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Ghananand Kavitt Bhav घनानन्द कवित्त के पदों की व्याख्या


Ghananand Kavitt Bhav Edited by Vishwanath Prasad Mishra in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! हमेशा की तरह ही आज भी हम आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित “घनानन्द कवित्त” के अगले पदों का भाव समझने वाले है। तो चलिए आज इसके अगले 22 से 25 पदों की व्याख्या करते है :

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Ghananand Kavitt घनानन्द कवित्त के पदों की विस्तृत व्याख्या (22-25)


Vishwanath Prasad Mishra Sampadit Ghananand Kavitt Ke Pad 22-25 Bhav in Hindi : दोस्तों ! घनानंद कवित्त के 22-25 पदों का भावार्थ सहित सार इसप्रकार है :

पद : 22.

Ghananand Kavitt Ke Pad 22 Ki Vyakhya Bhav Sahit in Hindi

पहचानै हरि कौन, मो से अनपहचान कों।
त्यौं पुकार मधि मौन, कृपा कान मधि नैन ज्यौं।।

व्याख्या :

दोस्तों ! इस पद में घनानंद कह रहे हैं कि हे हरि ! मुझे इस संसार में कोई नहीं पहचान सकता। मैं इस संसार के लिये बिल्कुल अपरिचित हूँ अर्थात् यह संसार जैसे लोगों को पहचानने का अभ्यस्त है, वैसा मैं नहीं हूँ। मैं उनसे बिल्कुल भिन्न हूँ। आप मुझे इसलिए पहचान सकते हैं कि मेरी पुकार मौन हैं।

विरह के कारण मैं इतना अधिक कष्ट में हूँ कि वेदना की पराकाष्ठा के कारण केवल चुपचाप पड़ा रहता हूँ। चुपचाप पड़े रहने वाले को यह संसार क्या जानेगा और क्या पहचानेगा। पर आपके नेत्रों में तो कृपा के कान लगे हुये हैं, जिससे आप चुपचाप रहने पर भी उन कानों से मेरी पुकार सुन लेते हो।

आपके नेत्रों में कान ही नहीं लगे हैं, आप केवल पुकार ही नहीं सुन लेते हैं, बल्कि उस वेदना की पुकार सुनने पर उसे दूर करने के लिए कृपा भी करते हैं। यह संसार ऐसा है कि इसमें मुझे पहले तो कोई पहचानता ही नहीं, सुनता ही नहीं, पर यदि सुन भी ले तो वह मेरा कष्ट दूर करने का सामर्थ्य नहीं रखता।

पद : 23.

Ghananand Kavitt Ke Pad 23 Ka Bhav in Hindi

आसा-गुन बांधि के भरोसो-सिल धरि छाती
पूरे पन-सिंधू मैं न बूडत सकायहौं।
दुखदव हिये जारि अंतर उदेग आंच
रोम-रोम त्रासनि निरन्तर तचायहौं।​
लाख-लाख भौतिन की दुसह दसनि जानि
साहस सहारि सिर आरे कौं चलायहौं।
ऐसे घनआनंद गहो है टेक मन माहि
एरै निरदई तोहि दया उपजायहौं।

व्याख्या :

दोस्तों ! घनानंद कहते हैं कि किसी अत्यंत निर्दयी के हृदय में भी दया उत्पन्न हो सकती है। उसका कोई, जिससे वह उदास हो, उसकी आंखों के सामने ही डूब मरने का उपक्रम करें तो। यहाँ प्रेमी उसी उपक्रम की चर्चा कर रहा है, इसी दृढ़ विश्वास से कि निर्दयी के ह्रदय में दया उत्पन्न होकर रहेगी। यहाँ प्रेमी बतलाना चाहता है कि प्रेम में शारीरिक या मानसिक यंत्रणा का भय बिल्कुल नहीं रहता।

कवि कहता है कि हे निर्दयी प्रिय ! अब तो मैंने मन में यह टेक इस प्रकार धारण कर ली है कि जैसे भी हो, तुझमें दया उपजाकर रहूँगी। सबसे पहले तो मैं समुन्द्र में डूबूँगी। साधारण रूप में नहीं, छाती पर पत्थर रखकर। उस पत्थर को रस्सी द्वारा बांधकर, जिससे जल से निकलने की संभावना देखने वाले को ना हो अर्थात् भरोसा रूपी पत्थर अपनी छाती पर रखकर, आशा की रस्सी से उसे बाँधूँगी और निसंक बनकर समुन्द्र में डूबुँगी।

