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Vinay Patrika Pad 153-155 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 153-155 Vyakhya by Tulsidas in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! जैसाकि हम श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “विनय-पत्रिका” के पदों का अध्ययन कर रहे है। आज हम इसके अगले 153-155वें पदों की व्याख्या को समझेंगे। तो आइए इन पदों को विस्तार से पढ़ते है :

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 153 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 153 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 153वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 153 Ki Vyakhya in Hindi

मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाऊँ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ।।1.।।

है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ।
बानर-बंधू विभीषण-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ।।2.।।

प्रनतारति-भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ।।3.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी इस पद में कह रहे हैं कि हे राम जी ! हे रघुनाथ जी ! मेरी दौड़ तो केवल आप तक ही है। केवल आपकी ही शरण है, क्योंकि निर्लज्ज, नीच, निर्धन एवं मूर्ख के लिये आपको छोड़कर इस संसार में कोई ठिकाना नहीं है और ना कोई स्वामी है। वह कहाँ जाये, इसलिए मुझे तो आपकी ही शरण है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि वैसे तो हर घर अर्थात् घर-घर में बहुत से स्वामी है, परंतु उन सबको अपना ही दु:ख दिखता है। वह अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, लेकिन मैं तो बंदरों के मित्र एवं विभीषण के हितकारी और कोसलपाल श्रीरामचंद्र जी को छोड़कर कहीं भी शरण नहीं पा सकता। मेरी पूछ और किसी साहिब के घर नहीं हो सकती।

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि आपका नाम भक्तों के दु:ख और संताप का नाश करने वाला है। सेवकजनों को सुख प्रदान करने वाला और शरणागत के लिए वज्र निर्मित पिंजरे के समान है अर्थात् वह कवच के समान है। आप इस तुलसीदास को अपना दास बना लीजिए।

हे कृपा के सागर ! अब मैं आपके हाथ बिना मोल के बिक जाना चाहता हूँ। कहने का भाव यह है कि मैं आपका निष्काम सेवक बनना चाहता हूँ। मैं अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध नहीं करना चाहता हूँ।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 154 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 154 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 154वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Ke Pad 154 Ki Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

देव! दूसरो कौन दीनको दयालु।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु।।1.।।

को समरथ सरबग्य सकलप्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु।
को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु।।2.।।

नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोष-गुन-करम-कालु।
तुलसीदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु।।3.।।

व्याख्या :

दोस्तों ! इस पद में तुलसीदास जी कहते हैं कि हे देव ! आपके अतिरिक्त दीनों पर दया करने वाला कौन है ? आप ही शीलनिधान, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शरणागतों के प्यारे एवं भक्तजनों को पालने वाले हैं।

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि आपके सामान सर्वशक्तिमान कौन हैं ? आप सर्वज्ञ हैं। आप शिव जी के प्यारे हैं अर्थात् शिव जी के प्रेम रूपी सरोवर में विहार करने वाले हंस हैं। आप शिवजी के प्रेम-अधीन होकर सदैव उनके हृदय में निवास करते हैं।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि किस मालिक ने प्रेम के वशीभूत होकर पक्षी अर्थात् जटायु, राक्षस अर्थात् विभीषण, बंदर, भील अर्थात् निषाद एवं भालुओं को अपना मित्र बनाया है। ऐसा कौन मालिक है ? भाव ये है कि ऐसे केवल एक भी श्रीरघुनाथ जी ही हैं, कोई अन्य नहीं है।

आगे तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे नाथ ! तुलसीदास जैसा भी है, चाहे वह भला है या बुरा है। केवल आपका ही है। थोड़ा इसकी ओर देखकर इसको निहाल कर दीजिए।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 155 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pad 155 Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 155वें पद की व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 155 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

बिस्वास एक राम-नामको।
मानत नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको।।1.।।

पढ़िबो परयो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को?।।2.।।

करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको।
ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको।।3.।।

व्याख्या :

इस पद में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मुझे तो केवल श्रीराम नाम पर ही विश्वास है और कुटिल मन की प्रकृति ही कुछ ऐसी है। वह और कहीं प्रतीति ही नहीं करता है, क्योंकि उसे रघुनाथ जी श्रीराम जी का ही विश्वास है।

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि छः शास्त्रों के सिद्धांतों तथा यजुर्वेद, ऋग्वेद, अथर्ववेद और सामवेद को पढ़ना मेरे भाग्य में नहीं है। मेरे लिये काला अक्षर भैंस बराबर अर्थात् मैं अनपढ़ हूँ। मुझे कुछ समझ नहीं है। व्रत, तीर्थ, तप आदि सब सुनकर मेरा मन डर रहा है कि इन साधनों में लगकर कौन अपने शरीर को क्षीण करें ?

यह सब कर्मकांड कलयुग में कठिन है और वह द्रव्य के अधीन भी है अर्थात् भाव यह है कि एक तो पैसा पास नहीं है, जिससे यज्ञ आदि किया जाये और दूसरे इस कलयुग में बहुत सी विघ्न और बाधाएं हैं, जिनकी वजह से कभी भी पूरा नहीं पड़ सकता है। ज्ञान, वैराग्य, योग, जप-तप में लोभ, मोह, काम और क्रोध का भय है। इन सबके कारण यह सब भी सधते नहीं हैं।

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 155 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

सब दिन सब लायक भाव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको।
बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको।।4.।।

को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको।।5.।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि इस संसार में भी श्रीरघुनाथ जी के गुणों को गाने वाले ही सब प्रकार से योग्य हैं। कहने का भाव यह है कि हरि कीर्तन करने वाले लोग ही सर्वगुण संपन्न हैं। उन्हें कोई बाधाएं नहीं सताती है। जो श्रीराम नाम रूपी कल्पवृक्ष की छाया में बैठे हुये हैं, उन्हें घनघोर घटा का क्या डर है। उन्हें ना तो संसार की विपत्तियां सताती है और ना ही पाप और संताप ही सताते हैं, क्योंकि उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसा कौन जानता है कि कौन स्वर्ग में जायेगा और कौन नरक में जायेगा और कौन ब्रह्मलोक में ही जायेगा ? मुझे इस संसार में श्रीराम जी का गुलाम बनकर ही जीना अच्छा लगता है।

तो ये थी दोस्तों ! विनय पत्रिका के अगले 153-155वें पदों की विस्तृत व्याख्या। उम्मीद है कि आपको ये पद अच्छे से समझ में आ गये होंगे। अगले अध्याय में फिर मिलते है कुछ नए पदों के साथ।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika Pad 153-155 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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