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Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या
Bhramar Geet Saar – Surdas In Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम सूरदास रचित और रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” के अगले #16-17 पदों की व्याख्या समझने जा रहे है। तो चलिए शुरू करते है :
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Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार व्याख्या [#16-17 पद]
Ramchandra Shukla‘ Bhramar Geet Saar – Surdas Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित कृति “भ्रमरगीत सार” के अगले #16-17 पदों की विस्तृत व्याख्या निम्न प्रकार से है :
#पद : 16.
Bhramar Geet Saar – Surdas with Hard Meanings in Hindi
कहौ कहाँ तें आए हौ।
जानति हौं अनुमान मनो तुम जादवनाथ पठाए हौ।।
वैसोइ बरन, बसन पुनि वैसेइ, तन भूषन सजि ल्याए हौ।
सरबसु लै तब संग सिधारे अब कापर पहिराए हौ।।
सुनहु, मधुप! एकै मन सबको सो तो वहाँ लै छाए हौ।
मधुबन की मानिनी मनोहर तहँहिं जाहु जहँ भाए हौ।।
अब यह कौन सयानप ? ब्रज पर का कारन उठि धाए हौ।
सूर जहाँ लौं ल्यामगात हैं जानि भले करि पाए हौ।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | जादवनाथ | यादव कुल के स्वामी श्री कृष्ण |
02. | मधुप | उद्धव |
03. | मधुबन | मथुरा |
04. | सयानप | चतुराई / षड्यंत्र |
व्याख्या :
दोस्तों ! जब उद्धव ब्रज पहुँचते है और गोपियों से वार्तालाप करने के लिये तत्पर है, तब गोपियाँ उनसे प्रश्न कर रही है कि हे उद्धव ! कहिये, आपका किस स्थान से आगमन हुआ है। हमारा अनुमान यह है कि यादव कुल के स्वामी श्री कृष्ण ने आपको मथुरा से भेजा है। और इस अनुमान का आधार यह है कि आपने अपना रूप-रंग और साज सज्जा श्री कृष्ण के समान बना रखी है। आपने अपने शरीर पर श्री कृष्ण के समान ही वस्त्र धारण कर रखे है। और उन्हीं के समान आप अपने शरीर पर आभूषण सजाकर आये है।
श्री कृष्ण हमारा सर्वस्व लेकर यहाँ से मथुरा चले गये है। अब उन्होंने आपको हमारे पास किस प्रयोजन से भेजा है ? अब आप हमसे क्या लेने के लिए यहाँ आये हो ? हे उद्धव ! सुनो, हमारा सबका एक ही मन था, जो श्री कृष्ण अपने साथ लेकर मथुरा चले गये है। मथुरा की नारियां अत्यंत सुन्दर है, इसलिए आप वहां लौट जाओ, वहीँ आपका मन लगेगा। वे ही आपको भाती है और उन्हें तुम भाते हो।
Bhramar Geet Saar – Surdas
दोस्तों ! यहाँ कवि कहना चाहते है कि आसानी से प्राप्त वस्तु के प्रति आकर्षण रह नहीं पाता। गोपियाँ श्री कृष्ण पर अपना तन-मन न्योछावर किये हुये थी। श्री कृष्ण उनसे ऊब कर मथुरा चले गये और वहां उन्हें सुन्दर कुब्जा जैसे स्त्रियां कठिनता से प्राप्त हुई। इसलिए वे उन्हें ही रिझाने में व्यस्त है।
आगे गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव ! अब यहाँ आकर आप कौनसी चतुराई दिखाने आये है ? इसमें तो हमें कोई षड्यंत्र की सी बू आ रही है अर्थात् अपने आने का प्रयोजन बताओ ? हमारा सर्वस्व तो अक्रूरजी पहले ही लेजा चुके है। अब हमारे पास है ही क्या ?, जिसका हरण करने आप आये हो।
गोपियाँ कह रही है कि जहाँ तक श्याम शरीर वालो का सम्बन्ध है, हम तो उन्हें भलीभांति जान गयी है। वे सब मन के खरे और धोखेबाज होते है। काले श्री कृष्ण हमारे मन का हरण करके मथुरा जा बैठे। काले अक्रूरजी श्री कृष्ण के रूप में हमारा सर्वस्व हरण करके ले गये। अब काले शरीर वाले आप किस प्रकार का छल करने आये हो ? दोस्तों ! यहाँ मधुप सम्बोधन से भ्रमरगीत का उपालम्भ प्रारम्भ होता है।
#पद : 17.1.
Bhramar Geet Saar – Surdas Shabdarth Sahit in Hindi – राग नट
ऊधो को उपदेस सुनौ किन कान दै?
