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Bhramar Geet Saar Vyakhya in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या
Bhramar Geet Saar Pad Vyakhya Bhaav in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या : नमस्कार दोस्तों ! आज के अध्याय में हम रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” के अगले 63-65 पदों को समझेंगे। तो चलिए विस्तार से व्याख्या जानते है :
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भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Vyakhya in Hindi [पद #63-65]
Bhramar Geet Saar Pad Arth Vyakhya 63-65 in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या : दोस्तों ! “भ्रमरगीत सार” के 63-65 पदों की व्याख्या कुछ इसप्रकार होगी :
#पद : 63.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Vyakhya Raag Malaar Meaning in Hindi
राग मलार
बातन सब कोऊ समुझावै।
जेहि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न वतावै।।
जद्यपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै।
तद्यपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै।।
बासर-निसा प्रानबल्लभ तजि रसना और न गावै।
सूरदास प्रभु प्रेमहिं लगि करि कहिए जो कहि आवै।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | बातन | बातों द्वारा |
02. | पचि | थक गई |
03. | अनत | अन्यत्र |
04. | बिरमावै | विश्राम करते हैं |
05. | भावै | अच्छा लगता है |
06. | बासर-निसा | रात-दिन |
07. | तजि | त्याग, छोड़कर |
08. | रसना | जिह्वा |
09. | लगि | नाते से |
व्याख्या :
दोस्तों ! गोपियाँ उद्धव के उपदेश पर खींझ उठती हैं और कहती हैं कि सब लोग बातों से ही हमें समझाने का प्रयास कर रहे हैं। बातों-बातों में ही रिझाना जानते हैं, किंतु कोई भी ऐसा उपाय नहीं बताता, जिससे श्री कृष्ण से हमारा मिलन संभव हो जाये। हम तो श्री कृष्ण के दर्शन की प्यासी हैं, किंतु लोग हमें श्री कृष्ण के दर्शन का उपाय न बताकर केवल बातों से ही हमारा परितोष करना चाहते हैं।
आगे गोपियाँ कहती हैं कि हमने श्री कृष्ण से मिलने के अनेक प्रयत्न किये, किंतु वे कहीं अन्यत्र अर्थात् कुब्जा के पास मथुरा में आनंदपूर्ण विहार करते रहे और उन्होंने हमारी कोई खोज खबर नहीं ली। इतना होने पर भी हमारे जो हठीले नेत्र हैं, वो श्री कृष्ण के दर्शनों के प्यासे हैं। उन्हें कुछ और देखना अच्छा ही नहीं लगता। हमारी ये जीभ रात-दिन श्री कृष्ण के गुणों का गान करती रहती है और उनको छोड़कर किसी और के गुणों को गाने में इसका मन नहीं लगता।
सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कह रही है कि हे उद्धव ! तुम हमारे श्रीकृष्ण-प्रेम को चाहे जो समझो और चाहे जो कहो। इससे हमारे लिए कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। हम तो मन-वचन और कर्म से उस श्री कृष्ण की ही अनुरागिनी है। इसलिए तुम्हारी बातों का, तुम्हारे उपदेशों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।
#पद : 64.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Vyakhya Raag Saarang with Hard Meaning in Hindi
राग सारंग
निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी।।को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन भेस है कैसो केहि रस में अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गाँसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | बासी | निवासी |
02. | मधुकर | भ्रमर |
03. | सौंह दै | सौगंध देकर |
04. | बूझति | पूछती हैं |
05. | साँच | सत्य बात |
06. | हाँसी | हँसी नहीं कर रही |
07. | जनक | पिता |
08. | जननि | माता |
09. | नारि | पत्नी |
10. | दासी | सेविका |
11. | बरन | वर्ण, रंग |
12. | भेस | वेशभूषा |
13. | गाँसी | कपट की बात |
14. | मति | बुद्धि, विवेक |
15. | नासी | नष्ट हो गई |
व्याख्या :
दोस्तों ! सूरदास जी कह रहे हैं कि गोपियाँ उद्धव से निर्गुण ब्रह्म के विषय में अत्यंत मनोरंजक प्रश्न पूछकर हंसी उड़ा रही है। गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव से पूछ रही हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारा यह निर्गुण किस देश में निवास करता है ? कहां का रहने वाला है ? उसका पता ठिकाना क्या है ? हे मधुकर ! हम कसम खाकर कहती हैं कि हमें नहीं पता कि वह कहां रहता है ? किस देश में निवास करता है ?
हम तुमसे सच-सच पूछ रही हैं। कोई हँसी मजाक नहीं कर रही, इसलिए इस निर्गुण ब्रह्म के निवास के बारे में ठीक-ठीक बता दो। तुम हमें बताओ कि तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म का पिता कौन है ? उसकी माता कौन है ? उसकी पत्नी कौन है और उसकी दासी कौन है ? जो तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म है, उसका रूप-रंग, उसकी वेशभूषा किस प्रकार की है ? और उसकी रुचि किस प्रकार के कार्यों में है ?
