Tag: Kamayani Ke Chinta Sarg Ka Arth in Hindi

  • Kamayani Ka Arth | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 10

    Kamayani Ka Arth | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 10

    Kamayani Ka Arth | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 10


    Kamayani Ka Arth or Vyakhya in Hindi : हम पिछले कुछ समय से जयशंकर प्रसाद कृत कामायनी के चिंता सर्ग का अध्ययन कर रहे है। इसी क्रम में अब हम केवल दो लेख और प्रकाशित करेंगे, जिसमें चिंता सर्ग पूर्ण हो जायेगा। इस टॉपिक के अति महत्वपूर्ण होने के कारण इसे पूरा समझाना बेहद जरूरी था। तो चलिए आज हम इसके 61-70 पदों को विस्तार से समझने का प्रयास करते है :

    आप जयशंकर प्रसाद कृत “कामायनी” का विस्तृत अध्ययन करने के लिए नीचे दी गयी पुस्तकों को खरीद सकते है। ये आपके लिए उपयोगी पुस्तके है। तो अभी Shop Now कीजिये :


    Kamayani Ka Arth | कामायनी के चिंता सर्ग का अर्थ एवं व्याख्या


    Jaishankar Prasad Krit Kamayani Ka Arth in Hindi : कामायनी महाकाव्य के प्रथम चिंता सर्ग के 61-70 पदों की विस्तृत व्याख्या निम्नप्रकार से है :

    पद : 61.

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ka Arth in Hindi

    लगते प्रबल थपेड़े, धुँधले, तट का था कुछ पता नहीं।
    कातरता से भरी निराशा, देख नियति पथ बनी वहीं।

    अर्थ :

    मनु अपनी स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि मैं जिस नाव में बैठा था, उस नाव पर लहरें बार-बार भीषण आघात कर रही थी। ऐसी स्थिति में समुन्द्र के धूमिल तट का भी कहीं पता नहीं चल पा रहा था ।

    मनु फिर आगे कहते हैं कि मेरे हृदय में घोर निराशा छाने लग गई थी। मनु के मुख से व्याकुलता भी झलकने थी, परंतु मनु ने यह सोचा कि अब तो मैं भाग्य के ही अधीन हूं और ऐसा सोचकर मैं शांत बैठा रहा, तब विश्व की नियामिका शक्ति ने ही मेरा पथ प्रदर्शित किया।


    पद : 62.

    Kamayani Ke 61 to 70 Pado Ki Vyakhya in Hindi

    लहरें व्योम चूमती उठतीं, चपलायें असंख्य नचतीं।
    गरल जलद की खड़ी झड़ी में, बूँदे निज संसृति रचतीं।

    अर्थ :

    मनु प्रलयकालीन स्थिति और जल प्रलय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि समुन्द्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थी। उन्हें देखकर ऐसा लगता था, जैसे वे आकाश का चुंबन कर रही हो। आकाश में बिजलियाँ ऐसे चमक रही थी, मानों वे नृत्य कर रही हो। प्रलयकारी बादल अपनी तेज आवाज के साथ उमड़-घुमड़ कर बरस रहे थे।

    ऐसी भीषण वर्षा को देखकर ऐसा लगता था, जैसे यह संसार मानव-प्राणियों का निवास-स्थान न रहकर, वर्षा की बूंदों का निवास-स्थान बन गया हो अर्थात् चारों तरफ वर्षा की बूंदे ही बूंदे दिखाई दे रही थी।



    पद : 63.

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ke 61 to 70 Pado Ka Arth Bhaav in Hindi

    चपलायें उस जलधि-विश्व में, स्वयं चमत्कृत होती थीं।
    ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें, खंड-खंड हो रोती थीं।

    अर्थ :

    प्रलयकालीन वातावरण का वर्णन करते हुए मनु कहते हैं कि जब बिजलियां आकाश में चमकती थी तो जल में उनका प्रतिबिंब ऐसा लगता था, मानो समुद्र के अंदर की अग्नि भिन्न-भिन्न अंशों में विभक्त होकर रो रही हो।


    पद : 64.

    Kamayani Ka Arth Vyakhya in Hindi

    जलनिधि के तलवासी जलचर, विकल निकलते उतराते।
    हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी, कौन! कहाँ! कब सुख पाते?

