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Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त व्याख्या – सं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र


Ghananand Kavitt Vyakhya Saar by Vishwanath Prasad Mishra in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित “घनानन्द कवित्त” का अध्ययन करने जा रहे है। हम इसके कुछ महत्वपूर्ण पदों की व्याख्या को समझने वाले है। ये परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। आज हम इसके 1 से 5 तक के पदों की विस्तृत व्याख्या करने जा रहे है :

आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित घनानन्द कवित्त के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त के पदों की विस्तृत व्याख्या (1-5)


Vishwanath Prasad Mishra Sampadit Ghananand Kavitt Ke Pad 1-5 Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! घनानंद कवित्त के 1-5 पदों की व्याख्या इसप्रकार है :

पद : 1.

Ghananand Kavitt Ke Pado ki Vykhya in Hindi

लाजनि लपेटि चितवनि भेद-भाय भरी
लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं।
छबि को सदन गोरो भाल बदन, रुचिर,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानी मैं।
दसन दमक फैलि हमें मोती माल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं।
आनँद की निधि जगमगति छबीली बाल,
अंगनि अनंग-रंग ढुरि मुरि जानि मैं।

व्याख्या :

दोस्तों ! इस पद में घनानंद ने प्रेयसी के रूप का वर्णन किया है। प्रेयसी के रूप में मुख, नेत्र, भाल, कर्ण-वाणी, उसकी शारीरिक गति-यति की मुद्रा का उल्लेख है। प्रेमिका जब अपने चंचल नेत्रों को तिरछा करती है तो वह रमणीय दिखाई देती है। उसके नेत्रों का तिरछापन लाज में लिपटा हुआ रहता है।

साथ ही उसकी दृष्टि रहस्य से भरी रहती है। उसका गौर वर्ण ही मुख सौंदर्य का घर है। जब वह मुस्कुराती है तो उसकी मुस्कुराहट में कोमलता एवं माधुर्य प्रकट होता है। ऐसा जान पड़ता है कि रस निचुड़ रहा हो।

मुस्कान के साथ-साथ वह बात भी करती है तो उसके दांतो की चमक ऐसी लगती है, मानो दन्त पंक्ति का प्रकाशमय प्रतिबिंब उसके वक्ष पर मोतियों की माला हो गया हो। वह सौंदर्यमयी बाला आनंद के कोष के रूप में जगमगाती नजर आती है। इस जगमगाहट की छटा उस समय प्रतीत होती है, जब वह मुड़ती है और उसके अंगों में कामजन्य छटा नजर आने लगती है।

पद : 2.

Ghananand Kavitt Ke Pado Ka Arth in Hindi

झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।

व्याख्या :

दोस्तों ! इस पद में रूप-छटा व अंग दीप्ति का वर्णन है। इसमें मुख, नेत्र, लट और वाणी के साथ ही मोतियों की माला का वर्णन है। इस पद में कवि का हृदयपक्ष प्रधान है। इसमे विषय पक्ष प्रधान ना होकर, विषयी पक्ष पर ध्यान दिया है।

दोस्तों ! प्रेमिका के रूप का वर्णन करते हुये घनानंद कहते हैं कि प्रेमिका का अति सुंदर गौरमुख प्रकाश से झलक रहा है और उस मुख पर यौवन के मद में डूबे नेत्र कानों को छूते हुए शोभा दे रहे हैं। जब वह हँसते हुये बोलती है तो ऐसा लगता है, जैसे हृदय पर फूलों की वर्षा हो रही है।

बोलते समय उसका शरीर हिलता है और इससे उसके गालों पर चंचल लटें हिलने लगती है। उसके सुंदर गले में शोभित दो लड़ों वाली सुंदर मोतियों की माला भी हिलने लगती है। इसप्रकार हिलने से शरीर के प्रत्येक अंग में दीप्ति की लहर उठती है और

ऐसा जान पड़ता है, मानो शरीर में लबालब भरा हुआ सौन्दर्य अब पृथ्वी पर चू ही पड़ेगा। दीप्ति की लहर ऐसी स्थिति का आभास देती है, मानो उसका सौंदर्य से भरा हुआ शरीर रुपी घट सौंदर्य का कुछ अंश पृथ्वी पर भी गिरा देगा।

पद : 3.

Ghananand Kavitt Vykhya Bhav Sahit in Hindi

छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद,
तृषित चषनि लाल, कबधौ दिखाय हौ।
चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही,
मुरली अधर धरे लटकत आय हौ।
लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्याय, नेह
भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ।
बिरह जरत जिय जानि, आनि प्रान प्यारे,
कृपानिधि, आनंद को धन बरसाय हौ।।

व्याख्या :

दोस्तों ! यह पद प्रेम में उन्मुक्त गोपी की उक्ति है। इस पद में पूर्वानुराग का वर्णन किया गया है। गोपी के मन में श्रीकृष्ण जी का रूप बस गया है। पूर्वानुराग की यह दशा अभिलाष कहलाती है। वह चाहती है कि श्रीकृष्ण जी मुरली बजाते हुये आये और वह उन्हें देखे। वह कहती है कि हे श्रीकृष्ण जी ! हे सौंदर्य के आगार ! आप कब आयेंगे और कब अपना प्रसन्नता से अलंकृत मुख रूपी चंद्रमा मेरे इन प्यासे नेत्रों को दिखायेंगे।

