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Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे
दोस्तों! आज हम RPSC कॉलेज लेक्चरर पाठ्यक्रम में लगे कबीर ग्रंथावली के “Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग” का अध्ययन करने जा रहे है। आज के नोट्स में इसके प्रारंभिक 20 पदों की व्याख्या शब्दार्थ सहित प्रस्तुत कर रहे है। इन दोहों का अर्थ करने से पहले हम इसके मुख्य भावार्थ को समझने का प्रयास करेंगे।
भावार्थ को समझना जरूरी इसलिए है, क्योंकि भावार्थ को लेकर परीक्षा में कई प्रश्न पूछे जाते है। इसके भावार्थ को आप कुछ इस तरह से समझ सकते है :
जैसे हमने पिछली बार गुरुदेव कौ अंग में देखा था कि ज्ञान प्राप्ति के लिए जिस प्रकार एक सच्चे गुरु की आवश्यकता होती है। ठीक उसी प्रकार विरह कौ अंग में कबीर दास जी कहते है कि यदि आप प्रेम को पूर्ण रूप से पाना चाहते है तो आपके प्रेम में विरह का होना भी अति आवश्यक है।
Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग का भावार्थ या मूल भाव
Virah Ko Ang – Kabir Dohe Bhavarth / Mool Bhav in Hindi : कबीर दास जी कहते है कि विरह के द्वारा ही आत्मा परमात्मा की ओर अधिक दृढ़ता के साथ उन्मुख होती है। इसलिए भक्ति काव्य में विरह का विधान किया गया होता है, चाहे वो काव्य सगुण हो या निर्गुण। “विरह कौ अंग” में भी कबीर ने परमात्मा के प्रभाव में, उसके दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा में, आत्मा के विरह का वर्णन किया है।
कबीर दास जी कह रहे है कि उनकी आत्मा क्रौंच पक्षी की तरह ही अपने प्रियतम से मिलने के लिए चीत्कार कर रही है। क्रौंच पक्षी तो फिर भी सुबह आपस में मिल जाते हैं। उनकी विरह व्यथा तो कुछ समय के लिए ही रहती है, परंतु परमात्मा से भी बिछुड़ी आत्मा का विरह तो अनंत है, मिटता ही नहीं है।
अर्थात् जो मन प्रभु से बिछड़ जाता है। ऐसा मन प्रभु से कभी मिल ही नहीं पाता है। विरह की इसी व्याकुलता के कारण आत्मा इतनी व्याकुल हो जाती है। विरहिणी आत्मा अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल है। वह दिन-रात अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में पथ पर खड़ी रहती है। अपने प्रियतम के बिना उसे पल भर भी चैन नहीं मिलता है।
आत्मा रूपी विरहिणी अपने प्रियतम के दर्शन के लिए उठती भी है तो फिर गिर पड़ती है। उसकी अवस्था मृतप्राय हो गई है और यदि मरने के बाद प्रभु की प्राप्ति हो भी जाती है तो उससे कोई लाभ नहीं होगा। विरह की यह पीड़ा बड़ी ही अद्भुत होती है। इसका चाहे जो उपचार करो, यह वेदना कम नहीं होती है।
Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग के दोहों की व्याख्या
कबीर दास जी की इसी विरह वेदना का अनुभव हम “Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग” के अगले 20 पदों में देखेंगे। आज हम इसके 10 दोहों का अध्ययन करने जा रहे है :
दोहा : 1.
रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
रात्यूँ | रात भर |
अंतर | हृदय |
पुंज | समूह |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि मेरी आत्मा रूपी विरहिणी, जो परमतत्त्व के विरह में रातभर रोती रहती है। अर्थात् मेरी आत्मा परमात्मा के विरह में रातभर रोती रहती है। जिस प्रकार विरह से युक्त क्रौंच पक्षी चित्कार करता रहता है, उसी प्रकार विरह के समूह के प्रकट हो जाने से ह्रदय मे वियोग की ज्वाला भर जाती है। विरह के कारण मेरा अंतर्मन जल रहा है।
विशेष : रूढ़ मिथ्य का प्रयोग हुआ है।
दोहा : 2.
अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल।
जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
अंबर | आकाश |
हवाल | रक्षक |
अर्थ :
आकाश में बादलों ने क्रौंच और कुरल पक्षियों के विरहानुभूति पर करुणा करके बारिश कर दी है। और समस्त तालाब जल से भर दिए हैं। इन विरहियों की पुकार तो बादल ने सुन ली, किंतु जो प्रभु से बिछुड़े हैं, उनका रक्षक तो स्वयं प्रभु ही है और कोई नहीं है। अर्थात् उसकी विरहानुभूति को तो वही शांत कर सकता है और दूसरा कोई नहीं।
विशेष : व्यतिरेक अलंकार ध्वनित है।
दोहा : 3.