    अर्थ :

    मनु प्रलयकाल का वर्णन करते हुये कह रहे हैं कि जल-प्रलय में सागर के भीतर निवास करने वाले प्राणी, जल-जंतु व्याकुल होकर ऊपर आ गए हैं। इस तरह जब जल के अंदर रहने वाले ही जल के कारण व्याकुल हो गए हैं तो दूसरा कौन एक पल के लिए भी सुख पा सकता है।

    अर्थात् कोई भी स्थान क्यों ना हो, उसी समय तक निवासियों को सुख पहुंचा सकता है, जब तक कि वह स्वयं सुरक्षित हो। आज जब जल-प्लावन के कारण समुद्र ही परेशान है तो वह दूसरों को कैसे सुख प्रदान कर सकता है ?



    पद : 65.

    Kamayani Ka Arth 61 to 70 Pad in Hindi

    घनीभूत हो उठे पवन, फिर श्वासों की गति होती रूद्ध।
    और चेतना थी बिलखाती, दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।

    अर्थ :

    मनु कहते हैं कि जो पवन अभी तक बहुत तेज वेग के साथ बह रही थी, वह भी एक स्थान पर एकत्र होने लगी और सांस लेना भी मुश्किल हो गया। जिसके कारण शरीर की समस्त चेतना भी शिथिल होने लगी और अंधकार चारों ओर व्याप्त हो गया। इससे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसी स्थिति में मनु की दशा स्वाभाविक है।


    पद : 66.

    Kamayani Ka Arth-JaiShankar Prasad in Hindi

    उस विराट आलोड़न में ग्रह, तारा बुद-बुद से लगते।
    प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़, ज्योतिर्गणों-से जगते।

    अर्थ :

    मनु प्रलयकाल का वर्णन करते हुये कह रहे हैं कि घोर हलचल के कारण समुद्र के ऊपर चमकने वाले तारे और नक्षत्र, कभी तो पानी के बुलबुलों के जैसे लगते थे और कभी-कभी ऐसा लगता था, मानो उस प्रलयकारी घोर वर्षा में जुगनुओं की तरह इधर-उधर चमक रहे हो। दोस्तों ! इन पंक्तियों में उपमा अलंकार प्रयुक्त हुआ है।



    पद : 67.

    Kamayani Ka Arth or Vyakhya 61-70 Pad in Hindi

    प्रहर दिवस कितने बीते, अब इसको कौन बता सकता।
    इनके सूचक उपकरणों का, चिह्न न कोई पा सकता।

    अर्थ :

    मनु प्रलयकालीन भयंकरता का वर्णन कर रहे हैं। वे बताते हैं कि ऐसी प्रलयकारी दशा को न जाने कितने प्रहर या दिन बीत गये, इसके बारे में कोई नहीं बता सकता था, क्योंकि प्रलय की वर्षा के कारण दिन और रात के सूचक-उपकरण सूर्य व चंद्र का कोई पता नहीं था। इस कारण यह जानना कठिन हो गया कि कितने दिन एवं कितने प्रहर बीत चुके हैं और ऐसी स्थिति को चलते हुए कितना समय हो गया हैं ?


    पद : 68.

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ka Arth or Vyakhya 61-70 Pad in Hindi

    काला शासन-चक्र मृत्यु का, कब तक चला, न स्मरण रहा।
    महामत्स्य का एक चपेटा, दीन पोत का मरण रहा।

    अर्थ :

    मनु कह रहे हैं कि मृत्यु का जो क्रूरतापूर्ण साम्राज्य व्याप्त था, वह कब तक चलता रहा ? इसका पता नहीं, परंतु इसी के बीच एक दीर्घकाय मछली मेरी नाव से टकराती है। उस बड़ी सी मछली का धक्का मेरी नाव पर लगने से मुझे डर लगा कि कहीं मेरी यह कमजोर सी नाव टूट कर चूर-चूर ना हो जाए।



    पद : 69.

    Kamayani Ka Arth or Vyakhya – Prasad in Hindi

    किंतु उसी ने ला टकराया, इस उत्तरगिरि के शिर से।
    देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक, श्वास लगा लेने फिर से।

    अर्थ :

    मनु कह रहे हैं कि मेरी नाव उस बड़ी सी मछली के टकराने से निसंदेह टूट ही जाती, परंतु ऐसा नहीं हुआ और नाव बच गई। हुआ कुछ ऐसा कि उस बड़ी सी मछली के आघात के कारण मेरी नाव हिमालय की ऊंची चोटी पर जा पहुंची और देवताओं का वंश नष्ट होते-होते बच गया। दोस्तों ! इन पंक्तियों की अंतिम पंक्ति में विरोधाभास अलंकार है।


    पद : 70.

