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Vinay Patrika Pad 145-146 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 145-146 Vyakhya by Tulsidas in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! पिछले अध्याय में हमने 143-144वें पद की व्याख्या को जाना था। आज हम श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “विनय-पत्रिका” के अगले 145-146वें पदों की व्याख्या समझने जा रहे है। तो शुरू करते है :

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 145 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 145 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 145वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 145 Ki Vyakhya in Hindi

कृपासिन्धु ! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुःख दाहे।।1.।।

गज, प्रह्लाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।
प्रनत, बंधु-भय-बिकल, बिभीषन, उठी सो भरत ज्यों भेट्यो।।2.।।

मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।
भजन, बिबेक, बिराग, लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों।।3.।।

सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआईं।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं।।4.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी कहते हैं कि हे कृपासिंधु ! आपका यह दीन दास आपके द्वार पर न्याय प्राप्त क्यों नहीं कर पा रहा है ? जबकि जिन्होंने भी, जहाँ पर भी दुखी होकर तुम्हें याद किया है, वहीं पर आपने उनका दु:ख दूर किया है। यह आपका स्वभाव है, पर मेरे लिये पता नहीं क्यों आपने अपना स्वभाव ही बदल दिया।

हाथी, प्रहलाद, पांडव, सुग्रीव आदि सबके शत्रुओं के द्वारा किये कष्टों को आपने नष्ट किया है। अपने भाई रावण के भय से त्रस्त विभीषण को उठाकर, भरत के समान अपनी छाती से लगा लिया।

हे श्रीराम जी ! आपका नाम लेकर अपने हृदय में एक गांव बसाना चाहता हूँ। मैं धीरे-धीरे भजन, विवेक, वैराग्य और सज्जन लोगों को लाकर उसमें बसाना चाहता हूं अर्थात् मैं अपने हृदय में सद्भावों को स्थान देता हूँ।

यह सुनकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सभी दुष्ट जबरदस्ती करते हैं, क्योंकि ये मेरे हृदय में पहले से ही जमे हुये थे। उनके स्थान पर भजन, विवेक, वैराग्य को ला-लाकर बैठाना चाहता हूं तो यह सब उसका विरोध करते हैं। हे प्रभु जी ! उस गांव में ये दुष्ट स्त्री, शत्रु धन-संपत्ति इत्यादि को बसाते हैं। आप ही बताइए कि ऐसे में उन सद्भावों का निर्वाह कैसे हो सकता है ?

#पद :

Vinay Patrika Ke Pad 145 Ki Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हारयो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुःख, प्रभुसों प्रगटि पुकारयो।।5.।।

सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर, दया चित नाहीं।
जाऊँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माहीं।।6.।।

तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहू केरो।
दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो।।7.।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि साम-दाम-दंड-भेद, सेवा-खुशामद आदि करके मैं थक गया हूं और साथ ही अनेक उपाय कर-करके भी मैं थक गया हूं, परंतु ये नहीं मानते हैं। बिना कारण के ही ये झगड़ा मचा के रखते हैं। इस महान दु:ख को आज मैंने स्वामी के सामने उजागर कर दिया है। प्रभु जी के सामने निवेदन कर दिया है।

हे श्रीराम जी ! आप यदि मुझसे यह पूछो कि किसी अन्य देवता को अपना दु:ख क्यों नहीं सुनाया ? तो उसका कारण यह है कि वे देवता स्वार्थी, अयोग्य, असमर्थ और निष्ठुर हैं। उनका चित बिल्कुल भी नहीं पिघलता है, इसलिए मैं कहां जाऊं ? ऐसा कौन है, जो मेरी विपत्ति दूर करने वाला है। इस संसार सागर से पार करने वाला है। आपके सिवा मुझे कोई भी दिखाई नहीं देता। इसलिए मैंने अपने समस्त दुखों का वर्णन आपसे किया है।

यद्यपि तुलसीदास नीच है, पर है तो यह तुम्हारा ही। यह किसी ओर का गुलाम नहीं है, इसलिए अपना समझकर एक बार भक्ति रूपी बाँह दे दो। हृदय में अपनी भक्ति की स्थापना कर दो, जिससे यह गाँव स्वतंत्रतापूर्वक आबाद हो जाये। कहने का तात्पर्य है कि इस हृदय में आपकी भक्ति के प्रताप से ही ज्ञान, विवेक, वैराग्य आदि सद्भावों का उदय होगा। और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का विनाश होगा।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 146 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 146 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 146वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 146 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो।।1.।।

काल -करम-इन्द्रिय-विषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो।।2.।।

बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बडेरो।
मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो।।3.।।

व्याख्या :

दोस्तों ! तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे श्रीराम जी ! मैं सब तरह से आपका ही गुलाम बनना चाहता हूं। परंतु यहाँ तो ठौर-ठौर पर साहबी ही दिखाई पड़ती है अर्थात् मन अपनी प्रभुता जमाता है। इंद्रियां अपना अधिपत्य दिखा रही हैं। अब मैं किस-किस की गुलामी करता फिरूँ और यह सब कौतुक कलिकाल का है।

काल, कर्म और इंद्रियों रूपी ग्राहकों ने मुझे घेर लिया है। मैं जब इनसे बिकना नहीं चाहता तो मुझे बांधकर कड़ा दाम चढ़ाते हैं अर्थात् लालच देकर मुझे अपने अधीन करना चाहते हैं।

हे श्रीराम जी ! आपका नाम सभी बंधन से मुक्त करने वाला है। जब उन ग्राहकों को मैंने कहा कि मैं रघुनाथ जी के हाथों बिक चुका हूं, तब वह ऊपरी प्रेम दिखाकर मुझसे अपने हृदय में स्थान पाना चाहते हैं। मैं उन्हें स्थान देता हूं तो वह पहले तो दीनता दिखाते हैं। पर जैसे ही उन्हें जगह मिल जाती है, वे धीरे-धीरे उस पर अपना अधिकार कर लेंगे और मुझे धक्का लगा देंगे।

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 146 Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो।।4.।।

जेहि कौतुक बक स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु ! ‘तुलसी है मेरो’।।5.।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कह रहे हैं कि अब तक मैं आपके ही नाम के सहारे से बचा हुआ हूं। नहीं तो इन ग्राहकों के हाथों कब का बिक गया होता। इन इंद्रियों के वश में ही हो गया होता। लेकिन यह कलयुग मुझे जेर किये हैं, इसलिए इस गरीब का पालन कीजिये। नहीं तो यह फिर खोजने पर भी नहीं मिलेगा। यह कलयुग इसका नामोनिशान ही मिटा देगा और रामदास से काम दास बना देगा।

हे श्रीराम जी ! आपने जिस कौतुक से बगुले और कुत्ते का फैसला कर दिया था, उसी लीला से यह भी कह दीजिये कि तुलसी मेरा है। आपके इतना कह देने से ही कलयुग का इस पर कोई भी वश नहीं चल सकेगा।

दोस्तों ! इसप्रकार आज हमने विनय पत्रिका के अगले 145-146 पदों की व्याख्या को समझा। आगे के अध्याय में हम इसके परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कुछ पदों को और लेकर आने वाले है। तो बने रहिये हमारे साथ।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika Pad 145-146 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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