Vinay Patrika in Hindi विनय पत्रिका के पद संख्या 139 की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 139 Vyakhya by Tulsidas in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! पिछले अंक में हमने श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित “विनय-पत्रिका” की पद संख्या 137-138 का अध्ययन किया था। आज हम इसके अगले पद 139 की विस्तृत व्याख्या करने जा रहे है। ध्यान से समझियेगा :

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 139 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ke Pado Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 139वें पद की भावार्थ सहित व्याख्या कुछ इस तरह से है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 139 Ki Vyakhya in Hindi

दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ।।1।।

प्रभुके बचन, बेद-बुध-सम्मत, मम मूरति महिदेव मई है।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है ।।2।।

राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ।।3।।

व्याख्या :

दोस्तों ! तुलसीदास जी कहते हैं कि पाप, दरिद्रता, दु:ख और तीन प्रकार के दारुण तापों – भौतिक, दैविक एवं दैहिक ताप आदि से ये दुनिया जली जा रही है। हे भगवान ! यह आरत आपके द्वार पर पुकार रहा है। देखिए, सभी का सब प्रकार से सुख जाता रहा है। सब आनंद रहित दिखाई दे रहे हैं। सब की सुख की हानि हो रही है।

वेद और पंडितों की यह सहमति है और आपने खुद भी अपने मुख से कहा है कि वे ब्राह्मण जो है, वे मेरी ही प्रतिमूर्ति है। वे ब्रह्ममय है। उनकी बुद्धि को क्रोध, राग, मोह अंधकार, लोभ और लालच ने निगल लिया है अर्थात् उनमें ब्रह्म, संतोष, दान, दया, धर्म आदि रहे नहीं है और वे कामी, क्रोधी, मूढ़ी, लोभी हो गये हैं।

तुलसीदास जी कहते हैं कि राज-समाज अर्थात् क्षत्रिय समाज करोड़ों बुरी-बुरी आदतों से मरी है। वे लूटना, मारना, पर स्त्री पर धर्म अपहरण करना, अन्याय करके प्रजा को सताना आदि नित्य नई-नई पापपूर्ण चाले चल रहे हैं और नास्तिकता ने राजनीति, धर्म-शास्त्र, श्रद्धा, भक्ति और कुल की मर्यादा की प्रतिष्ठा को ढूंढ-ढूंढ कर चौपट कर दिया है।

तात्पर्य यह है कि जहां नास्तिकवाद खड़ा हुआ, परमेश्वर को नहीं माना गया। वहां धर्म-कर्म कैसे रह सकता है? क्योंकि परमात्मा ही सब धर्मों का मूल है।

#पद :

Tulsidas Ji Rachit Vinay Patrika Ke Pad 139 Ki Arth Sahit Vyakhya in Hindi

आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ।।4।।

सांति, सत्य, सुभ, रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है।
सीदत साधु, साधुसाधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है ।।5।।

परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-कामधेनुधरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ।।6।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में ना तो आश्रम धर्म है, ना वर्ण धर्म ही है। यह संसार आश्रम धर्म से और वर्ण धर्म से विरहित हो रहा है और लोक एवं वेद दोनों की मर्यादा नष्ट हो रही है अर्थात् ना तो कोई लोकाचार को मानता है और ना ही नये वेदों के द्वारा कहे गये धर्म को ही मानता है। प्रजा का भी ह्रास हो रहा है। पाखंड और पाप में प्रजा सन रही है। सब अपने-अपने रंग में मस्त हो रहे हैं। किसी की कोई नहीं सुनता हैं।

