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Meera Muktavali Ke Pad मीरा मुक्तावली के पदों की व्याख्या (36-40)


Meera Muktavali Ke Pad Edited by Narottamdas Swami in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले 36-40 पदों की व्याख्या करने जा रहे है। ध्यान से समझियेगा :

नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित मीरा मुक्तावली के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali Vyakhya मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (36-40)


Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 36-40 Pad in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 36 से लेकर 40 तक के पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या निम्नानुसार है :

पद : 36.

Meera Muktavali Ki 36-40 Pad Vyakhya in Hindi

नातो नाम को मो सूं,
तनक न तोड्यो जाइ।।
पानां ज्यूं पीली पड़ी रे, लोग कहैं पिंड रोग।
छाने लांघण म्हैं किया रे, राम मिलण के जोग।।
बाबल बैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हांरी बांह।
मूरिख बैद मरम नहिं जाणै, कसक कलेजा मांह।।
जा बैदां ! घरि आपणै रे, म्हांरो नांव न लेइ।
मैं तो दाधी बिरह की रे, तू काहे कूं दारू देइ।।
मांस गळे-गळ छीजिया रे, करक रह्या गळ आहि।
आंगलिया री मूदडो, आवण लाजो बांहि।।
रहु रहु पापी पपीहा रे, पिव को नाम न लेइ।
जै कोई बिरहण सांभळै, पिव कारण जिव देइ।।
खिण मंदिर, खिण आंगणै रे, खिण-खिण ठाढी होइ।
घायल ज्यूं घूमूं सदा री, म्हारी बिथा न बूझै कोइ।।
काढि कलेजो मैं धरूँ रे, कौवा ! तू ले जाइ।
ज्यां देसां म्हारो पिव वस, वां देखत तूं खाइ।।
म्हारौ नातो नांव को रे ! और न नातो कोइ।
मीरा ब्याकुल बिरहणी रे ! दरसण दीजै मोइ।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.नातो संबंध
2.मो मुझसे
3.पिंडशरीर
4.छानैछुपकर
5.लांघणउपवास
6.मूरिखमूर्ख
7.करकपीड़ा
8.मांहमें
9.दाधिदग्ध
10.करकहड्डियां
11.गळगल रही है
12.सांभळैसुनेगी
13. बिथाव्यथा
14. ठाढी खड़ी
15.खिणक्षण
16.मूंदड़ोअंगूठी

व्याख्या :

मीराबाई कहती है कि मुझसे आपका रिश्ता केवल नाम मात्र का है। तुम इसे क्षण भर में तोड़ कर मत जाओ। मैं पीली पड़ गई हूँ। जैसे पत्ता पीला पड़ जाता है और लोग कहते हैं कि इसको तो पांडु रोग हो गया है। मैं छिपकर के उपवास करती हूँ। मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण जी से मिलने के लिये ही यह उपवास का योग करती हूँ।

मेरे पिता वैद्य जी को बुलाते हैं और मेरी बाँह को पकड़कर दिखा रहे है, लेकिन वो मूर्ख वैद्य नहीं जानता कि पीड़ा हृदय में है। उस पीड़ा को वह मूर्ख वैद्य जान नहीं पाता है।

मीराबाई कहती है कि जा वैद्य, तू अपने घर जा। मेरा नाम मत लेना। मैं तो अपने परमात्मा के विरह में दग्ध हूँ अर्थात् जल रही हूँ और तुम मुझे दारु पिला रहा है अर्थात् औषधि क्यों पिला रहा है।

मीराबाई कहती है कि मेरा मांस गल-गल कर बह रहा है और केवल हड्डियाँ रह गई है। वो हड्डियां भी अब गल रही है। मेरी अंगुलियों की मुद्रिका मेरी बाहों में आने लगी है अर्थात् मैं नष्ट प्राय हो गई हूँ।

मीरा मुक्तावली की व्याख्या :

वह पपीहे से कह रही है कि रहने दे – रहने दे रे पपीहा ! प्रियतम का नाम मत ले। यदि कोई विरहिणी सुन लेगी तो अपने प्रियतम के लिये अपने प्राण त्याग ही देगी। क्षणभर में मंदिर में, क्षणभर में आंगन में, ऐसे ही क्षण-क्षण में खड़ी होती हूँ, जैसे कोई घायल घूम रही है, पर मुझसे मेरी व्यथा पूछने वाला कोई नहीं है। मेरी व्यथा को कोई नहीं जान पा रहा है।