आगे गोपियाँ उद्धव को सावधान करते हुये कहती हैं कि हे उद्धव ! सुन लेना, यदि तुमने अपने निर्गुण के बारे में कोई झूठी बात कही या कोई कपटपूर्ण बात कही तो फिर इस करनी का फल भी तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।
दोस्तों ! गोपियों के मुंह से इस प्रकार की बातें सुनकर उद्धव ठगा सा रह गया अर्थात् मौन रह गया। गोपियों की इस प्रकार की चतुराईपूर्ण बातों को सुनकर उद्धव मौन खड़े रह गये। उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उनका समस्त ज्ञान-विवेक उनका साथ छोड़ गया हो।
दोस्तों ! यह पद व्यंग्य-काव्य का बहुत सुंदर उदाहरण है। संपूर्ण पद में गोपियों का उद्धव के प्रति व्यंग्य-भाव परिलक्षित हुआ है।
#पद : 65.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Vyakhya Raag Kedaro Shabdarth Sahit in Hindi
राग केदारो
नाहिंन रह्यो मन में ठौर।
नंदनंदन अछत, कैसे आनिए उर और?
चलत, चितवत, दिवस जागत, सपन सोवत राति।
हृदय तें वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति।।
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय।
कहा करौं तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय।।
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास।
सूर ऐसे रूप-कारन मरत लोचन प्यास।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | नाहिंन | नहीं है |
02. | ठौर | स्थान |
03. | अछत | रहते हुए |
04. | आनिए | लाए |
05. | उर | ह्रदय |
06. | दिवस | दिन |
07. | राति | रात |
08. | छन | एक पल भी |
09. | इत | इधर |
10. | उत | उधर |
11. | लोक-लाभ | सांसारिक लाभ |
12. | समाय | समाहित होना |
13. | गात | शरीर |
14. | सरोज- आनन | कमल के समान मुख |
15. | ललित | आकर्षक |
16. | हास | हंसी |
17. | रूप-कारन | रूप के लिए |
18. | लोचन | नेत्र |
व्याख्या :
दोस्तों ! सूरदास जी कह रहे हैं कि निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में अपनी विवशता प्रकट करते हुये गोपियां उद्धव से कह रहे हैं कि हमारे मन में किसी के लिये स्थान नहीं रहा है। हे उद्धव ! तुम ही बताओ कि नंदनंदन श्री कृष्ण के इस ह्रदय में रहते हुये किसी अन्य को अर्थात् निर्गुण ब्रह्म को हम अपने हृदय में कैसे ला सकती हैं ? इसलिए हे उद्धव ! तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं।
हमें तो चलते-फिरते इधर-उधर देखते, दिन में, जागृत अवस्था में तथा रात को सोते समय, स्वप्नावस्था में भी श्रीकृष्ण की ही मधुर मूर्ति लुभाती रहती है। हमारे हृदय से यह मोहनी मूरत क्षणभर के लिए भी इधर-उधर नहीं जाती, ओझल नहीं होती। हम तो जीवन की प्रत्येक अवस्था में श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न रहती हैं।
Bhramar Geet Saar Vyakhya in Hindi
आप योग एवं निर्गुण ब्रह्म के संबंध में अनेक कथाएं सुनाकर, हमें सांसारिक लाभ का मार्ग सुझा रहे हैं और हमारे लिये मोक्ष प्राप्ति का साधन उपलब्ध करा रहे हैं, किंतु हम क्या करें ? हम आपके इस मार्ग को नहीं अपना सकते। हम तो श्री कृष्ण प्रेम के लिये पुनः शरीर धारण करने के लिए भी तैयार हैं, क्योंकि हमारा यह तन श्री कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण है।
जिस प्रकार सागर का जल एक छोटे से घड़े में नहीं समा सकता, उसी प्रकार हमारे इस छोटे से ह्रदय में तुम्हारा अनंत ब्रह्म नहीं समा सकता है। हे उद्धव हमारे ! श्री कृष्ण का शरीर सावंला है, मुख सुंदर एवं मनमोहक है, उनकी हँसी मधुर और बरबस अपनी ओर खींचने वाली है, इसलिए हमारे नेत्र श्री कृष्ण की ऐसी रूप-माधुरी का पान करके तृप्त होने के लिए व्याकुल बने रहते हैं।
दोस्तों ! प्रस्तुत पद में गोपियों की श्री कृष्ण प्रेमविषयक विवशता, एकांत दृढ़ प्रेम की अभिव्यक्ति मार्मिक रूप से प्रस्तुत हुई है।
इसप्रकार आज हमने भ्रमरगीत सार के 63-65 पदों को अच्छे से जाना और समझा। कुछ नये पदों के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक बने रहिये हमारे के साथ।
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
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