तुलसीदास जी कहते हैं कि शांति, सत्य और सुमार्ग न्यून हो गये हैं और दुराचार, छल-कपट की वृद्धि हो गई है। आगे कहते हैं कि जनता चिंता में पड़ी हुई है। सज्जन कष्ट पा रहे हैं। सजन्नता चिंता में पड़ी हुई है। दुष्ट लोग मौज कर रहे हैं। दुष्टता भी झुलस रही है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि परमार्थ स्वार्थ में बदल गया है अर्थात् धर्म के नाम पर लोग पेट पालने लगे हैं। साधन निष्फल होने लगे हैं, इसलिए इन्हें कोई करता नहीं, क्योंकि सारी सिद्धियां भी सच्ची नहीं उतर रही। झूठी जान पड़ती है। कामधेनु रूपी जो यह पृथ्वी है, कलयुग रूपी कसाई के हाथ में चली गई है। जो भी उसमें बोया जाता है, वह व्याकुलता के मारे जमता ही नहीं है, उगता ही नहीं है। इसलिए यहां वहां अकाल पडते हैं।

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 139 Bhavarth Sahit Vyakhya in Hindi

कलि-करनी बरनिय कहाँलौं, करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ।।7।।

त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़े की जई है ।।8।।

दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ।।9।।

व्याख्या :

तुलसीदास जी कहते हैं कि इस कलयुग का करतब कहाँ तक बखान किया जाये। यह बेमतलब का काम करता फिरता है। वह दांत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है अर्थात् वह मन ही मन में सोच रहा है कि अभी तो मैंने कुछ किया ही नहीं। अभी तो मैं कुछ कर ही नहीं पाया। ना जाने इसके मन में अभी क्या-क्या है ? अर्थात् कलयुग जो कर ले थोड़ा है।

ज्यों-ज्यों आप शील के कारण इसे ढील दे रहे हैं, त्यों-त्यों यह नीच सिर के ऊपर चढ़ता है अर्थात् यह दिन-ब-दिन जुर्म करता जाता है। थोड़ा सा क्रोध करके यदि इसे डांट दिया तो यह तर्जनी दिखाते ही कुम्हड़े की पत्तियों की तरह मुरझा जाता है।

तुलसीदास जी कहते हैं कि आपकी बलैया लेता हूं, देखकर न्याय दीजिए। नहीं तो यह पृथ्वी आनंद-मंगल से खाली होने वाली है। ऐसा कीजिए, जिससे लोग सौभाग्यशाली होकर प्रेम-पूर्वक यह कह सके कि श्री राम जी ने हमें पूर्णतया कृपा दृष्टि से देखा है।

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 138 Ki Vyakhya in Hindi

बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ।।10।।

समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ।।11।।

उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ।।12।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरी यह विनती सुनकर भगवान जी ने मेरी ओर आनंद से देखा और मुस्कुराकर करुणा के जल से भिगो दिया अर्थात् शांति-वर्षा कर दी। रामराज्य होने से सब काम सफल हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि जगत विजयी श्रीरामचंद्र जी के आगे कायर कलयुग की एक भी नहीं चली।

सर्वशक्तिमान चतुर स्वामी जी ने पुण्य सेना को हारने से बचा लिया अर्थात् जीता दिया। उनके सद्-भक्त स्वभाव से आदरपूर्वक उनकी प्रशंसा करते हैं। धन्य है कि सहज में ही ये यातनायें दूर कर दी है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि आपकी यह आदत सदा से ही चली आ रही है कि जिनका कहीं भी ठौर-ठिकाना नहीं हो। उन्हें स्थापित करना जैसे विभीषण और सुग्रीव दोनों को अपने राज्य पर बिठा दिया और जो गई हुई वस्तु है, उसे फिर से दिलाना जैसे रावण के भय से डरते हुए देवताओं को फिर से स्वर्ग में बसाया।

ये आपकी आदत सदा से ही बनी हुई है, क्योंकि दु:ख हरने वाले भगवान जी ने किस-किस को अभय बाँह नहीं दी है अर्थात् आपने सभी की रक्षा की है। जो भी शरण में गया, उनका पालन-पोषण किया है।

ठीक है तो दोस्तों ! आज हमने गोस्वामी तुलसीदास की “विनय-पत्रिका” से पद संख्या 139 को विस्तार से समझा। उम्मीद है कि आपको ये अच्छे से समझ आ गया होगा। फिर मिलते है कुछ नये पदों के साथ।


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika in Hindi विनय पत्रिका के पद संख्या 139 की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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