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
बिछुटी | बिछुड़ी |
परभाति | प्रभात, सुबह |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि रात में बिछुड़ी एक चकवी अपने चकवे से सुबह होने पर मिल ही जाती है। परंतु राम से जो लोग बिछुड़ जाते हैं, ऐसे लोग तो दिन या रात कभी भी राम से मिल नहीं पाते हैं।
दोहा : 4.
बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि।
कबीर बिछुट्या राम सूँ, ना सुख धूप न छाँह ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
बासुरि | दिन |
सुपिनै | स्वप्न |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि राम वियोगी को न दिन में और न रात में सुख है। और सोने के बाद स्वप्न में भी उसे अपने प्रियतम की वियोग व्यथा ही दुखी किए रहती है। चाहे धूप या छांह जो भी हो, उसे सुख प्राप्त कहीं भी नहीं होता है।
दोहा : 5.
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
ऊभी | खड़ी हुई |
पंथ सिरि | मार्ग के किनारे |
कब रे | कब |
अर्थ :
कबीर जी कहते है कि विरहिणी मार्ग में प्रियतम की प्रतीक्षा में खड़ी है। और आते-जाते पथिक से जिस प्रकार उत्कंठा से भरी हुई, प्रिय के आगमन का समाचार पूछती है, उसी प्रकार अपने गुरु से प्रिय (ब्रह्म) की चर्चा सुनती हुई, यह जानना चाहती है कि प्रभु से कब भेंट होगी।
विशेष : प्रस्तुतालंकार है।
दोहा : 6.
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम ।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
बाट | प्रतीक्षा |
जिव | प्राण |
अर्थ :
विरहिणी आत्मा कह रही है कि हे राम ! हे प्रभु ! मैं आपकी प्रतीक्षा बहुत दिनों से कर रही हूं। मेरे प्राण आपके दर्शन के लिए व्याकुल हैं और मन आपके दर्शन के बिना व्यथित हो रहा है।
दोहा : 7.
बिरहिन उठै भी, पडै दरसन कारनि राम ।
मूंवा पीछै देहुगे, सोदरसन कीहिं काम।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
मूंवा | मरने पर |
सोदरसन | सुदर्शन |
अर्थ :
विरहिणी आत्मा कह रही है कि हे राम ! आपके दर्शन की उत्सुकता से विरहिणी यदि उठती भी है तो अत्यंत क्षीणकाय (दुर्बल) होने के कारण गिर पड़ती है। अर्थात् राम के विरह से यह अत्यंत कमजोर और कृशकाय हो गई है। यदि मरणोपरांत उसे रोग निवारक सुदर्शन चूर्ण भी दिया अर्थात् अपने सौंदर्य रूप के दर्शन दिए भी तो उसका क्या लाभ होगा।
दोहा : 8.
मूंवा पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम ।
पाथर घाटा लोह सब, तब पारस कोणै काम।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
मूंवा | मृत्यु |
जिनि | यदि |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि यदि आपके दर्शन मुझे मृत्यु के पश्चात होते हैं तो वह किस काम के। उनका क्या प्रयोजन रह जाएगा । वह तो उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार पारस पत्थर की प्राप्ति के लिए, लोहे को प्रत्येक पत्थर से घिस कर समाप्त कर दें और तब उसे पारस पत्थर की प्राप्ति हो।
विशेष : प्रस्तुतालंकार है।
दोहा : 9.
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां ।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
अंदेसड़ा | अंदेशा, आशंका |
भाजिसी | नष्ट होता है |
अर्थ :
विरहिणी आत्मा किसी दूत से कह रही है कि मेरी प्रियमिलन में असफलता की आशंका नष्ट नहीं हो रही है अतः प्रभु राम से कहना कि या तो स्वयं मेरे पास शीघ्र आए अथवा फिर मुझे ही उनके पास आना पड़ेगा ।
विशेष : प्रस्तुतालंकार है।
दोहा : 10.
आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ।
जियरा यौं ही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
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जियरा | जीव, प्राण |
लेहुगे | लोगे |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं की बिरहणी आत्मा कहती है कि हे राम ! मैं आपके पास भी नहीं आ सकती, क्योंकि अभी मैं इतनी समर्थ भी नहीं हूँ। भाव यह है कि मैं अभी माया-मोह से लिप्त हूँ।
और आपको अपने पास बुला भी नहीं सकती, क्योंकि मैं अभी सर्वात्म समर्पण नहीं कर सकी, जो आपको आकृष्ट करके अपने पास तक बुला सकूँ। अतः मुझे तो अब यही लग रहा है कि आप मेरे प्राणों को इसी प्रकार तपाते तपाते समाप्त कर दोगे।
विशेष : विप्रलम्भ श्रृंगार का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत हुआ है।
इसप्रकार दोस्तों ! आज आपने “Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे” के 10 दोहों का मूल भाव तथा प्रत्येक दोहे की अच्छे से व्याख्या समझ ली है। उम्मीद है कि आपको अब इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। आप इन्हें ठीक से समझकर तैयार कर लीजिये। ताकि परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों का ठीक से जवाब दे सके।
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Virah Ko Ang – Kabir Dohe | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे“ के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
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