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Surdas Ka Bhramar Geet Saar in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या
Surdas Ka Bhramar Geet Saar in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या : नमस्कार दोस्तों ! रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” की पद व्याख्या की श्रृंखला में आज पेश है : 51 से लेकर 53 तक के पदों की विस्तृत व्याख्या। तो चलिए जल्दी से समझ लेते है :
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सूरदास का भ्रमरगीत सार Bhramar Geet Saar in Hindi [पद #51-53]
Surdas Ka Bhramar Geet Saar Arth in Hindi : दोस्तों ! “भ्रमरगीत सार” के 51-53 तक के पदों की विस्तृत व्याख्या इसप्रकार है :
#पद : 51.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Surdas Ka Bhramar Geet Saar Raag Kanhro in Hindi
राग कान्हरो
अलि हो ! कैसे कहौं हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिन्हैं बचन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन-जसहि।
चार बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहि।
सूरदास अँगन की यह गति को समुझावै पाछपद पसुहि ?
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | तन | शरीर |
02. | रसना | जिह्वा |
03. | दसहि | दशा को |
04. | आहिं | हैं |
05. | तिसहि | उसे |
06. | सुमिरि | स्मरण, ध्यान करती है |
07. | जसहि | यश को |
08. | बिधि | विधाता |
09. | न बसहि | वश में नहीं |
10. | पसुहि | पशु को |
व्याख्या :
गोपी भ्रमर के माध्यम से उद्धव से कहती है कि मैं श्री कृष्ण के रूप-रस, श्रृंगार का कैसे वर्णन करूं ? मेरे इस शरीर के विभिन्न जो अवयव है, उनमें परस्पर अत्यधिक भेद है। मेरी जिह्वा मेरे नैनों की दशा को नहीं जानती और ना ही वह उस दशा का अनुभव कर सकती हैं। एक अंग एक ही कार्य कर सकता है।
इन नैनो ने श्री कृष्ण की रूप माधुरी के दर्शन तो किये हैं, किंतु वे वचनों के अभाव में उसका वर्णन करने में असमर्थ है और जो जिह्वा बोलने में अथवा वर्णन करने में समर्थ है, पर नेत्रों के अभाव में इस रूप माधुरी को देखने अर्थात् अनुभव करने में असमर्थ है। नेत्र बोल नहीं पाते, इसलिए श्री कृष्ण के उस सगुण स्वरूप और यश का स्मरण कर, प्रेम के आवेग में उमड़ते हुये आंसुओं से भर उठते हैं।
आगे गोपी कहती है कि अपनी विवशता के कारण हमारा मन बार-बार पश्चाताप से भर उठता है। जब विधाता ही वश में नहीं है तो यह मन कर भी क्या सकता है ? हमारे भाग्य में प्रियतम श्री कृष्ण से वियोग दशा लिखी थी और हम उसे भुगत रहे हैं।
सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने कहा कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों की विवशता से, इस मूढ 6 पैरों वाले भोरैं को कौन समझाये ? ये प्रेम के महत्व एवं प्रभाव को नहीं समझ पाता। ये मूर्ख है, इसलिए इसको समझाना व्यर्थ है।
#पद : 52.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Surdas Ka Bhramar Geet Saar Raag Saarang with Hard Meaning
राग सारंग
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नँदनँदन सों उर यह दृढ़ करि पकरी।।
जागत सोवत, सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जकरी।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी।।
सोई ब्याधि हमैं लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | हारिल की लकरी | हारिल नामक पक्षी सदैव अपने पंजों में कोई ना कोई लकड़ी का टुकड़ा या तिनका पकड़े रहता है |
02. | बच | वचन |
03. | क्रम | कर्म |
04. | उर | हृदय |
05. | सौंतुख | प्रत्यक्ष |
06. | कान्ह | कन्हैया |
07. | चकरी | चंचल, चकई के समान सदैव अस्थिर रहने वाली |
व्याख्या :
इस पद में श्री कृष्ण के अपने प्रेम को गोपियाँ प्रकाशित करती हुई उद्धव से कहती है कि हे उद्धव ! श्री कृष्ण उनके लिये हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गये हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी कहीं भी हो और किसी भी दशा में हो, वह सहारे के लिए अपने पंजे में किसी ना किसी लकड़ी को पकड़े रहता है, उसी प्रकार हम गोपियाँ भी निरंतर श्री कृष्ण के ध्यान में निमग्न रहती है।
हमने अपने मन वचन और कर्म से श्री कृष्ण रूपी लकड़ी को अपने हृदय में दृढ करके पकड़ लिया है। श्री कृष्ण का रूप सौंदर्य हमारे हृदय में गहराई तक बैठ गया है और यह अब जीवन का एक अंग बन गया है। हमारा मन तो जागते-सोते, स्वप्न अवस्था में, प्रत्येक अवस्था में अर्थात् सभी दशाओं में श्री कृष्ण के नाम की रट लगाये रहता है। श्री कृष्ण का स्मरण ही एकमात्र कार्य रह गया है।
Surdas Ka Bhramar Geet Saar in Hindi
हे भ्रमर ! तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म संबंधी ज्ञान उपदेश की बातें सुनकर हमें ऐसा लगता है, जैसे कड़वी ककड़ी हम लोगों ने मुंह में रख ली हो। गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव ! इस निर्गुण ब्रह्म के रूप में तुम हमारे लिये ऐसा रोग ले आये हो, जिसे ना तो हमने कभी देखा है, ना सुना है और ना ही कभी उसका भोग किया है। इसलिए इस योग ज्ञान रूपी बीमारी को तुम उन लोगों को दो, जिनके मन चकरी के समान अर्थात् जिनके मन सदा चंचल रहते हैं। वे ही इसका आदर करेंगे।
गोपियाँ कहती हैं कि उनके ह्रदय तो श्री कृष्ण के प्रेम में दृढ़ एवं स्थिर है, उनके हृदय में योग ज्ञान और निर्गुण संबंधी बातों के लिये कोई स्थान नहीं है। उद्धव के योग की बातें वे ही लोग स्वीकार कर सकते हैं, जो अपनी आस्था में दृढ नहीं होते, जो भावावेश में अपनी आस्था और विश्वास को बदलते रहते हैं, इसलिए ऐसे अस्थिर चित्त वालों के लिये ही योग का उपदेश उचित है।
#पद : 53.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Surdas Ka Bhramar Geet Saar Shabdarth Sahit
फिरि फिरि कहा सिखावत मौन?