सुंदर स्याम सुजान पठायो मान दै।।ध्रुव।।
कोउ आयो उत तायँ जितै नँदसुवन सिधारे।
वहै बेनु-धुनि होय मनो आए नँदप्यारे।।
धाई सब गलगाजि कै ऊधो देखे जाय।
लै आईं ब्रजराज पै हो, आनँद उर न समाय।।
अरघ आरती, तिलक, दूब दधि माथे दीन्ही।
कंचन-कलस भराय आनि परिकरमा कीन्हीं।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | ऊधो | उद्धव |
02. | ब्रजराज | नंद |
03. | दधि | दही |
04. | कंचन-कलस | सोने का कलश |
व्याख्या :
दोस्तों ! इस पद में सूरदास जी ने इस लंबे भ्रमरगीत की संपूर्ण कथा का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया है। प्रारंभ में गोपी उद्धव संवाद, प्रेम और ज्ञान संबंधित विवाद, उसमें गोपियों की विजय, उद्धव की प्रेम भावना से ओतप्रोत होकर मथुरा लौटना और श्री कृष्ण के सामने जाकर प्रेम की महत्ता का वर्णन करना आदि इस पद का प्रमुख वर्ण्य विषय है। इस पद को भ्रमरगीत का सार तत्व कहा जा सकता है।
उद्धव जब ब्रज आते हैं तो सभी गोपिकाये शोर मचाती हुई, उनके सामने प्रकट हुई और उनके शोर में उद्धव की वाणी डूब सी गई। तब उनमें से एक गोपी ने सबको संबोधित करते हुए कहा कि आप सब उद्धव के संदेश को कान देकर या ध्यान देकर क्यों नहीं सुनती ? इन्हें सुंदर, बुद्धिमान, ज्ञानवान श्री कृष्ण ने अत्यंत सम्मान देकर हमारे पास यहां ब्रज में भेजा है।
आगे गोपी कह रही है कि जिस दिशा को श्री कृष्ण यहां से पधारे थे, उसी दिशा से ये आए हैं और श्री कृष्ण की बंसी की जैसी ही सुरीली ध्वनि हो रही है, जिससे यह प्रतीत होता है कि श्री कृष्ण स्वयं यहां पधारे हैं और बंसी बजा रहे हैं। उस गोपी की यह बात सुनकर समस्त गोपियां आनंदित हुई और शोर मचा-मचा कर उनकी ओर दौड़ पड़ी।
वहां उन्हें उद्धव के दर्शन हुए। वे उद्धव को ब्रजराज नंद के पास ले गई। उनके हृदय में आनंद समा नहीं पा रहा था अर्थात् वे सभी अत्यंत प्रसन्न थी। गोपियों ने उद्धव को अर्घ दिया, उनकी आरती उतारी और फिर दूध में दही मिलाकर, उनके माथे पर तिलक लगाया। उसके बाद सोने के कलश में जल भरकर उद्धव की परिक्रमा की ।
#पद : 17.2.
Bhramar Geet Saar – Surdas Bhavarth or Mool Bhaav in Hindi
गोप-भीर आँगन भई मिलि बैठे यादवजात।
जलझारी आगे धरी, हो, बूझति हरि-कुसलात।।
कुसल-छेम बसुदेव, कुसल देवी कुवजाऊ।
कुसल-छेम अक्रूर, कुसल नीके बलदाऊ।।
पूछि कुसल गोपाल की रहीं सकल गहि पाय।
प्रेम-मगन ऊधो भए, हो. देखत व्रज को भाय।।
मन मन ऊधो कहै यह न बूझिय गोपालहि।
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहि।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | भीर | भीड़ |
02. | यादवजात | उद्धव |
03. | जलझारी | जल से भरी हुई सुराही |
04. | कुसल-छेम | कुशलक्षेम |
05. | पाती | पत्रिका |
06. | तारे | नेत्र |
07. | सुधा | अमृत |
08. | नँदनंदन | श्री कृष्ण |
व्याख्या :
उद्धव के आगमन की सूचना पाकर नंद के आंगन में गोप-ग्वालों की भीड़ जमा हो गई। उद्धव उन सब से भेंट करने के बाद बैठ गये। गोपियों ने उद्धव के सम्मुख जल से भरी हुई सुराही रख दी और कृष्ण की कुशलक्षेम पूछने लगी। उसके बाद उन्होंने श्री कृष्ण के पिता वसुदेव, माता देवकी, देवी कुब्जा, अक्रूर जी एवं बलराम जी आदि सभी की कुशलक्षेम पूछी। अंत में पुनः श्री कृष्ण का कुशल समाचार ज्ञात किया और फिर वे उद्धव के चरण पकड़ कर बैठ गई।
दोस्तों ! उद्धव ब्रजवासियों के श्री कृष्ण के प्रति अनन्य दृढ़ प्रेम को देखकर आत्म विभोर हो गए और मन ही मन सोचने लगे कि गोपाल की यह नीति समझ में नहीं आ रही है कि वे ब्रजवासियों के अनन्य प्रेम को विस्मृत कर, उन्हें ज्ञानयोग क्यों सिखाना चाहते हैं ?
