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Virah Ko Ang | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे (11-20)
नमस्कार दोस्तों ! पिछले नोट्स में हम “विरह कौ अंग” के 1 से 10 तक के दोहों को विस्तारपूर्वक पढ़ चुके है। और हमें यकीन है कि आपको ये अच्छे से समझ भी आ गए होंगे। आज इसी क्रम में “Virah Ko Ang | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे” के अगले 11 से 20 तक के दोहों की व्याख्या हम करने जा रहे है। इसके साथ ही हम इसके मूलभाव या सार को भी समझने की कोशिश करेंगे।
Virah Ko Ang | विरह कौ अंग का मूल भाव या सार
Virah Ko Ang Ka Mool Bhav / Saar in Hindi : कबीर दास जी के साहित्य में रहस्यवाद की विचारधारा मिलती है। जब परमात्मा या जो अज्ञात प्रियतम है, उसके प्रति प्रेम का भाव रखना, जिज्ञासा का भाव रखना और मिलन न होने पर विरह का अनुभव करना, ये रहस्यवाद कहलाता है।
विरह कौ अंग” के दोहे रहस्यवाद के दोहे हैं। परमात्मा के न मिलने के कारण, उनकी आत्मा विरह का अनुभव करती है।अपनी आत्मा के इसी विरह का कबीर दास जी ने इसमें वर्णन किया है। जिस तरह चकवा पक्षी रात को अपनी चकवी से बिछड़ जाता है और बिछड़ने से विरह का अनुभव करता है तथा वह सारी रात चांद को देखता रहता है, पर सुबह होने पर चकवी तो चकवे से मिल जाती है, परंतु जो सांसारिक जीव है, वे यदि राम से बिछड़ जाए तो उनका फिर से मिल पाना मुश्किल हो जाता है।
अर्थात् जो जीवात्मा राम से बिछड़ जाती है, वह वे जीवात्मायें परमात्मा से न तो दिन में मिल पाती है और न ही रात में। विषयवासनाओं का पर्दा जब तक उनकी आंखों पर पड़ा रहता है, तब तक वे परमात्मा से मिलन नहीं कर पाती है और विरह में ही जलती रहती है।
विरह की तीव्रता का अनुभव :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि विरह का दु:ख बड़ा ही अनोखा और विलक्षण होता है, क्योंकि इसमें न तो विरहिणी प्रियतम तक जा सकती है और न प्रियतम ही उससे मिलने आता है। इस प्रकार विरहिणी का मन विरह की अग्नि-ज्वाला में जल-जल कर भस्म होता रहता है। ऐसी अवस्था में विरहिणी के पास केवल एक ही उपाय रह जाता है कि वह अपने शरीर को विरहाग्नि में जलाकर भस्म कर दें और अपने धुँए को स्वर्ग तक पहुंचा दें। हो सकता है कि उस धुँए को देखकर ही प्रियतम के मन में करुणा का भाव आ जाए।
विरह की पीड़ा बड़ी ही अद्भुत होती है। इसका चाहे जो भी उपचार किया जाए, यह कम नहीं होती है। इस वेदना का अनुभव केवल दो व्यक्ति ही कर सकते हैं। एक तो जिसे वेदना हो रही है और दूसरा वह जिसने वेदना दी है। यह विरह उस सर्प के समान है, जिसके जहर को कोई मंत्र नहीं उतार सकता।
स्थिति यह है कि राम का वियोगी जीवित ही नहीं रह सकता । वस्तुतः प्रेम के क्षेत्र को कोई भुक्तभोगी ही अनुभव कर सकता है । इतना पीड़ादायक होने पर भी इस विरह को बुरा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि जिसके हृदय में इसका संचार नहीं होता अर्थात् जो हृदय कभी विरह का अनुभव नहीं करता, वह तो श्मशान के समान शून्य और भयानक है ।
अतः कबीर इसी विरह की तीव्रता का अनुभव (वर्णन) करते हुए कहते हैं कि प्रियतम से मिलने का और प्रेम को परिपूर्ण करने का केवल एक ही मार्ग है — प्रियतम के विरह में निरंतर चलते रहना । इसलिए पूर्ण प्रेम को पाने के लिए विरह का होना आवश्यक है।
Virah Ko Ang | विरह कौ अंग के दोहों की व्याख्या
आज हम कबीर जी की आत्मा की विरह वेदना का अनुभव “Virah Ko Ang | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे ” के 11-20 दोहों में करने जा रहे है। इनकी व्याख्या इसप्रकार से है :
दोहा : 11.
यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
मसि | क्षार, राख |
सरग्गि | स्वर्ग |
मति | संभव है |
अग्गि | आग |
अर्थ :
विरहिणी कह रही है कि विरह की इस असहनीय अवस्था में यह इच्छा होती है कि मैं अपना यह शरीर भस्म या जलाकर राख कर दूं। जिससे मेरी अस्थियों का धुँआ आकाश में फैलेगा। तो हो सकता है कि दयानिधि राम दया करके अपनी कृपा दृष्टि डालकर इस अग्नि को बुझा देवें।
विशेष : यहाँ प्रस्तुत अलंकार है तथा वियोग श्रृंगार का उत्तम उदाहरण है।
दोहा : 12.
यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
करंक | अस्थि |
पठाउँ | भेजूँ |
अर्थ :
विरहिणी कहती है कि मेरी यह इच्छा होती है कि इस शरीर को जलाकर स्याही बना लूं और अस्थियों की लेखनी बनाकर इससे राम का नाम लिखूं और लिख-लिख कर अपने प्रभु राम को भेजूँ। हो सकता है कि इस कार्य से प्रसन्न होकर वह मुझे दर्शन दे देवें।
विशेष : यहाँ प्रस्तुत अलंकार है तथा विप्रलम्भ श्रृंगार का सुंदर परिपाक हुआ है।
दोहा : 13.
कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।
एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
पीर | वेदना |
पिरावनीं | कसक पूर्ण |
पंजर | शरीर |
परीति | प्रीति |
अर्थ :
कबीरदास जी कहते हैं कि पीड़ा बड़ी वेदना पूर्ण होती है। शरीर की पीड़ा ही इतनी कसकमय होती है कि उपचार करने के बाद भी नहीं जाती है। फिर प्रेम की जो पीड़ा है, वह तो सर्वथा ही उपचार से बाहर की चीज हैहै। वही असहनीय पीड़ा मेरे हृदय में समा गई है।
दोहा : 14.
चोट सताणी बिरह की, सब तन जर-जर होइ।
मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
सताणी | व्यथित करती है। |
जर-जर | जीर्ण |
अर्थ :
कबीरदास जी कहते हैं कि विरह की चोट बहुत व्यथित करती है। इसकी वेदना से शरीर कृशकाय हो जाता है। इस पीड़ा का अनुभव केवल दो लोगों को ही होता है। एक तो उसको, जो उसे भोग रहा है तथा दूसरा उसको, जो इस पीड़ा को प्रदान करता है।
विशेष : यहाँ प्रस्तुत अलंकार और वियोग श्रृंगार है।
दोहा : 15.
कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्या माँहि।
भीतरि भिद्या सुमार ह्नै, जीवै कि जीवै नाँहि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
साँधि करि | साधकर |
सुमार | गहरी चोट |
अर्थ :
कबीर दास जी कह रहे हैं कि भगवान (राम) रूपी प्रियतम ने हाथ में धनुष धारण कर ऐसा प्रेम बाण खींचकर मारा है कि वह बाण मेरे हृदय के आर-पार ही हो गया है। और मेरा हृदय प्रेम से भर गया है।
उनके प्रेम रूपी बाण की चोट इतनी गहरी लगी है कि मेरा जीवन जन्म और मरण के बीच झूल रहा है। भाव यह है कि प्रभु राम तो उसे अपनी ओर खींचते है, जबकि सांसारिक माया-मोह का आकर्षण अपनी ओर खींचता है। इसलिए स्थिति बहुत विकट हो गई है।
विशेष : यहाँ रूपक के द्वारा क्रिया-बिम्ब गठित हुआ है, जिससे वियोग का परिपाक हुआ है।
दोहा : 16.
