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Ghananand Kavitt Pad घनानन्द कवित्त के पदों की व्याख्या
Ghananand Kavitt Pad Edited by Vishwanath Prasad Mishra in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज के अध्याय में हम आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित “घनानन्द कवित्त” के अगले 26 से 30 पदों की व्याख्या करने जा रहे है :
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित “घनानन्द कवित्त“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त के पदों की विस्तृत व्याख्या (26-30)
Vishwanath Prasad Mishra Sampadit Ghananand Kavitt Ke 26-30 Pad in Hindi : दोस्तों ! घनानंद कवित्त के 26-30 पदों की व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 26.
Ghananand Kavitt Ke Pad 26 Ki Vyakhya in Hindi
जानराय, जानत सबै, अंतरगत की बात।
क्यों अजान लों करत फिरि, मो घायल पर घात।।
व्याख्या :
कवि घनानंद कहते हैं कि हे सुजानराय ! आप मेरे मन की सभी बातें जानते हैं। आप यह भी जानते हैं कि मैं घायल हूँ और घायल पर चोट करना अनुचित कार्य है। यह बात आप जानते ही होंगे, आप सुजानराय जो हैं। फिर भी आप मुझ घायल पर आघात कर रहे हैं। फिर अनजान की भांति आचरण क्यों कर रहे हैं ? आपके नाम और आचरण में वह क्षमता है।
पद : 27.
Ghananand Kavitt Ke Pad 27 Ki Bhav Sahit Vyakhya in Hindi
लै ही रहे हौ सदा मन और को दैबो न जानत जान दुलारे।
देख्यौं न हैं सपने हूँ कहूँ दुख, त्यागे सकोच औ सोच सुखारे।
कैसो सँजोग बियोग धौं आहि ! फिरौ घनानन्द हे मतवारे।
मो गति बूझि परैं तबही जब होहु घरीक हू आप तें न्यारे।।
व्याख्या :
दोस्तों ! इस पद में प्रिय के सुखात्मक और अपनी दुखात्मक परिस्थिति की विषमता को सामने रखकर उसे उलाहना दिया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि किसी व्यक्ति ने, जिसने कभी किसी दु:ख का अनुभव ही ना किया हो, वह दूसरे के दु:ख को कभी नहीं समझ सकता। हे सुजान प्रिय ! आप सदा दूसरों का मन ही लेते रहते हैं। किसी को अपना मन देना तो जानते ही नहीं। फिर मेरी स्थिति क्या समझेंगे ?
आपने सपने में भी और कहीं भी दु:ख देखा नहीं है। फिर दु:ख के ही परिवार के, जो संकोच और सोच हैं, उनका परित्याग आपके लिये सहज है। आप इनका त्याग किये हुये हैं और सुखी हैं। आप नहीं जानते कि संयोग कैसा है और वियोग कैसा है ? आप ना इन्हें जानते हैं और ना इनका भेद ही समझते हैं। आप के निकट केवल अति आनंद है, जिसमें आप मतवाले हैं।
मेरी स्थिति आपको तभी समझ आ सकती है, जब आप घड़ी-भर के लिये अपने आप से पृथक हो। आपकी सभी स्थितियां ऐसी है, जिनमें अपने आप से पृथक होने की संभावना नहीं, फिर आप दूसरों को जाने भी तो किस प्रकार जाने ?
पद : 28.
Ghananand Kavitt Ke Pad 28 Ki Vyakhya Saar in Hindi
खोय दई बुधि, सोय गई सुधि, रोय हसै उन्माद जग्यौ है।
मौन गहै, चकि चाकि रहै, चलि बातक है तैं न दाह दग्यौ है।
जानि परै नहिं जान, तुम्हें लखि ताहि कहा कछु आहि खग्यौ है।
सोचनि ही पचियै घनानन्द हेत पग्यो किधौं प्रेत लग्यौ है।।
व्याख्या :
दोस्तों ! विरहणी की विरह दशा का वर्णन कोई दूती प्रिय से कर रही है और यह बतला रही है कि प्रेम करने के बाद उसकी जो दशा हुई है, वह उस व्यक्ति के जैसी है, जिसे प्रेत लग जाया करता है। विरहिणी को प्रेमोन्माद हो गया है। उसके पास बुद्धि रही नहीं, उसने बुद्धि खो दी है। उसकी स्मृति सो गई है और उन्माद छाया हुआ है।
वह चकित होकर इधर-उधर देखती है, चलकर बात करती है, शरीर दाह से दग्ध है। उसे ना जाने क्या हो गया है ? उसके शरीर में ना जाने क्या समा गया है ? उसे परेशानी होती है, उसमें प्रेम पग गया है। उसमें प्रेत प्रविष्ट हो गया है अर्थात् हे सुजान ! आपको देखकर, उसमें क्या समा गया है ? कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।
उसने बुद्धि खो दी है। उसकी सुध जाती रही। वह कभी रोती है तो कभी हंसती है। उसमें उन्माद की सी स्थिति पैदा हो गई है। तभी तो वह मौन धारण करती है। कभी चकित होकर इधर-उधर देखने लगती है। कभी कुछ भी बकने लगती है। उसका शरीर दाह से दग्ध हो गया है। मैं चिंताओं से परेशान हूँ कि उसमें आपका प्रेम पगा है अर्थात् उत्पन्न हुआ है या उसे प्रेत लग गया है, क्योंकि प्रेत लगने पर जैसी चेष्टाएं होती है, वैसी ही उसकी भी हो गई है।
पद : 29.
