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Meera Muktavali Pad मीरा मुक्तावली के पदों की व्याख्या (31-35)
Meera Muktavali Pad Vyakhya Edited by Narottamdas Swami in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले 31-35 पदों की व्याख्या समझने जा रहे है। आइए इन पदों पर एक नज़र डालते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali Vyakhya मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (31-35)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ki 31-35 Pad Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 31 से लेकर 35 तक के पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 31.
Meera Muktavali 31-35 Pad Vyakhya in Hindi
हेरी ! मैं तो दरध-दीवाणी होइ।
दरद न जाणै मेरो कोइ।।
घायल की गति घायल जाणै, की जिण लायी होइ।
जौहरि की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होइ।।
सूली ऊपर सेझ हमारी, सोवण किस विध होइ।
गगन-मंडळ पर सेज पिया की, किस विध मिलणा होइ।।
दरद की मारी वन-वन डोलूँ, वैद मिल्या नहिं कोइ।
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी, जद वैद सांवरिया होइ।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | दरध | दर्द |
2. | दीवाणी | दीवानी |
3. | घाइल | घायल |
4. | जौहरि | रत्न |
5. | सेझ | शैय्या |
6. | जौहरि | रत्न पारखी |
7. | वैद | वैद्य |
8. | जद | जब |
9. | पीर | पीड़ा |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई कहती है कि मैं तो दर्द की दीवानी हो गई हूँ। मेरे इस दर्द को कोई भी नहीं जानता है, क्योंकि यह दर्द तो अलौकिक स्तर का है। इसे लौकिकता के स्तर पर कोई कैसे जान सकता है ?
जो घायल है, उसकी स्थिति को दूसरा घायल ही जान सकता है या वह जानता है, जिसने विरह दर्द को दिया है अर्थात् प्रभु ! या तो परमात्मा ही उस दर्द को जानता है या जीवात्मा ही उस दर्द को जानती है, जो इससे तड़प रही है।
रत्न की कीमत को तो पारखी ही जानता है या वह रत्न ही जानता है। सूली के ऊपर सेज है तो मैं उस पर किस प्रकार से सो सकती हूँ। अनेक कष्टों के ऊपर मेरी शैय्या है तो किस विधि से अपने प्रियतम के साथ उस पर विश्राम कर सकती हूँ।
मैं दर्द की मारी भटकती फिर रही हूँ। कोई वैद्य नहीं मिला है। प्रभु के प्रेम-विरह का दर्द है, क्योंकि मीरा की पीड़ा तो तभी मिटेगी, जब वैद्य उसका साँवरियाँ (श्रीकृष्ण) होगा।
पद : 32.
Meera Muktavali Pad Vyakhya – Narottamdas Swami in Hindi
विरहणी वावरी – सी भयी,
सूने भवन पै ठाढ़ि होइ कै, टेरत आह दयी।
दिन नहिं भूख, रैण नहिं निंदरा भोजन-भावन गयी।।
लेकरि अँचरो अंसुवन पूंछै, ऊँघरि गात गयी।
मीरां कह मनमोहन प्यारे, जातां कछु न कही।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | वावरी | पागल |
2. | सूने | शून्य |
3. | टेरत | नाम भर-भर कर पुकारना |
4. | रैण | रात्रि |
5. | निंदरा | नींद |
6. | अँचरो | आँचल |
7. | ऊघरि | खुल गई |
8. | गात | शरीर |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि आपकी विरहिणी पागल हो गई है। वह सूने भवन पर खड़ी होकर के प्रभु का नाम बार-बार पुकार रही है। वह नाम भर-भर कर पुकार रही है और चिल्ला रही है, जैसे पागल व्यक्ति चिल्लाता है।
श्रीकृष्ण जी के वियोग में मीराबाई की क्या स्थिति हो गई है, वह उसका वर्णन करती है कि दिन में भूख नहीं लगती है और रात्रि में नींद नहीं आती है। और ना ही भोजन करने की इच्छा ही रही है। मैं अपने आँचल से आँसू पोंछती रहती हूँ।
मुझे मेरे वस्त्रों का भी ध्यान नहीं है। मेरा शरीर उघड़ गया है और मुझे ध्यान ही नहीं है अर्थात् मुझे अपने तन की भी सुध नहीं रह गई है। मीरा कह रही है कि अरे मेरे मन को मोहने वाले ! जाते हुये कुछ भी ना कहा। कुछ ऐसा तो कह जाते, जिससे मेरे मन में तसल्ली का बोध तो हो जाता।
पद : 33.