मीराबाई अपने विरह वेदना को प्रकट करती हुई आगे कह रही है कि मैं अपने हृदय को निकाल करके रख देती हूँ और कौवे से कह रही है कि तू इसे अपनी चोंच में लेकर चला जा और उस देश में जाकर खाना, जहां मेरा प्रियतम है, ताकि उसे अपनी गलती का एहसास हो सके कि तेरे कारण तेरे बिरहणी ने प्राण त्याग दिये हैं।

मीराबाई उपालंभ देखकर कहती है कि हमारा संबंध केवल नाम मात्र का है और तो कुछ बचा ही नहीं है। आप तो मुझे प्रेमिका, पत्नी कुछ भी नहीं मान रहे हो। मीरा तुम्हारे प्रेम की विरहिणी है और व्याकुल है। हे प्रियतम ! मैं तुम्हारे दर्शनों की प्यासी हूँ। मुझे दर्शन दीजिए। मेरी व्याकुलता और विरह-वेदना को नष्ट कीजिए।

पद : 37.

Meera Muktavali Ke Pad – Narottamdas Swami in Hindi

मैं जाण्यो नाहीं, प्रभु को मिलण कैसे होइ री।
आये मेरे सजना, फिरि गये अंगना, मैं अभागण रही सोइ री।।
फारुंगी चीर, करूँ गळ कंथा, रहूंगी वैरागण होइ री।
चुरियाँ फोरूँ, पांग वखेरूँ, कजरा मैं डारूँ धोइ री।।
निस-वासरि मोहि विरह संतावै, कल न परत पल मोइ री।
मीरां के प्रभु हरी अविनासी, मति कोइ री।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.चीरवस्त्र
2.गळगला
3.कंथागूदड़ी
4.पांगपग-पग
5.वखेरूँबिखेरूँगी
6.वासरिदिन
7.कलशांति
8.मोइमुझे

व्याख्या :

मीरा कहती है कि मैं नहीं जान पा रही हूँ कि प्रभु से मैं किस प्रकार से मिलन कर सकती हूँ। मेरे सजना मेरे घर आये और आंगन में फिर कर भी गये और मैं अभागन हूँ कि सोती रह गई। मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे प्रियतम आ गये और मेरे आंगन में भी भी आये और मैं सो रही थी। क्षोभ के मारे वह आगे कहती है कि अब मैं अपने वस्त्र फाड़ दूँगी और गले में गूदड़ी लपेटूँगी। मैं वैराग्य ले लूँगी।

पग-पग पर अब चूड़ियाँ फोड़ूँगी और बिखेरूँगी। अब काजल को भी धो डालूँगी। यह सब सौभाग्य और प्रियतम को रिझाने वाली चीजें हैं। अब जब प्रियतम ही नहीं है तो विधवा का सा मेरा जीवन हो गया है। मैं इन सब प्रसाधनों को हटा दूँगी। अब दिन-रात मुझे विरह सता रहा है। अब मुझे क्षणभर भी शांति नहीं मिल रही है। मीरा बाई कहती है कि हे मेरे प्रभु हरि अविनाशी ! मैं तो तुम्हारे सहारे हूँ , मिलकर के किसी को भी बिछड़ना नहीं चाहिए।

पद : 38.

Meera Muktavali Ke Pad – Vyakhya Shabdarth Sahit in Hindi

अपणै करम को वोछ, दोस काकूं दीजै रे ऊधो !
सुणियो मेरी वगड पड़ोसण, गैले चलत लागी चोट।
पहली ग्यान-मान नहिं कीन्हो, मैं ममता की बाँधी पोट।।
मैं जाण्यूँ हरि नहिं तजैंगे, करम लिख्यो भल-पोच।
मीरां के प्रभु हरि अविनासी, परो निवारो नई सोच।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.अपणैअपने
2.करमभाग्य
3.वोछत्रुटि / ओछापन
4.दीजैदेना
5.वगडबगल
6.गैलेमार्ग

व्याख्या :

मीरा कहती है कि ये तो मेरे भाग्य का ही ओछापन है, भाग्य की ही त्रुटि है। रे ऊधो ! मैं दोष किसको दूँ। सुनो मेरी बगल वाली पड़ोसन ! सीधी मार्ग पर चलते हुए भी मुझे चोट लग गई है। मैंने पहले सोचा समझा नहीं और मैंने ममता की गठरी बाँध ली। श्रीकृष्ण जी के प्रेम में बँध गई।

मैंने सोचा नहीं था कि इतने कष्ट मिलेंगे प्रेम में। मैं जानती हूँ कि हरि नहीं त्यागेंगे, लेकिन कर्म में ही जो अच्छा-बुरा लिखा हुआ है, वह तो भोगना ही पड़ेगा। हालांकि मैं जानती हूँ कि हरि मुझे नहीं तजेगें। मीरा के प्रभु हरि अविनाशी ! तुम मेरे इस दु:ख-दर्द की चिंता को दूर करो ना।

पद : 39.