पाती बाँचि न आवई रहे नयन जल पूरि।
देखि प्रेम गोपीन को, हो ज्ञान-गरब गयो दूरि।।
तब इत उत बहराय नीर नयनन में सोख्यो।
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरू समोख्यो।।
जो ब्रत मुनिवर ध्यावही पर पावहिं नहिं पार।
सो ब्रत सीखो गोपिका, हो, छाँड़ि विषय-विस्तार।।
व्याख्या :
सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार सोचते हुए उद्धव के नेत्रों में आंसू भर आये और जो पत्रिका श्री कृष्ण ने अपने संदेश के रूप में ब्रजवासियों के लिए भेजी थी, वह उनसे पढी ही नहीं गई। श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को देखकर उनके ज्ञान का गर्व दूर हो गया। सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार उद्धव प्रयत्न कर प्रेम विभोर अवस्था से स्वयं को मुक्त कर पाये और स्वस्थ चित्त होकर अपने योग का उपदेश देने के लिए तत्पर हुये।
तब उन्होंने अपना समस्त बड़प्पन समेटकर ज्ञान उपदेश देने का निश्चय किया। गोपियों के प्रति अपने ज्ञान उपदेश को आरंभ करते हुए उन्होंने कहा कि तुम समस्त सांसारिक विषय के प्रपंचों को त्याग कर उस व्रत का पालन करो, जिसका श्रेष्ठ मुनिगण ध्यान करते हैं। फिर भी उसे पूर्ण रूप से जान पाने में असमर्थ है अर्थात् मैं तुम्हें उस ब्रह्म रुपी व्रत की शिक्षा देना चाह रहा हूं, जिसका पूर्ण रहस्य श्रेष्ठ मुनिगण भी प्राप्त करने में असमर्थ है। अर्थात् मुनिगण चिंतन करने पर भी जिस रहस्य को नहीं जान पाते, मैं उसी रहस्य को तुम्हारे सामने व्यक्त कर रहा हूं।
सुनि ऊधो के बचन रहीं नीचे करि तारे।
मनो सुधा सों सींचि आनि विषज्वाला जारे।।
हम अबला कह जानहीं जोग-जुगुति की रीति।
नँदनंदन ब्रत छाँड़ि कै, हो, को लिखि पूजै भीति।।
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई।
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई।।
व्याख्या :
सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव की इस प्रकार की बातें सुनकर गोपियां स्तब्ध रह गई और नीचे नेत्र करे हुये बैठी रह गई। इस समय उनकी दशा उस लता के समान थी, जिसे पहले अमृत द्वारा सींचा गया हो और फिर विष की ज्वाला में दग्ध कर दिया गया हो।
कवि के कहने का तात्पर्य है कि उद्धव के दर्शन करके गोपियों का मुरझाया मन आनंदित हो उठा था, क्योंकि उनको यह आशा थी कि उन्हें उद्धव से निजी संदेश प्राप्त होगा, किंतु उनके ब्रह्म संबंधित व्याख्यान को सुनकर उनकी यह आशा समाप्त हो गई और वे अत्यंत तीव्र वेदना के कारण दुखी हो गई।
गोपियों के लिए उद्धव के दर्शन तो अमृत के समान जीवन देने वाले थे, किंतु निर्गुण ब्रह्म का उपदेश विष के समान जानलेवा था। इसलिए उद्धव के निर्गुण ब्रह्म संबंधित वचनों को सुनकर गोपियों ने उद्धव से कहा कि हम अबला हैं, योग की युक्ति हमारी समझ से बाहर है। श्री कृष्ण के प्रेम व्रत को तोड़कर क्या हम ऐसी मूढ़ है, जो दिवार पर चित्र खींचकर निर्गुण ब्रह्म की पूजा करे ?
Bhramar Geet Saar – Surdas
अर्थात् हम तो साक्षात ब्रह्म के प्रतिरूप को जानती हैं और उससे प्रेम करती हैं, फिर उनसे विमुख होकर तुम्हारे ब्रह्म के काल्पनिक चित्र अथवा वास्तविक ब्रह्म को छोड़कर नकली ब्रह्म की पूजा करें, ऐसी मूर्ख हम नहीं है।
आगे गोपियां कहती हैं कि तुम्हारा ब्रह्म अजाना है, अगम्य, अज्ञेय और आदि रूप में जाना जाता है, फिर भी आप कहते हो कि उसे जान लेना संभव है। वह संसार में आदि निरंजन के नाम से सबको विदित है, विख्यात है। फिर भी भक्तजन उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी पूजा अर्चना करते हैं अर्थात् जो तुम्हारे मत के अनुसार सुख-दु:ख से ऊपर है, उसे किस प्रकार पूजा अर्चना द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है ?
दोस्तों ! कवि यहां यह कहना चाहता है कि जब उद्धव का ब्रह्म गोपियों के मत में इतना अज्ञेय है तो उसकी उपासना में इतना समय नष्ट करने का क्या लाभ है ?
दोस्तों ! आज हमने Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार के 16 और 17वें पद से कुछ पदों की विस्तृत व्याख्या समझी। उम्मीद है कि आपको पढ़कर मजा आया होगा। 17वाँ पद भ्रमर गीत सार का राग नट है और ये पद अत्यधिक लम्बा है, इसके शेष भाग को हम अगले नोट्स में पूरा करेंगे। धन्यवाद !
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या“ के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
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