भड़कीला वेश धारण किये चटक-मटक रुपी रंग-ढंग से युक्त और अधरों पर बांसुरी रखें मस्ती में झूमते हुये आप इधर कब आयेंगे। केवल आपके दर्शन और मुरली की तान की ध्वनि की ही अभिलाषा नहीं है, बल्कि आपसे सलांप करने की भी इच्छा है।

अपने नेत्र मटकाते हुये कुछ सुकुमारतामय मुस्कुराहट के साथ रसयुक्त बातें करके, मेरे मन में ललक उपजा कर, मुझसे बातें कब करेंगे। केवल बातें ही नहीं, आपकी कृपा मुझे कब प्राप्त होगी। आप मुझे विरह में जलती हुई जानकर हे प्राणप्रिय ! आनंद रुपी बादल से, हे करुणा के सागर ! मुझ पर तृप्ति की वृष्टी कब करेंगे।

पद : 4.

Ghananand Kavitt – Vishwanath Prasad Mishra in Hindi

वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै
लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।
वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,
वहै हँसि दैन, हियरा तें न टरति है।
वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,
वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की,
सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।

व्याख्या :

दोस्तो ! इस पद में गोपी का विरह वर्णित है और स्मृति की दशा है। अपने प्रिय को उसने संयोग अवस्था में जिन-जिन मुद्राओं में देखा है, वे सभी उसके अंत:करण में स्थित है। दोस्तों ! गोपी श्रीकृष्ण जी की स्मृति में बेसुध हो जाती है। श्रीकृष्ण जी की स्मृति उसे सब प्रकार से बेसुध कर देती हैं। उनका वो मुस्कुराना, वो कोमलता से बातें करना, उनकी ललक वाली टेक आकर हृदय में चुभती है।

वो उनका हाव-भावमय चलना, सुंदर वेणु-वादन और हँसना हृदय से कभी जाता ही नहीं। चतुराई से प्रेरित उनकी मेरी ओर देखने की छटा, वो छैलापन क्षणभर भी भूला नहीं जाता। आनंद के खजाने के समान और प्राण प्रिय श्रीकृष्ण जी की स्मृति इस प्रकार बेसुध करती है कि वे निरंतर मेरे ध्यान में चढ़े रहते हैं।

पद : 5.

Vishwanath Prasad Mishra Sampadit Ghananand Kavitt Ki Vyakhya in Hindi

जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
कैसे करि जिय की जरनि सो जताइये।
महा निरदई दई कैसें कै जिवाऊँ जीव,
बेदन की बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै।
दुख को बखान करिबै कौं रसना कै होति,
ऐपै कहूँ बाको मुख देखन न पाइयै।
रैन दिन चैन को न लेस कहूँ पैये भाग,
आपने ही ऐसे दोष काहि धौं लगाइयै।।

व्याख्या :

दोस्तों ! इस पद में प्रिय के विषम प्रेम की चर्चा है। एक तरफ प्रिय की उदासीनता और दूसरी तरफ प्रेमिका की एकनिष्ठता का निरुपण किया गया है। प्रिय की उदासीनता की चर्चा घनानंद करते हुये कहते हैं कि जिस प्रिय से मैंने प्रीति की, उसने बदले में मुझसे प्रेम नहीं किया। उल्टे उसने निष्ठुरता से ही प्रेम कर लिया, जिसके कारण मेरे हृदय में जो जलन होती है, उसे मैं किस प्रकार जताऊँ।

वह निर्दयी ही नहीं, महानिर्दयी है। इसलिए मैं अपने जी को कैसे जिलाऊँ। उसको जीवित कैसे रखूँ । यदि वेदना को छिपाकर रखें तो वह बढ़ती ही रहती है। वह छिपाये नहीं छुपती है। वह इतनी अधिक होती है कि अपने आप दूसरों के सामने प्रकट हो जाती है।

यदि कोई आकर कहे कि क्या वेदना है तो उसका बखान कैसे करूँ ? वेदना इतनी अधिक है कि जिहृवा ने अपना कार्य करना ही छोड़ दिया है। कहूँ तो भी कैसे कहूँ ? यदि प्रिय के दर्शन हो जाते तो तृप्ति से किसी प्रकार कुछ काम बनता। परंतु उस प्रिय के दर्शन मिलते ही नहीं हैं।

परिणामस्वरुप चैन लेशमात्र भी नहीं मिलता है। कहना-सुनना तभी हो सकता है, जब चित्त प्रसन्न हो। प्रिय को दोष क्या दूँ ? दोष तो अपने भाग्य का ही है, जो इस प्रकार वेदना सहना लिखा हुआ है।

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने घनानंद कवित्त के 1-5 तक के पदों की व्याख्या को अच्छे से समझा। इसके कुछ अगले पदों के साथ फिर मिलते है। तब तक आप इन पदों को अच्छे से तैयार कर लीजियेगा। धन्यवाद !


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त व्याख्या – सं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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