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Vinay Patrika Pad 147-148 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 147-148 Vyakhya by Tulsidas in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज के इस अध्याय में हम श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “विनय-पत्रिका” के अगले 147-148वें पदों की व्याख्या प्रस्तुत कर रहे है। आप इन्हें अच्छे से तैयार अवश्य करते चले। तो बिना देरी किये शुरू करते है :

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 147 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 147 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 147वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 147 Ki Vyakhya in Hindi

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज ! लाज आपुही निज जांघ उघारे।।1.।।

मिले रहैं, मारयौ चहैं कामादि संघाती।
मो बिनु रहैं न, मेरियै जारैं छल छाती।।2.।।

बसत हिये हित जानि मैं सबकी रूचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली।।3.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी कहते हैं कि हे कृपा के सागर ! इसलिए मैं रात दिन मन मारे रहता हूं। हे महाराज ! अपनी ही जांघ उघाड़ने से अपनी ही लाज जाती है।

काम आदि साथी ऐसे हैं, जो मिले हुये भी रहते हैं और मारना भी चाहते हैं। ये ऐसे कपटी है और ये मेरे बिना रह भी नहीं सकते और मारना भी चाहते हैं। जब तक मैं जीवित हूं, तभी तक काम, क्रोध आदि का अस्तित्व है और ये मेरी ही छाती को जलाते भी हैं अर्थात् ये जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं।

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि यह जानकर कि ये मेरे हृदय में रहते हैं, मैंने प्रेमपूर्वक इनकी रूचि भी पूरी की अर्थात् मैंने समस्त विषयों का भोग किया है। फिर भी इन दुष्टों ने मुझे कथक की लकड़ी बना रखा है अर्थात् इनके इशारे पर नाचना पड़ता है।

#पद :

Vinay Patrika Ke Pad 147 Ki Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी।।4.।।

बड़े अलेखी लखि परैं, परिहरै न जाहीं।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहिं।।5.।।

बारक़ बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको।।6.।।

व्याख्या :

आज तक मैंने ऐसी पराधीनता ना देखी है, ना सुनी है। कर्म तो वे खुद करते हैं और जो बुराई होती है, वह मेरे माथे पर मढ़ दी जाती है अर्थात् इंद्रियां भोग विलास करती है और कुफल भोगना पड़ता है इस जीव को। यह कैसा अन्याय है ?

तुलसीदास जी कहते हैं कि ये सब बहुत अन्यायी है अर्थात् अज्ञान के मारे इनकी चाल समझ में नहीं आती है और यदि दिखाई पड़े तो छोड़ने को जी नहीं चाहता है। इसलिए मैं इसी दुविधा और असमंजस में पड़ा रहता हूं। अब मुझे इस दुविधा से निकाल लीजिये। नहीं तो मैं इस संसार सागर में डूब जाऊँगा।

तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं आपकी बलैया लेता हूं। आप कृपा करके इस दास का कौतुक तो देख लीजिये। आपके देखते ही तुलसी का संकट मिट जायेगा।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 148 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 148 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 148वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 148 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

कहौं कौन मुँह लाइ कै रघुबीर गुसाईं।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई।।1.।।

सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।
गुनगुन सीतानाथके चित करत न हौं हौं।।2.।।

कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी।।3.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! क्या मुँह लगाकर मैं आपसे कुछ कहूँ। स्वामी जी की सौगंध है कि मैं अपने करतब को समझता हूं। इसलिए संकोच के मारे मैं कुछ कह नहीं सकता।

तुलसीदास जी कहते हैं कि आप सेवा करने से वश में हो जाते हैं और सुमिरन करने से सखा बन जाते हैं। रण में आने से सामने प्रकट हो जाते हैं। ऐसे आप के गुण समूहों पर मैं ध्यान नहीं देता हूं। आप जैसे स्वामी को मैं भुलाये बैठा हूं।

आप कृपा के सागर हैं। आप दीनों के बंधु और दुखियों के हितकारी हैं। आप शरणागत को पालने वाले हैं। ऐसी विरुदावली को सुनकर एवं जानकर भी मैं भूल गया हूं।

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 148 Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीती सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी।।4.।।

नाथ गरीबनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी।।5.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि मैंने ना तो सेवा की और ना ही ध्यान दिया। स्मरण करके आपके चरणों से प्रेम भी तो नहीं किया। आप जैसे श्रेष्ठ स्वामी को पाकर भी मुझसे जितना हो सकता, उतना मैंने बिगाड़ ही किया है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि आप दीनों पर कृपा करने वाले हैं, परंतु मैंने दीनता धारण नहीं की अर्थात् देह के अभिमान के कारण मुझमें कभी दैन्य भाव आया ही नहीं। हमेशा ऐठं ही बनी रही। अब प्रभु मुझ पर कृपा करें भी तो कैसे करें ? हे नाथ ! अब आपसे जो बन पड़े, वो कीजिये। आप बिगड़ी के बनाने वाले हैं। इसलिये आप मुझ पर कृपा अवश्य करेंगे।

दोस्तों ! इसप्रकार आज के अध्याय में हमने विनय पत्रिका के 147-148वें पदों की व्याख्या को भी समझ लिया है। उम्मीद है कि आपको समझने में कोई कठिनाई तो नहीं हुई होगी।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika Pad 147-148 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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