    Kamayani Ka Arth Bhaav Bhavarth or Vyakhya in Hindi

    आज अमरता का जीवित हूँ, मैं वह भीषण जर्जर दंभ।
    आह सर्ग के प्रथम अंक का, अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!

    अर्थ :

    मनु अपनी मन:स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अब मुझे ग्लानि का अनुभव हो रहा है। वे कह रहे हैं कि मैं उन्हीं देवताओं का वंशज बच गया हूं, जो किसी समय अमरता के अभिमान में फूले नहीं समाते थे। मनु यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार किसी नाटक के प्रथम अंक का कोई पात्र विगत घटनाओं को दोहराता है, उसी प्रकार अब मनु भी देवताओं के विनाश की करुणापूर्ण कहानी को सुनाने के लिए बच गए हैं।

    दोस्तों ! इन पंक्तियों में जयशंकर प्रसाद ने “अमरता का – भीषण जर्जर दंभ” नामक उक्ति से यह कहना चाहा है कि देवता अपनी अमरता के झूठे घमंड में अपने आपको भूल गए थे। यहीं घमंड उनके विनाश का कारण बना है।



    दोस्तों ! आज हमने Kamayani Ka Arth | कामायनी के चिंता सर्ग भाग – 10 में आगे के 61-70 पदों को विस्तार से समझा। अगले नोट्स में हम इसके 71-80 पदों को समझेंगे और इसी के साथ कामायनी का चिंता सर्ग पूर्ण हो जायेगा।

    ये भी अच्छे से समझे :


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  • Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 6

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 6

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 6


    नमस्कार दोस्तों ! हमने पिछले नोट्स में कामायनी के कुछ महत्वपूर्ण पदों का अध्ययन किया था। आज हम Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya | कामायनी के चिंता सर्ग की पद संख्या 33-40 तक की विस्तृत व्याख्या करने जा रहे है। तो चलिए ध्यान से समझने की कोशिश कीजिये :

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    Kamayani | कामायनी के चिंता सर्ग के पदों की व्याख्या


    Jaishankar Prasad Rachit Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya in Hindi : कामायनी महाकाव्य के चिंता सर्ग के 33-40 पदों की विस्तृत व्याख्या इसप्रकार से है :

    पद : 33.

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ka Arth in Hindi

    भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह,
    प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।

    अर्थ :

    मनु कहते हैं कि देवताओं के जीवन में उमड़ती हुई वासना रूपी नदी कुछ ऐसे मतवाले और तीव्र वेग के साथ प्रवाहित हुई कि अंत में यह नदी विनाश के समुद्र में ही लीन हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं के घोर भोग-विलास के कारण ही यह विश्व जल-प्रलय हुआ और समस्त देवजाति नष्ट हो गई तथा उनके इस अंत से अब मनु का ह्रदय कराह उठा है।



    पद : 34.

    Kamayani Mahakavya Ke Pahle Chinta Sarg Ki Vyakhya in hindi

    चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत,
    आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

    अर्थ :

    मनु कहते हैं कि जीवन के वे मधुर दिन कहाँ चले गये, जब युवावस्था की ही अनुभूति होती थी। नित्य ही भोग विलास और वासना में मग्न रहने के सुअवसर मिलते थे। और जीवन में हमेशा ही बसंत ऋतु छाई रहती थी। अर्थात् जीवन मादकतापूर्ण था। ऐसा जीवन अब कहाँ चला गया। वो भावुकतापूर्ण बसंत ऋतु न जाने कहाँ चली गयी।


    पद : 35.

    Kamayani ke 33 to 40 Pado ka Arth Bhaav in Hindi

    कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन,
    मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन।

    अर्थ :

    मनु कह रहे हैं कि फूलों से लदे लता के मण्डपों में होने वाले आलिंगन के दृश्य भी अब कहीं दिखाई नहीं देते हैं। स्वर लहरी भी कहीं सुनाई नहीं देती और वीणा भी अब शांत है।



    पद : 36.