Meera Muktavali Pad-Vyakhya Shabdarth Sahit in Hindi
को विरहिणी को दुःख जाणै ?
जा घर बिरहा सोई लखिहै, के कोइ हरिजन मानै।।
रोगी अन्तर वैद बसत है, वैदहि ओखद जाणै।
विरह करद उर अन्दर माँहि, हरि बिन सव सुख कानै।।
दुग्धा आरण फिरै दुखारि, सुरत बसी सुत मानै।
चाद्रग स्वाँति बूंद मन माँहि, पीव-पीव उकलाणै।।
सब जग कूडो, कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछाणै।
मीराँ के पति आप रमइयो, दूजा नहिं कोइ छानै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | जाणै | जाने |
2. | हरिजन | ईश्वर का भक्त |
3. | ओखद | औषधि |
4. | करद | कटार |
5. | कानै | अलग/ दूर |
6. | उकलाणै | व्याकुल |
7. | कंटक | कष्ट |
8. | पिछाणै | पहचान |
9. | रमइयो | रमते हैं |
10. | छानै | छिपे हुये /गुप्त रूप से |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि मुझ विरहिणी का दु:ख कौन जान पायेगा ? जिस घर में कोई विरही है, उस बात को वहीं देख सकता है, समझ सकता है। रोगी के भीतर ही वैद्य बसता है। रोगी अर्थात् आत्मा और वैद्य अर्थात् परमात्मा। आत्मा के अंदर ही परमात्मा बसता है। वह वैद्य ही उस औषधि को जानता है।
मीराबाई कहती है कि रोगी के भीतर ही वैद्य बसता है और वहीं औषधि को जानता है। विरह रूपी कटार हृदय के अंदर समा गई है और मेरे प्रभु के बिना मेरे सब सुख मुझसे दूर हो गये हैं। जैसे नव प्रसूता गाय वन-वन दुखी होकर घूम रही है, लेकिन उसकी स्मृति उसके पुत्र के ही भीतर बसी हुई है, वैसे ही मीराबाई वन-वन दुखी होकर फिर रही है और उसके मन से अपने प्रियतम का बोध एक क्षण के लिये भी जाता नहीं है।
आगे कहती है कि जो चातक है, जैसे स्वाति बूँद को अपने मन में धारण करता हुआ पीव-पीव करके व्याकुल होता रहता है, उसी प्रकार स्थिति मेरी भी अपने प्रियतम के बिना हो रही है। आगे मीराबाई कहती है कि यह सब संसार तो कूड़े के समान है और यह दुनिया कष्टदायी है। मेरे इस दर्द को कोई नहीं पहचानता है। हे मीरा के प्रिय ! मेरे हृदय में तो आप ही रमते हो। दूसरा तो कोई गुप्त रूप से भी नहीं है। केवल मेरे पति श्रीकृष्ण जी ही रमे हुये हैं।
पद : 34.
Meera Muktavali Pad with Hard Meanings in Hindi
मैं बिरहणि बैठी जागूँ
जगत सब सोवै, री आली !