घनानन्द कवित्त पद व्याख्या :

आपकी आशा लगाये ही रहूँगी। आप पर भरोसा किये ही रहूँगी। आप चाहे आये या ना आये। चाहे आपसे प्रेम पाने की संभावना हो या ना हो। आप मेरे कष्ट से व्यथित हो या ना हो। पानी में डूबने मरने से, आग में जलना-भूनना अधिक कष्टकर है। इसलिए यदि आप डूब मरने के प्रभाव से आकृष्ट ना होंगे तो, मैं दु:ख की दवाग्नि से हृदय को जलाऊँगी।

जिस दावाग्नि से मेरे अंतःकरण में उद्वेग की भीषण आँच उत्पन्न होगी, उस आँच से शरीर के अंग-अंग ही नहीं, रोये-रोये को तपाऊँगी। प्रिय के वियोग के कारण हृदय के अंदर उद्वेग, दु:ख और वेदना बराबर होगी।

इस प्रकार की कष्ट साधना से प्रिय के प्रभावित होने की संभावना है। डूबने से, जलने में अधिक कष्ट है और जलने से अधिक कष्ट है – आरे से सिर चिरवाने में। अनेक प्रकार की कठिनाइयों से सही जा सकने वाली विरह की दशाओं को, इस प्रकार जानते-बूझते, साहस बटोरते, सिर पर आरे की भांति चलवाऊँगी। और विरह की विविध प्रकार की व्याकुलता का प्रदर्शन ना करुँगी, भीतर ही भीतर रहूँगी।

पद : 24.

Ghananand Kavitt Ke Pad 24 Ki Vyakhya Bhav Sahit in Hindi

अंतर आँच उसास तचै अति अंग उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौं कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सु घरै नहिं थ्यावस।
नैनउँ धारि दिये घनआनंद छाई अनोखियै पावस।
जीवनि मूरति जान को आनन है बिन हेरे सदाई अमावस।।

व्याख्या :

दोस्तों ! अपने प्रिय के वियोग में जो कष्ट हो रहा है, उसका पावस के अप्रस्तुत व्यापार द्वारा वर्णन किया गया है। वर्षा होने से पूर्व की स्थिति, जिसमें गर्मी, औस और उमस होती है, फिर वृष्टि होती है तो अंधकार होता है। यदि अमावस्या को वृष्टि हो तो और भी ज्यादा अंधकार होता है। चंद्रमा दिखता रहे तो कुछ धैर्य रहता है। घनघोर वृष्टि हो और चंद्र दर्शन ना हो तो और भी कठिनाई रहती है। प्रिय के दर्शन नहीं और नेत्रों से निरंतर वृष्टि प्रतिदिन अमावस्या का दृश्य है।

दोस्तों ! प्रिय वियोग के कारण होने वाले विरह से अंतःकरण में, जो आग उत्पन्न हो गई है, उसकी आँच से केवल अंतःकरण ही नहीं, भीतर से निकलने वाले उत्साह से भी गर्म हो जाती है। जैसे गर्मी में लू चलती है, वैसी ही स्थिति हो जाती है। और फिर गर्मी से सारा शरीर उबला सा रहता है। वैसे ही उद्वेग की आँच से विरह में मेरे भी सारे अंग उसीजते रहते हैं।

घनानन्द कवित्त पद व्याख्या :

वर्षा के आने से पूर्व जैसी उमस होती है, उसी प्रकार प्रिय के ना मिलने से जी ममोस्ता रहता है, अत्यंत व्याकुल होता रहता है। इतना अधिक कि और कहीं भी धैर्य धारण नहीं करता। फिर जैसे वर्षा होती है, वैसे ही नेत्र भी धारा संपात वृष्टि करते हैं। विलक्षण पावस ही छा जाती है। उस संजीवनी मूरती सुजान के मुख को बिना देखे उस पावस में भी मेरे लिए सदा अमावस्या ही है।

पावस में निरंतर वृष्टि होती रहे तो यूँ ही अंधकार रहता है और अमावस्या की तिथि रहे तो और भी अंधकार रहता है। मेरे हृदय में नित्य वैसा ही अंधकार है, जैसा पावस में घनघोर वृष्टि अमावस्या को होती है।

दोस्तों ! भीतर की आँच से भीतर के सभी अंग तप्त हो गये हैं। उनके तपने का पता भीतर से आने वाले उसांस से चलता है, जो बाहर अत्यंत तप्त होकर निकलती है। बाहरी अंग पसीने से और भीतरी आँच से उसी प्रकार हो रहे हैं, जैसे किसी पात्र में पानी देकर आलू को उबालते हैं। उद्वेग की ओंस भीतर से होती है, जिसका पता पसीने से चलता है। गर्मी तो है ही, इस प्रकार बाहर और भीतर दोनों ओर तपन है। प्रिय की अप्राप्ति के कारण जो मसोसना हो रहा है, वह वर्षा आने के पूर्व की उमस की भाँति कष्ट दे रहा है।

पद : 25.