दुसह बचन अलि यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा, अरु अवरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | सिखावत | सिखाना |
02. | दुसह | कठोर |
03. | जारे पर लौन | जले पर नमक |
04. | त्वचामृग | मृगछाला |
05. | अवरोधन पौन | सांस रोकना |
06. | पोत | कांच की बनी छोटी गुड़ियाँ अथवा मोती |
07. | सूतरी | सूतली |
व्याख्या :
गोपियाँ उद्धव से कह रही है कि हे उद्धव ! तुम हमें बार-बार मौन साधने का उपदेश क्यों दे रहे हो ? कम से कम हमें अपना दुःख तो कह लेने दो। हे उद्धव ! तुम्हारा यह योग साधना स्वरूप असहनीय और कठोर वचन, इसप्रकार कष्ट दे रहे है जैसे जले पर नमक छिड़क दिया गया हो।
कवि कहना चाह रहे है कि गोपियाँ श्री कृष्ण के वियोग में पहले ही दुखी एवं घायल है। ऊपर से उद्धव उन्हें श्री कृष्ण का त्याग कर ब्रह्म प्राप्ति के लिये योग साधना का उपदेश दे रहे है। ऐसा लगता है कि जैसे जले पर नमक छिड़क कर घायल को और अधिक कष्ट दिया जा रहा हो।
हे उद्धव ! तुम हमसे सिंगी, भस्म, मृगछाला और मुद्रा धारण करके प्राणायाम की साधना करने को कहते हो, किन्तु हे मुर्ख भ्रमर ! क्या तुमने यह भी सोचा है कि हम अबला अहीर नारियां है। हमारे लिए यह किस प्रकार संभव है कि हम तुम्हारे कठिन योग साधना से प्राप्त निर्गुण ब्रह्म को अपना ले।
योग साधना तो वन में रहकर अपनायी जा सकती है। हम ना तो घर को त्याग सकती है और ना ही अपने घर को वन के समान निर्जन कर सकती है। यह असंभव है, क्योंकि हमारे घरों में श्री कृष्ण संबंधित सभी पुरानी यादें समायी हुई है, जिन्हें हमें भूलना पड़ेगा और यह हमारे लिये संभव नहीं है। तुम्हारे लिये यही उचित है कि तुम अपना यह उपदेश उन लोगों के पास ले जाओ, जिन्हें ये सब करना शोभा देता है।
Surdas Ka Bhramar Geet Saar in Hindi
कवि कहना चाहता है कि उद्धव का यह योग साधना का उपदेश उनके लिये नहीं बल्कि कुब्जा के लिये उचित है। क्योंकि वह श्री कृष्ण की निकटता पाकर सभी प्रकार से समर्थ और प्रसन्न है, जो अनुराग में रत है। हम तो पहले से ही वैराग्य में जीवन व्यतीत कर रहे है। इस योग साधना की वास्तव में उस कुब्जा को अधिक जरूरत है, जो विषय भोग में लिप्त है।
गोपियाँ कहती है कि हमें आज तक किसी भी व्यक्ति को मोती में सूतली पिरोते हुये नहीं देखा है। इसप्रकार यह कार्य असंभव है। तुम हमें योग साधना के माध्यम से जो निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करने का सन्देश देते हो, वह भी असंभव कार्य है।
इस तरह से दोस्तों ! आज हमने भ्रमर गीत सार के 51-53 पदों की विस्तृत व्याख्या को समझा। उम्मीद है कि आपको पढ़कर अच्छा लगा होगा। फिर मिलते है कुछ नये पदों के साथ।
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
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