बिरहणि बैठी रंग-महल में मोतियन की लड़ पोवै।
इक बिरहणि हम अैसी देखी अँसुवन की माला पोवै।।
तारा गिण-गिण रैण विहानी, सुख की घड़ी कब आवै।
मीराँ के प्रभु गिरिधर नागर, मिलि के बिछुड़ न जावै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | जागूँ | जगी रहती हूँ |
2. | अैसी | ऐसी |
3. | गिण-गिण | गणना |
4. | विहानी | व्यतीत करना |
5. | मिलि | मिलने के बाद |
6. | जावै | जाना |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि मैं तो विरहिणी हूँ, जो जगी रहती हूँ। हे सखी ! ये सारा संसार तो सोता है, लेकिन मैं चिंता में रात भर जागी रहती हूँ। मीराबाई कहती है कि एक विरहिणी तो वो होती है, जो रंग महल में बैठकर मोती की लड पिरोती रहती है। और एक विरहिणी मैं हूँ, जो आँसुओं की माला पिरोती रहती हूँ।
मैं तारे गिन-गिन कर रात्रि व्यतीत करती हूँ। दु:ख की रात्रि इतनी लंबी हो गई है कि सुख की घड़ी कब आयेगी। हे मीरा के प्रभु गिरिधर नागर ! मिलने के बाद मुझसे बिछुड़ ना जाना। केवल मेरे बनकर के रहना और मुझे अपने चरणों में दासी बना कर रख लेना, जिससे मेरी इस संसार से मुक्ति हो जाये।
पद : 35.
Meera Muktavali Ke Pad 31-35 Ki Vyakhya in Hindi
पपइया रे ! पिव की बाणि न बोल।
सुणि पावैगी विरहणी रे थारी रालैगी पाँख मरोड़।।
चाँच कटाऊँ पपइया रे, ऊपर कालर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै सु कूण।।
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव-मेला आज।
चाँच मढ़ाऊँ थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज।।
प्रीतम कूँ पतियाँ लिखूँ, कड़वा ! तू ले जाइ।
जाइ प्रीतमजी सूँ यूँ कहै रे, थारी विरहणि धान न खाइ।।
मीरा दासी व्याकुली रे, पिव-पिव करत विहाइ।
वेगि मिलो प्रभु अंतरजामी ! तुम बिन रह्योइ न जाइ।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | थारी | तुम्हारी |
2. | कालर लूण | काला नमक |
3. | पिव | प्रियतम |
4. | कूण | कौन |
5. | मेल | मिलन |
6. | चांच | चोंच |
7. | विहाइ | समय बिताना |
8. | वेगि | शीघ्र |
9. | कड़वा | पपीहा |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि अरे पपीहा ! तू पीव-पीव की वाणी मत बोल, क्योंकि यह सुनकर के विरहणी को और अधिक दु:ख होगा और वह तुम्हारे पंखों को पकड़ कर मरोड़ डालेगी। अरे पपीहा ! मैं तेरी चोंच कटवा दूँगी, क्योंकि तू पीव-पीव बोल रहा है और मेरे हृदय की पीड़ा और अधिक भड़का रहा है। मैं तेरी चोंच कटवा दूँगी और काटने के बाद ऊपर से काला नमक और डालूँगी। तू यह बता कि प्रियतम तो मेरा है और मैं प्रियतम की हूँ। तू किसे पीव कह रहा है, पीव तो मेरा है।
फिर वह यह भी कह रही है कि तेरा पीव शब्द सुहावना भी है। यदि मेरे प्रियतम से मेरा आज मिलन हो गया, तब तो तुम्हारा पीव शब्द मेरे लिये सुहावना हो जायेगा। तब तो मैं तुम्हारी चोंच को सोने से मंढा दूँगी। आगे कहती है कि मैं प्रियतम को पत्री लिख रही हूँ, इसे तू ले जाना और जाकर के मेरे प्रियतम से कहना कि तुम्हारी विरहणी अन्न नहीं खा रही है, उसने भोजन त्याग रखा है।
मीरा तुम्हारी दासी है, तुम्हारे विरह में पीव-पीव करती हुई समय व्यतीत करती है। मीराबाई कहती है कि हे मेरे प्रभु ! तुम शीघ्र मिलना, क्योंकि तुम तो अन्तर्यामी हो और सब जानते हो। तुम्हारे बिना अब मुझसे रहा नहीं जाता है।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के 31-35 पदों की व्याख्या को जाना और समझा। अगले कुछ मुख्य पदों के साथ फिर मिलते है। धन्यवाद !
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दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Meera Muktavali Pad मीरा मुक्तावली के पदों की व्याख्या (31-35)” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
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