Ghananand Kavitt Pad 25 Bhav – Vishwanath Prasad Mishra in Hindi

जान के रूप लुभाय के नैननि बेंचि करी अ** ही।
फ़ैलगई घर बाहिर यात सु निकै भई इन काज कनौड़ो।
क्यों करि थाह उहै घनआनंद चाह नदी तट ही अति औडो।
हाय दई ! न बिसासो सुनै कछु है जग *ज्ञति नेह की डौड़ो।।

व्याख्या :

दोस्तों ! पूर्वानुराग का विरही अपनी बाध्यता को ढोक रहा है कि प्रिय के रूप पर नेतृत्व मुग्ध हो गये और मन उनके वश में हो गया। प्रिय के प्रति मेरा अनुराग है, यह बात भी चारों ओर फैल गई, जिससे जगह-जगह मुँह छुपाना पड़ता है। अभी प्रेम का आरंभ है, फिर भी अथाह जल की सी स्थिति हो रही है। तट पर ही डूब जाने का पूरा खतरा है। सारा संसार जान गया, पर प्रिय को मेरे प्रेम का मानो पता ही ना हो। यदि पता होता तो वह मेरी ओर उन्मुख होता, उसकी सुमुखता दिखती।

इन नेत्र रूपी दलालों को सुजान के सौंदर्य का लोभ हुआ और लोभ में पड़कर उस रूप को प्राप्त करने के लिये उन्होंने मुझे बीच में ही दासी बना डाला। मुझसे पूछा ही नहीं कि तुम्हें दासी होना या ऐसे की दासी होना पसंद है या नहीं। प्रेम से भी यह नहीं समझा कि यह दासी भी कुछ शर्तों पर दासत्व स्वीकार करेगी। यह बात भी चारों ओर फैल गई। घर में और बाहर भी, अपने परिवार में भी और अन्य लोगों में भी, अपने-पराये सभी जान गये। इन नेत्रों के कारण मुझे दुर्बल होना पड़ा, दासत्व स्वीकार करना पड़ा और बदनाम भी होना पड़ा।

घनानन्द कवित्त पद व्याख्या :

इधर इस प्रेम की अथाह स्थिति है। अभी पूर्वानुराग में ही ऊभ-चूभ हो रही है। प्रेम की नदी किनारे पर ही गहरी है। मझधार में जाने पर ना जाने क्या होगा। उसकी थाह का पता तो तब चले, जब कोई डुबकी मारने वाला हो। जो डूबने का भय करेगा, वह भला उसकी थाह क्या लगा सकेगा। फिर वह आश्वस्त भी कैसे होगा ?

प्रेम की डुग्गी पूरे जग में बज गई। सबको पता चल गया, पर वह प्रिय ऐसा विश्वासघाती है कि उसने सुना ही नहीं। उसकी अनुकूलता इतने पर भी नहीं मिल रही है। मैं उसके वश में हूँ और जगत भर में मेरी बदनामी और वह निश्चिंत हैं, सुमुखता का नाम नहीं।

दोस्तों ! सुजान का सौंदर्य ऐसा है कि भला उस पर कौन लुभा ना जाये। सौंदर्य में खीचने की स्वयं शक्ति होती है और नेत्र भी भारी लोभी हैं। वे जहाँ कहीं भी अपने लिये तृप्ति कारक रूप देखते हैं, वहाँ लुभाने वाले हैं। प्रिया के सौंदर्य में आकर्षक तत्व और नेत्रों में लीन होने की वृत्ति है।

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने घनानंद कवित्त के अगले 22-25 तक के पदों का भाव समझा। अगले पार्ट में कुछ नए पदों के साथ फिर से मिलते है। धन्यवाद !


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Ghananand Kavitt Bhav घनानन्द कवित्त के पदों की व्याख्या” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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