Meera Muktavali Ke Pad with Hard Meanings in Hindi

कोई कहियो रे ! मोहन आवण की,
आवण की मन भावण की।।
अे दोउ नैण कह्यो नहीं मानै, नदियां बहैं जैसे सावण की।
आप न आवै, लिख नहिं भेजै, बाण परी ललचावण की।।
कहा करूँ, कछु बस नहिं मेरो, पाँख नहीं उड़ जावण की।
मीरां के प्रभु ! कब रे मिलोगे, चेरी भयी तेरे दावण की।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.आवणआने
2.भावणभाती है
3.वहैबहना
4.बाण आदत
5.परी पड़ गई
6.ललचावणरूप-सौंदर्य को देखने की लालसा
7.चेरीदासी
8.दावण दामन

व्याख्या :

मीरा अपने मनोभावों को व्यक्त करती हुई कह रही है कि अरे कोई तो कहो कि मेरा मोहन आ रहा है। उसके आने की कोई तो सूचना दो। उसके आने की बात कहो, जो मेरे मन को भाती है। यह दोनों नैन कहा नहीं मान रहे हैं। सावन की नदियों के जैसे बह रहे हैं। मेरे प्रियतम आप तो आते नहीं हो और अपना समाचार लिखकर के भी नहीं भेजते हो। मेरी इन आंखों को लालच पड़ गया है, तुम्हारे रूप सौंदर्य को देखने का।

मीराबाई कह रही है कि क्या करूँ ? कुछ मेरे बस में ही नहीं है। पंख नहीं है, यदि होते तो मैं उड़ जाती अपने प्रियतम के पास। हे मीरा के प्रभु ! कब मुझसे मिलोगे। मैं तो तुम्हारे दामन की दासी हो गई हूँ। आप मुझे कब दर्शन दोगे।

पद : 40.

Meera Muktavali Ke Pad 36-40 Ki Vyakhya in Hindi

गोविन्द कबहुँ मिलै पिव मेरा,
चरण-कंवल कूं हँसि-हँसि देखूं ,राखूं नैणां नेरा।
निरखण कूं मोहि चाव घणेरा, कब मुख देखूं तेरा।।
ब्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज, मिलि तू मीत ! सबेरा।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर ! ताप तपन बहुतेरा।।

शब्दार्थ :

क्र.सं.शब्दअर्थ
1.पिव प्रिय
2.मोहिमुझे
3.चाव उत्साह
4.घणेरा ज्यादा
5.धरतधरना
6.धीरज धैर्य
7.मीतप्रिय
8.सबेराशीघ्र
9.ताप तपन संताप और जलन

व्याख्या :

मीरा कहती है कि हे मेरे गोविन्द ! मेरे प्रियतम ! तुम मुझे कब मिलोगे। अपनी अभिलाषा को व्यक्त करती हुई मीराबाई कहती है कि जब तुम मुझे मिलोगे तो तुम्हारे चरण रूपी कमलों को हँस-हँस कर देखूँगी। तुम्हें देखने का मेरे मन में बहुत ही ज्यादा चाव है, उत्साह है।

मैं तुम्हारा मुँह कब देख पाऊँगी। मेरे प्राण व्याकुल है तुमसे मिलने के लिये और धैर्य को धारण नहीं करते हैं। हे मेरे प्रियतम ! तुम मुझे शीघ्र ही मिल जाओ। इस भौतिक जीवन की बहुत संताप और जलन मैंने सहन कर ली है। हे प्रभु ! अब तो आप मुझे दर्शन दे दो। हे मेरे गिरिधर नागर ! मुझे दर्शन दीजिए।

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के 36-40 पदों की व्याख्या को समझा। अगले भाग में इसके आगे के पदों को विस्तार से समझेंगे। धन्यवाद !


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Meera Muktavali Ke Pad मीरा मुक्तावली के पदों की व्याख्या (36-40)” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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