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Vinay Patrika Pad 137-138 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या


Vinay Patrika Pad 137-138 Vyakhya in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम फिर एक बार श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित एक नयी रचना लेकर प्रस्तुत है। ये रचना है : विनय-पत्रिका। आज का ये अंक असिस्टेंट प्रोफेसर विशेष होने वाला है। आज हम विनय पत्रिका के पद संख्या 137-138 की विस्तृत व्याख्या करने जा रहे है। इन पदों से परीक्षा में काफी बार प्रश्न पूछा जाता है। तो चलिए शुरू करते है :

श्रीगोस्वामी तुलसीदास कृत “विनय-पत्रिका” के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 137 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 137वें पद की भावार्थ सहित विस्तृत व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 137 Ki Vyakhya in Hindi

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ।।1।।

तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै।
बेद -बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ।।2।।

व्याख्या :

दोस्तों ! तुलसीदास जी कहते हैं कि कृपालु श्रीरघुनाथ जी की कृपा बनी हुई है तो और किसी के बैर करने से क्या पूरा पड़ सकता है। जो भगवान का भक्त है, उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता। चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न कर ले।

जो नीच संत की मौत का विचार करता है, वह पापी स्वयं ही उस मौत मर जाता है। जैसे उदाहरण के लिये तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रहलाद की कथा वेदो में भी प्रसिद्ध है और उसे सुनकर ऐसा कौन होगा, जो भक्ति मार्ग पर पैर नहीं रखेगा।

इसका भाव यह है कि प्रहलाद को उसके पिता हिरण्यकश्यप ने अनेकों प्रकार से यातनायें दी। लेकिन भगवान जी की कृपा से वह उनका बाल भी बांका नहीं कर सका और उल्टा स्वयं ही मारा गया। इसलिए ऐसी भक्तवत्सलता यदि कोई भक्त सुनेगा तो क्या वह ऐसा अभागा होगा, जो प्रभु की भक्ति नहीं करेगा।

#पद :

Tulsidas Ji Ki Vinay Patrika Ke Pad Arth Sahit Vyakhya in Hindi

गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ।।3।।

सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।
प्रभु-प्रभुप्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ।।4।।

जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ।।5।।

है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँचरै।
तुलसिदास रघुबी -बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ।।6।।

व्याख्या :

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान जी ने गजेंद्र का उद्धार किया और विभीषण को प्रभु जी ने राजपद पर स्थापित किया और ध्रुव को अविचल पद दे दिया। आगे वे कहते हैं कि अम्बरीष भक्त के बारे में तो कुछ पूछिए ही मत, उनको महामुनि ने श्राप दिया था। उसे याद करके अब भी ग्लानि से भर जाते हैं अर्थात् वो महामुनि दुर्वासा मुनि है, जो अम्बरीष को श्राप देने की ग्लानि से गले जाते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा समझकर कि अम्बरीष पर भगवान जी का हाथ है। दुर्वाषा भी श्राप देने पर पछताते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि दुर्योधन ने क्या अनिष्ट कार्य नहीं किया अर्थात्त सब कुछ किया। वह मूर्ख अपने ही घमंड में जलता रहा, लेकिन भगवत कृपा से सौभाग्य, विजय एवं कीर्ति ने पांडवों को ही हठपूर्वक अपनाया अर्थात् पांडवों को सौभाग्य मिला, विजय मिली, यश मिला।

तुलसीदास जी कहते हैं कि जो भी दूसरे के लिये कुआं खोदेगा, स्वयं उसमें जा गिरेगा। संतो के साथ जो बैर करने वाला है, वह सपने में भी सुख प्राप्त नहीं करेगा। उसके लिये तो कल्पवृक्ष भी विषैले फल फलेगा अर्थात् वह जिस भी उपाय से सुख प्राप्ति चाहेगा, उसे उस उपाय से दु:ख ही मिलेगा।

तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे दो सिर किसके हैं, जो भगवान जी के भक्तों की सीमा को लांगेगा अर्थात् जो भी भक्तों का अपराध करेगा, वह मारा जायेगा। किसी के दो सिर हो तो और बात है। एक कट जायेगा तो दूसरा बचा रहेगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। जिसे भी श्रीरघुनाथ जी के बाहुबल का भरोसा है, जो उनके शरणागत है, वह सदा निर्भय है। किसी से भी वह डर नहीं सकता।

Vinay Patrika Ki Vyakhya विनय पत्रिका के पद संख्या 138 की व्याख्या


Tulsidas Krit Vinay Patrika Ka Bhavarth in Hindi : दोस्तों ! विनय पत्रिका के 138वें पद की भावार्थ सहित विस्तृत व्याख्या इसप्रकार है :

#पद :

Vinay Patrika Pad Sankhya 138 Ki Vyakhya in Hindi

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक ! धरिहौ नाथ सीस मेरे।
जेहि कर अभय किये जन आरे, आरेबारकल बिबस नाम टेरे ।।1।।

जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो।
जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ।।2।।

जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल -पति सुग्रीव कियो ।।3।।

आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ।।4।।

सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो, ताप, माया।
निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ।।5।।

व्याख्या :

दोस्तों ! तुलसीदास जी कहते हैं कि हे नाथ ! क्या आप कभी अपने कर-कमल को मेरे माथे पर रखेंगे। इस हाथ से आपने दुखी भक्तों को अभय कर दिया था, जबकि उन्होंने परतंत्रतावश एक बार आपका नाम स्मरण किया था।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस कर-कमल से महादेव जी का कठोर धनुष तोड़कर आपने जनक जी का संदेह मिटा दिया था और जिस कर-कमल से निषाद को भाई के समान उठाकर बड़े ही प्रेम से गले लगा लिया था। क्या आप कभी वे कर-कमल मेरे शीश पर धरेंगे अर्थात्

हे कृपालु ! जिस कर-कमल से आप ने जटायु को अर्थात् गिद्ध को पिता के समान पिंडदान देकर अपने साकेत लोक भेज दिया था, जिस कर-कमल से आपने सेवक के हित के लिये, बाली को मारकर सुग्रीव को बंदरों का स्वामी बना दिया था।

जिस कर-कमल से आपने अभय शरणागत विभीषण का राज्याभिषेक किया था। और जिस हाथ से आपने धनुष बाण उठाकर राक्षसों का नाश किया और देवताओं को अभयदान दिया अर्थात् देवताओं को निर्भय बना दिया।

तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस कर-कमल की शीतल और आनंददायक छाया से पाप, संताप और अविद्या का नाश होता है, हे नाथ ! आपके उन कर-कमलों की वहीं छाया, वहीं रक्षा यह तुलसीदास रात-दिन चाहता है।

इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने गोस्वामी तुलसीदास की एक महत्वपूर्ण रचना “विनय-पत्रिका” से पद संख्या 137-138 को विस्तार से समझा। आप सोच रहे होंगे कि हम इसके पदों को बीच में से क्यों उठा रहे है ? तो आपको बता दे कि हम इसके उन्हीं पदों को यहाँ स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे है, जो प्रतियोगी परीक्षा की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। फिर मिलते है कुछ महत्वपूर्ण पदों के साथ। धन्यवाद !


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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Vinay Patrika Pad 137-138 विनय पत्रिका के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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