Ghananand Kavitt Pad 29 – Vishwanath Prasad Mishra in Hindi
घेर घबरानी उबरानी ही रहति घन-
आनंद आरति-राति साधनि मरति है।
जीवन आधार जान-रूप के आधार बिन
व्याकुल बिकार भरी खरी सु जरति है।
अतन जतन तें अनखि आसानी बीर
प्यारी पीर-भीर क्यौं हूँ धीर न धरति है।
देखिये दसा असाध अंखियाँ निपेटनि की
भसमी बिथा पैं नित लंघन करति है।
व्याख्या :
दोस्तों ! इस कवित्त में प्रिय के प्रति आँखों की वेदना का निवेदन सखी या दूत के माध्यम से प्रकट किया गया है। आँखों की बीमारी असाध्य होती जा रही है और इस असाध्य रोग से बचने की संभावना नहीं है। अतः उसके समाप्त होने से पूर्व प्रिय उन्हें देख लेता तो अच्छा होता।
दोस्तों ! सखी से संदेश कहती हुई विरहिणी कहती है कि आपके वियोग में दर्शन की इच्छुक ये आँखें वेदना के घिराव से घबरा गई है। ये आँखें नित्य आँसुओं की बरसात करती रहती हैं। आपके दर्शन की लालसा में लीन ये प्रबल उत्कंठाओं से परेशान है। इनके जीवन का आधार प्रिय का रूप दर्शन है। सुजान के रूप दर्शन और उस अवलम्ब के बिना ये ना-ना प्रकार के विकारों से भर गई है।
घनानन्द कवित्त पद व्याख्या :
ये व्याकुल है और अत्यंत जल रही है। यह विरहावस्था में ताप शांति के लिये होने वाले कामोपचारों से चिढ़कर परामुख हो गई है। पीड़ा की भीड़ में ये किसी भी प्रकार से धैर्य धारण नहीं करती है। इसलिए आपसे प्रार्थना है कि आप इन आंखों की असाध्य दशा को केवल देख तो लीजिए। यह अत्यंत पेटू है। आपके दर्शन की बहुत लालसा है इनमें। उस दर्शन के ना मिलने से इनमें भस्म कर देने वाली विरहनजन्य व्यथा हो रही है।
फिर भी इन्हें नित्य लंघन करना पड़ रहा है। आपके कभी दर्शन नहीं होते। अतः इनकी स्थिति उस अकिंचन भस्मक रोग के रोगी जैसी हो गई है, जो जन्म से भारी पेटू रहा हो, अधिक खाने का अभ्यासित रहा हो और भस्मक रोग की चपेट में आकर अधिकाधिक भोजन की उसको आवश्यकता आ पड़ी हो। तो भी उसे खाने को कुछ नहीं मिलता हो। नित्य लंघन ही करना पड़ता हो।
पद : 30.
Ghananand Kavitt Pad 30 Vyakhya Arth Sahit – Vishwanath Prasad Mishra in Hindi
बिकच नलिन लखें सकुचि मलिन होति,
ऐसी कछु आँखिन अनोखी उरझनि है।
सौरभ समीर आये बहकि दहकि जाय,
राग-भरे हिय मैं बिराग-मुरझनि है।
जहाँ जान प्यारी रूप-गुन को न डीप लहै,
तहाँ मेरे ज्यौं परै विषाद-गुरझनि है।
हाय अटपटी दसा निपट चटपटी सों,
क्यों हूँ घनानंद न सूझै सुरझनि है।।
व्याख्या :
दोस्तों ! प्रिय के प्रति विरहिणी का विरह निवेदन है। आंखों, हृदय और प्राणों की दशा का उल्लेख किया गया है। विरहदशा की विलक्षणता, उसके वेग और उपायाभाव का दर्शन है अर्थात् विरह में वे वस्तुएँ है, जो संयोग में सुख देती थी, दुखदायिनी हो गई है। आंखें जो संयोग में कमल को देखकर प्रसन्न होती थी, अब खिला हुआ कमल देखकर संकोच से मलिन हो जाती हैं। इन आंखों में कुछ अनोखी, कुछ नये ढंग की उलझन हो गई है।
सुगंधित वायु के शरीरगत स्पर्श से कभी हृदय शीतल और प्रफुल्लित हो उठता था, पर प्रिय के राग से भरे उस ह्रदय में अब विराग हो रहा है। उधर उसकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। पहले हृदय प्रवृत्त्यात्मक था, अब निवृत्यात्मक हो गया है। अब वह पहले तो बहक जाता है, फिर जल उठता है। उसमें मुरझाहट हो जाती है।
मन की स्थिति यह है कि सुजान प्रियसी के रूप गुण का दीपक ना पाने से, उसमें विषाद की ग्रंथियां पडती जाती है। ग्रंथि में कहाँ क्या पेच है, उसे कैसे खोलें ? इसके लिये प्रकाश नहीं मिलता। इससे गांठें ज्यों की त्यों पडी है। विरह की यह कैसी बेढंगी दशा है, इसमें अत्यंत प्रबल वेग तो हो जाता है, पर उस वेग के आ जाने से स्थिति बिगड़ जाती है। किसी प्रकार सुलझने का कोई मार्ग नहीं सूझता।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने घनानंद कवित्त के अगले 26-30 तक के पदों की व्याख्या जानी और समझी।। अगले पार्ट में कुछ नए पदों के साथ फिर से हाज़िर होंगे। धन्यवाद !
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एक गुजारिश :
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