जबहूँ मार्या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि।
लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा छाँणि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
जाँणि | जान, ज्ञान |
मरम्म | मर्मान्तक |
छाँणि | बींधना, आर-पार |
अर्थ :
कबीर जी कहते है कि जब मेरे गुरुदेव ने अपने उपदेश द्वारा प्रेम रूपी बाण पूर्ण शक्ति के साथ खींचकर चलाया। तभी मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस प्रेम बाण की गहरी या मर्मान्तक चोट मेरे हृदय के आर-पार हो गई। भाव यह है कि प्रेम से तन-मन बींध गया।
विशेष : यहाँ विप्रलम्भ श्रृंगार के परिपाक में रुपकातिशयोक्ति अलंकार सहायक हुआ है।
दोहा : 17.
जिहि सर मारी काल्हि, सो सर मेरे मन बस्या।
तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
सर | बाण |
सच | सुख-शांति |
अर्थ :
हे गुरुदेव! जिस प्रेम रूपी बाण से मुझ पर चोट की, वह बाण मेरे मन में बस गया है। वह बाण स्वर-वाणी अर्थात् उपदेश का था। वही वाणी रूपी बाण मुझे आज भी मारता है, क्योंकि उसके बिना मुझे कहीं शांति नहीं मिलती।
विशेष : यहाँ विरोधाभास अलंकार है।
क्योंकि जो बाण शरीर को बींधता है, वही प्रिय लग रहा है।
दोहा : 18.
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
भुवंगम | साँप |
बौरा | पागल |
अर्थ :
यह विरह रूपी सर्प शरीर की बांबी में घुसा बैठा है। उसे कोई भी मंत्र बाहर निकालने में सक्षम नहीं हो सकता। प्रभु राम से बिछुड़ा या प्रभु का वियोगी तो जीवित ही नहीं रह सकता। वह जीवन मुक्त हो जाता है और यदि जीवित रहता है तो कर्तव्यों आदि से पूर्ण विरक्त हो जाता है। जिससे लोग उसे पागल कहने लगते है।
विशेष : 1. प्रथम पंक्ति में, विरह की तुलना साँप पकड़ने की क्रिया से की है।
बांबी से सर्प को मंत्र बल से निकालकर वशीकरण किया जाता है।
विशेष : 2. यहाँ रूपक अलंकार है।
दोहा : 19.
बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
पैसि करि | प्रवेश कर |
अंग न मोड़ही | विचलित नहीं होते |
अर्थ :
विरह रुपी सर्प ने शरीर में प्रवेश कर ह्रदय में घाव कर लिया है, परंतु ऐसी पीड़ा से साधुजन विचलित नहीं होते। जैसे उसकी इच्छा होती है, उस रूप में उसे अपने को खाने देते हैं। अर्थात् भाव यह है कि साधुजन या साधक विरह की कठोर यातनाओं से पथ विचलित नहीं होते हैं।
विशेष : यहाँ रूपक अलंकार है।
दोहा : 20.
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
रग | रग, शिराएं |
तंत | पशु चर्म निर्मित तांत, जो तंत्री में प्रयुक्त होती है। |
रबाब | इकतारे के समान तंत्री, जिसे जोगी बजाते फिरते हैं। |
अर्थ :
शरीर रूपी तंत्री पर शिराओं रूपी तांतो को विरह नित्य बजाता है। विरह वेदना से शिरोपशिराएं झंकृत रहती है। इससे निस्सृत संगीत को कोई तीसरा नहीं सुन सकता। या तो उसे प्रियतम ही सुन सकते हैं, या मेरा हृदय ही इस प्रेम के अनुभव को महसूस कर सकता है। इसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है।
विशेष : यहाँ रूपक अलंकार और विप्रलम्भ श्रृंगार है।
इसप्रकार दोस्तों ! कबीर दास जी ने “Virah Ko Ang | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे (11-20)” दोहों में विरह के अनुभव को बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया है। आप भी इन दोहों को समझने के बाद आत्मा की विरह वेदना को अवश्य ही समझ पाए होंगे। अगर आपने पिछले 10 दोहों का अध्ययन नहीं किया तो आप उन्हें भी अच्छे से समझ लेवें।
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Virah Ko Ang | विरह कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे (11-20)“ के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
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