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Vinay Patrika Pad 149-150 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 149-150 Vyakhya by Tulsidas in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “विनय-पत्रिका” की पद व्याख्या कड़ी में आज अगले 149-150वें पदों की व्याख्या प्रस्तुत कर रहे है। तो चलिये समझते है:

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 149 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 149 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 149वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 149 Ki Vyakhya in Hindi

कहाँ जाऊँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे।।1.।।

मैं तो बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी किन्हें।।2.।।

दिन-दुरदिन दिन दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लॉन तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन।।3.।।

दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व-बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन।।4.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे प्रभु जी ! कहाँ जाऊं और किससे कहूँ कि मुझे कोई और ठौर ही नहीं है। तेरे ही दर पर पड़े रहकर जिंदगी काटी है। मैं तेरा ही गुलाम रहा हूं अर्थात् मैं सब तरह से तेरा ही हूं। किसी दूसरे का नहीं हूं।

तुलसीदास जी कहते हैं कि हे नाथ जी ! दुखों से सताये जाने के कारण मैं अपनी सारी करनी बिगाड़ चुका हूं। हे कृपा निधि ! मुझसे सब कुछ बिगाड़ ही हुआ है। अब सुधार करना आपके ही हाथ है, क्योंकि आप दया के समुद्र है।

तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे रघुकुल में श्रेष्ठ ! जब तक आपने इस जीव की ओर नहीं देखा अर्थात् इस पर कृपा नहीं की, तब तक नित्य ही खोटे दिन, नित्य ही दुर्दशा, नित्य ही दोष लगते रहेंगे। हे रघुकुल में श्रेष्ठ ! जब तक आप मेरी ओर नहीं देखेंगे अर्थात् जब तक आप कृपा नहीं करेंगे, तब तक यह सब होते ही रहेंगे।

मैं आपसे विमुख हो रहा हूं, क्योंकि मैं दृष्टिहीन हूं। आप तो विश्व विलोचन है। आप तो संसार के दृष्टा है अर्थात् आप मुझसे विमुख मत होइए। मुझे शरण में ले लीजिये। दूसरा कौन है, जिसे आपकी उपमा दूँ।

#पद :

Vinay Patrika Ke Pad 149 Ki Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाईं।।5.।।

आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो।।6.।।

रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावै त्यों करू कृपा तेरो तुलसी है।।7.।।

व्याख्या :

दीनों के दु:ख को दूर करने वाले तो एक आप ही है। हे देव ! मैं दीन हूं। मैं परतंत्र हूं। पर आप तो स्वतंत्र है, स्वामी है। क्या छाया बोलने से विनय कर सकती है अर्थात् यह जड़ जीव आप चैतन्य प्रभु से विनती नहीं कर सकता है।

तुलसीदास जी कहते हैं कि आप अपनी ओर देखिये। तब फिर मेरी ओर देखिये और इस दास को सच्चा मानना। राम नाम की ओट बड़ी भारी है। जिसने भी राम नाम का सहारा लिया, वह बच गया।

हे श्रीराम जी ! आपका रहन-सहन सदा मेरे हृदय में फूले नहीं समाता है। आपके शील स्वभाव का विचारकर मैं मन ही मन बड़ा प्रसन्न होता हूँ, क्योंकि अब मेरी सारी करनी बन जायेगी। अब यह तुलसी आपका है। जैसे भी हो, इस तुलसी पर कृपा कीजिये। यह जैसा भी है, इसे अपना लीजिये प्रभु।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 150 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 150 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 150वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 148 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

रामभद्र ! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।
जीव सकल सन्तापके भाजन जग माहीं।।1.।।

नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ।।2.।।

बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाईं।।3.।।

व्याख्या :

हे कल्याण स्वरूप श्रीरामचंद्र जी ! मुझे अपना सोच है भी और नहीं भी है। इस संसार में जितने भी जीव है, वे सभी दुखी हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि आप जैसे बड़े समर्थ से सिर्फ एक ओर से ही संबंध है।

जिस प्रकार मैं आपको अपना मानता हूं, उसी प्रकार क्या आप मुझे भी मानेंगे। मेरे जैसे आपको अनेक है, परंतु आप जैसे मेरे लिये केवल एक आप ही हैं अर्थात् आप चाहे तो मुझसे विमुख हो जाये, परंतु मैं आपसे विमुख नहीं हो सकता।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि हे नाथ ! आप तो सर्वज्ञ हैं। आप तो घट-घट की जानते हैं। मुझे बड़ी ग्लानि हो रही है, क्योंकि मैं हूं तो बड़ा दुष्ट और बेईमान सेवक और बातें ऐसी कर रहा हूं, जैसा कोई सच्चा सेवक करता है। तात्पर्य यह है कि मेरा यह पाखंड आपके आगे कैसे छुप सकता है। आप तो सर्वज्ञ हैं।

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 150 Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी।।4.।।

असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै
दीनबंधु ! कीजै सोई बनि परै जो बूझै।।5.।।

बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं
तुलसी प्रभुको परिहरयो सरनागत सो हौं।।6.।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं चाहे भला हूं या बुरा, पर सब स्त्री-पुरुष मुझे कहते तो राम का ही है। और कुत्ते एवं सेवक के बिगड़ने पर स्वामी के माथे पर ही गालियां पड़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मैं खोटाई करूँगा तो सब यही कहेंगे कि बुरा हो उस राम का, जिसके ऐसे ऐसे नीच सेवक हैं। क्योंकि मैं कुछ भी करूं, उसका दोष आपके सिर ही मढा जाना है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरी नीचता भी दूर हो जाये और आपको भी कोई बुरा-भला ना कहे। प्रभु ! मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं मिल रहा, इसलिए हे दीनबंधु ! जो आपको अच्छा लगे, सही लगे, वो मेरे साथ कीजिये।

तुलसीदास जी कहते हैं कि आप थोड़ा अपनी विरुदावली की ओर तो देखिये। क्या मैं कहीं पर भी उसमें स्थान पा सकता हूं। कहने का तात्पर्य है कि आप दीनबंधु हो तो क्या मैं दीन नहीं हूं। आप पतितपावन है तो क्या मैं पतित नहीं हूं। इनमें से कुछ तो मैं हूं ही स्वामी। आप इस तुलसीदास को छोड़ भी देंगे तो भी यह आपके ही सामने शरण में जाकर पड़ा रहेगा।

दोस्तों ! इसप्रकार आज हमने विनय पत्रिका के 149-150वें पदों की व्याख्या को जाना। उम्मीद है कि आपको अच्छे से समझ आ गया होगा। फिर मिलते है अगले पदों के साथ।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika Pad 149-150 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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