    Kamayani Ke Pratham Chinta Sarg Ke 33 to 40 Pado Ki Vyakhya

    अब न कपोलों पर छाया-सी, पडती मुख की सुरभित भाप
    भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप।

    अर्थ :

    मनु कहते हैं कि इस जल-प्रलय के कारण देवताओं और देव बालाओं को न तो चुम्बन सुख ही प्राप्त होता है और न ही वे प्रेम रूप से प्रेमालिंगन ही कर पाते है। पहले तो इस जल-प्लावन के पूर्व देवता उन रूपवती नारीयों के कपोलों का चुम्बन लेते थे, तब उन्हें उनके शरीर से निकलने वाली फूलों की मधुर सुगंध का आनंद प्राप्त होता था।

    साथ ही वासना के आवेग में, जब देवबालाएँ देवताओं का आलिंगन करती थी, तब उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त होकर देवताओं के बगलों तक आकर बिखर जाते थे। लेकिन अब ये सब दृश्य समाप्त हो चुके है।


    पद : 37.

    Kamayani Mahakavya ka Pahla Chinta Sarg 33-40 Pad in hindi

    कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार,
    मुखरित था कलरव, गीतों में, स्वर लय का होता अभिसार।

    अर्थ :

    मनु कहते है कि जब देवबालाएँ देवताओं का आलिंगन करती थी। तब उनके कंगन मधुर ध्वनि करते थे और घुंघरूं बज उठते थे। उनकी छाती पर हार हिलने लगते थे और चारों तरफ संगीत की मधुर ध्वनि गूंजने लगती थी और इन गीतों में स्वर एवं लय परस्पर मिले रहते थे।



    पद : 38.

    Jaishankar Prasad Ki Kamayani Mahakavya Ki Vyakhya in Hindi

    सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
    सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

    अर्थ :

    देवताओं के भोग-विलास का उल्लेख करते हुए मनु कह रहे है कि उस समय सभी दिशाये सुगंध से परिपूर्ण रहती थी और आकाश भी पूरी तरह से प्रकाशमय रहता था। साथ ही देवताओं में एक ऐसी अचेतन गति विद्यमान थी, जो पवन के वेग से भी तेज थी। अर्थात् देवताओं के भोग विलास की गति वायु के वेग को भी पीछे छोड़ रही थी। देवता निरंतर भोग-विलास में लीन रहने के कारण अपना होश खो बैठे थे और उन्हें भविष्य का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रहा।


    पद : 39.

    Kamayani Mahakavya Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya or Arth in hindi

    वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नर्तन,
    मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवर्तन।

    अर्थ :

    मनु कहते है कि जब देवबालाएँ अपने विविध अंगो को मोड़कर कई तरह के हाव-भाव के साथ नृत्य करती थी तो ऐसा लगता था, जैसे उन्हें काम पीड़ा की अनुभूति हो रही है। उनकी इन अंग-चेष्टाओं को देखकर देवता भी उनके यौवन-रस का पान करने में रत हो जाया करते थे।

    यहाँ देवताओं की तुलना भँवरे से की गयी है। जिस तरह एक भंवरा एक फूल से दूसरे फल का रस लेता फिरता है, उसी तरह देवता भी रसपान करने में लगे रहते थे। प्रस्तुत पंक्तियों में देवताओं की तीव्र भोग-विलास की भावना को अभिव्यक्त किया गया है।



    पद : 40.

    Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya Bhaav Arth in hindi

    सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़।
    कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग।

    अर्थ :

    मनु बताते है कि देवबालाओं के मुख से हमेशा शराब की सुगंध निकला करती थी। और रात्रि में देर तक जागने के कारण उनके आलस्य और प्रेम से भरे नेत्र हमेशा लाल रहते थे। उनके सुन्दर गालों से वासना झलकती थी और उनमें मादकता भी अधिक बढ़ गयी थी।

    अत्यधिक चुम्बनों की वजह से उनके लाल गाल पीले पड़ गये थे। इतना सब होने के बाद भी उनकी इस पीली आभा के आगे कल्प वृक्ष के फूलों का पीला पराग भी तुच्छ प्रतीत होता था।


    इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने Kamayani Ke Chinta Sarg Ki Vyakhya | कामायनी के चिंता सर्ग भाग – 6 की विस्तृत व्याख्या बता दी है। उम्मीद है कि आपको सभी पद अच्छे से समझ में आ गए होंगे।

    ये भी अच्छे से समझे :


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