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Raso Granth | रासो ग्रंथ की विशेषताएं एवं प्रमुख ग्रन्थ


नमस्कार दोस्तों ! आज की पोस्ट में हम आपको कुछ मुख्य रासो ग्रंथों और उनकी प्रमुख विशेषताओं के बारे में चर्चा करेंगे। रासो ग्रन्थ हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रमुख लौकिक साहित्य ही है। आइये जान लेते है रासो ग्रंथों के बारे में :



Raso Granth | रासो ग्रंथ की विशेषताएं


Raso Granth | Raso Granth | रासो ग्रंथ की विशेषताएं : रासो ग्रंथों की विशेषताएं निम्न प्रकार से है –

  • युद्धों का जीवंत चित्रण ।
  • डिंगल और पिंगल काव्य शैलियों का प्रयोग।
  • रासो ग्रंथों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव है ।
  • रासो ग्रंथों का अंगी रस वीर है।
  • बारहमासा की विस्तृत अभिव्यक्ति मिलती है।
  • प्रकृति का उद्दीपनकारी चित्रण मिलता है।
  • यह मूलतः दरबारी चारण साहित्य है।
  • जनजीवन से संपर्क का अभाव है।
  • वीर और श्रंगार रस की भव्य परियोजना है।
  • इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय है।
  • विविध छन्द योजना का प्रयोग है।
  • ऐतिहासिकता का अभाव है।
  • रासो साहित्य पर सर्वाधिक अप्रमाणिकता का आरोप है ।
  • प्रकृति और नारी सौंदर्य का चित्रण है।
  • युगीन राजनीतिक विडम्बनाओं की अभिव्यक्ति।
  • सामंती अभिजात्य का चित्रण।
  • साहित्यिकता एवं रागात्मकता ।
  • प्रबंधात्मकता की प्रवृत्ति ज्यादा है यद्यपि मुक्तक काव्य भी लिखे गए हैं।

Raso Granth | प्रमुख रासो ग्रंथ


Raso Granth | रासो ग्रंथ : प्रमुख ग्रन्थ : प्रमुख रासो ग्रन्थ निम्न प्रकार से है –

बीसलदेव रासो | Bisaldev Raso

  • बृज भाषा में रचित यह पहली साहित्य कृति मानी जाती है।
  • कुछ विद्वान इसे हिंदी की प्रथम रचना भी कहते हैं।
  • यह पिंगल शैली में लिखा गया है और यह वियोग श्रृंगार की रचना है।
  • संवत 1212 में यह रचना लिखी गई ।
  • यह रचना चार खंडों में विभाजित है जिसके तीसरे खंड में राजमति का वियोग मिलता है।
  • इस रचना में कुल 2000 चरण मिलते हैं।
  • इसके नायक अजमेर के राजा विग्रहराज चतुर्थ हैं और
  • नायिका मालवा के राजा परमार राजा भोज की पुत्री राजमती है।
  • यह हिंदी की प्रथम रचना है । जिसमें पहली बार बारहमासा मिलता है।
  • यह बारहमासा कार्तिक मास से शुरू होता है।
  • राजमती हिंदी की पहली प्रोषितपतिका नायका है।
  • इसका पति इसे छोड़कर 12 वर्ष तक उड़ीसा प्रवास कर जाता है।

“दव का दाधा हो कूपल लेई,
जीभ का दाधा न पल्हवई “

“स्त्री जनम कांई दियो महेस,
अवर जनम धारे धड़ा हो नरेस “

राजमती के लिए डॉक्टर बच्चन सिंह लिखते हैं :

“समूचे मध्ययुग में जबान की इतनी तेज और
मन की इतनी खरी नायिका दूसरी नहीं मिलती। “

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने “रासो” शब्द की उत्पत्ति “रसायण” से मानी है। उन्होंने यह शब्द बीसलदेव रासो से लिया है।



खुमान रासो |Khuman Raso

  • इसके रचनाकार दलपति विजय है।
  • खुमान रासो में चित्तौड़ के राजा कुमार द्वितीय का उल्लेख मिलता है।
  • इस रचना में बगदाद के खलीफा अलमामू का चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने व पराजित करने का साक्ष्य मिलता है।

हम्मीर रासो | Hammir Raso

  • इसके रचनाकार शारंगधर है ।
  • इसमें रणथम्भोर के प्रसिद्ध राजा हम्मीर देव का उल्लेख है ।
  • जो अपनी हठधर्मिता के लिए प्रसिद्ध है। इसका रचनाकाल 1357 ईसवी है।

हम्मीर रासो का विश्लेषण करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है :

“यह अपभ्रंश की अंतिम रचना है। अपभ्रंश लेखन की परंपरा यहीं से समाप्त होती है।”


परमाल रासो | Parmal Raso

  • इसके रचयिता जगनिक है । 13वीं सदी से इस रचना का प्रारंभ माना जाता है।
  • जनश्रुतियों से मालूम चलता है कि इसके रचनाकार जगनिक कवि हैं ।
  • यह रचना जनता के कंठ में निवास करती है।
  • मूलतः मौखिक परंपरा का हिस्सा होने के कारण इस रचना को जनसमूह की निधि कहा जाता है।
  • आदिकाल में रचित यह रचना औजगुण की सर्वाधिक श्रेष्ठ अभिव्यक्ति करती है ।
  • वीर रस का चरम रूप यहां देखा जा सकता है।
  • इसकी भाषा ब्रजभाषा के समीप है।
  • मौखिक परंपरा का हिस्सा होने के कारण इस रचना का पाठ सबसे अधिक बिगड़ा हुआ है।
  • 1765 में फर्रुखाबाद के जिला कलेक्टर चार्ल्स इलियट ने आल्हाखंड का संपादन किया ।

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एक गुजारिश :

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