दिये और मेरे नेत्र भी रो-रो कर नष्ट हो गये है। अपने प्रिय को उपालम्भ देते हुए मीरा कहती है कि यदि मुझे ऐसा पता होता कि प्रभु जी से प्रेम करने पर दुःख होता है तो मैं नगर में घोषणा करवा देती कि प्रेम कोई भी मत करना। ये बहुत दुखदायी होता है।

हे प्रभु ! मैं रास्ता निहारती रहती हूँ। मार्ग को साफ़ करती रहती हूँ और खड़ी-खड़ी मार्ग देखती रहती हूँ। हे प्रभु ! आप मुझसे कब मिलेंगे ? अब आपके मिलने से ही मुझे सुख की प्राप्ति होगी।

पद : 58.

मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali Bhavarth Shabdarth Sahit in Hindi

राम मिळणं रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ वाटड़ियाँ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ।।
तळफत तळफत बहु दिन वीता, पड़ी बिरह की पासड़ियाँ।
अब तो वेगि दया करि साहिब ! मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ।।
नैण दुखी दरसण कूं तरसैं, नाभि न बैठें सांसड़ियाँ।
राति-दिवस यह आरति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ।।
लगि लगनि छूटण की नाहीं, अब क्यूं कीजै आँटड़ियाँ।
मीरां के प्रभु कब र मिलोगे, पूरो मनकी आसड़ियाँ।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.घणो ज्यादा
2.जोऊँदेखना
3.वाटड़ियाँप्रतीक्षा
4.पासड़ियाँपाश या बंधन
5.वेगिशीघ्र
6.लगनि प्रेम
7.पूरोपूर्ण करो
8.आसड़ियाँआशा

व्याख्या :

मीरा बाई कहती है कि प्रभु जी से मिलने का उत्साह इतना अधिक है कि रोज उठकर के प्रतीक्षा करती रहती हूँ कि मेरे प्रियतम कब आयेंगे ? हे प्रभु ! आपके दर्शनों के बिना मुझे कुछ भी नहीं सुहाता है। मेरी आँखों को आपको देखे बिना शांति नहीं मिलती है। तडपते-तड़पते बहुत दिन बीत गये है। विरह का पास (फंदा) पड़ा हुआ है।

अब तो आप मुझ पर शीघ्र ही दया कीजिये। हे मेरे प्रियतम ! मैं तो आपकी दासी हूँ। मेरे नेत्र दुःखी रहते है और नाभि में साँस भी ठीक से नहीं बैठ पाती है। साँस लेने में भी कठिनाई हो रही है।

रात और दिन मेरी ये ही लालसा है कि कब आप मुझे अपने पास बनाकर रखेंगे ? प्रेम-लगन, जो लग गयी है, ये अब छूट नहीं सकती है। अब क्यों इतनी अकड़ दिखा रहे हो ? हे मीरा के प्रभु ! मेरे सम्पूर्ण मन की आशा आप ही हो। आप मुझे कब दर्शन देंगे ? हे प्रभु ! मेरे मन की आशा को पूर्ण कीजिये।

पद : 59.

मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali with Hard Meanings in Hindi

राम मिलान कै काज सखी ! मेरे
आरति उर में जागी री !
तळपत तळपत कल न पड़त है बिरह-बाण उर लागी री।
ताणि पिया मेरी दिसी सांधी भाल टूरि उरपागि री।।
हिरदा भीतरि जळण लगी मेरे, विरह-विथा की आगी री।
निस-दिन पंथ निहारूं पिव को पलक न पल भर लागी री।।
पीव पीव मैं रटूं रात-दिन दूजी सुधि बुधि भागी री।
बिरह भवंग मेरो डस्यो है कलेजो लहरि हळाहळ जारी।।
मेरी आरति मेटि गुसाईं ! आप मिलो मोहि सागी री।
मीरां ब्याकुल अति उकळाणी, पिय की उमंग अति लागी री।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.उरहृदय
2. कलशांति
3. सांधीसंधान करके
4.भालनोंक
5.उरपागिहृदय में समा गयी
6.भवंगसाँप
7.कलेजोहृदय
8.हळाहळविष
9.जारीजल रही है
10.उकळाणीव्याकुल

व्याख्या :

मीरा बाई कह रही है कि हे सखी ! श्रीकृष्ण जी से मिलन की इच्छा जाग गयी है और तड़प-तड़प कर मुझे शांति नहीं मिलती है। विरह का बाण मेरे हृदय में लग गया है। बाण खेंचकर मेरी दिशा में संधान करके चलाया गया है। उस बाण की नोंक गहराई से मेरे हृदय में समा गयी है।

मेरे हृदय में जलन लगी हुई है। विरह व्यथा रुपी आग मेरे हृदय को जला रही है। रात-दिन में मार्ग निहारती हूँ। मेरी आँखें पलभर भी पलक नहीं झपकती है। मैं प्रियतम का नाम रात-दिन रटती रहती हूँ। मेरी तो सुध-बुध भी चली गयी है। विरह रुपी सर्प मुझे डस रहा है। मैं पीड़ा के विष से लहर-लहर करके जल रही हूँ।

मेरी लालसा को मिटाओ। हे स्वामी ! आप स्वयं मिल जाओ। मैं आपके बिना बहुत ही व्याकुल हूँ। प्रिय के मिलन की उमंग लगी हुई है।

पद : 60.

मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali Bhavarth in Hindi

जोगिया जी ! आवो नै या देस।
नैण न देखूं नाथ मेरो, धाइ करूँ आदेस ।।
आयो सावण मास सजनी ! भरे दिन अहळा जाय।
अेक वेरी देह फेरी नगर हमारे आइ।।
वा मूरति मेरे मन वसै, छीन भरि रह्यो न जाइ।
मीरां के प्रभु हरि अविनासी, दरसण दयै हरि आइ।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.धाइदौड़-दौड़कर
2.अहळायों ही / व्यर्थ
3. वेरी बार
4.छीनक्षण

व्याख्या :

मीरा बाई कहती है कि हे मेरे परमात्मा पति ! मुझसे आकर मिलो। हे मेरे जोगी ! इस देश में आओ ना। जब तक मैं अपने नाथ को अपनी आँखों से नहीं देख लेती, तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा। मैं आपके आदेश से तुरंत भागी आऊँगी। हे प्रभु ! दौड़कर मैं आदेश मानूँगी।

मीरा अपनी सखी को कहती है कि पूरा दिन व्यर्थ जा रहा है। एक बार अपने शरीर को ले आओ। मुझे दर्शन करा दो। हमारे नगर आओ। आपकी छवि मेरे मन में इसप्रकार बसी हुई है कि क्षणभर भी आपके बिना रहा नहीं जाता है। हे मीरा के प्रभु ! आप अविनाशी है। आप आकर के मुझे दर्शन दीजिये।

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के अगले 56-60 पदों का भावार्थ जाना और समझा। अगले अंक में फिर से हाजिर होंगे कुछ नये पदों के साथ।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “मीरा मुक्तावली का भावार्थ Meera Muktavali (56-60)” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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