Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग – कबीर ग्रंथावली
दोस्तों ! आज हम पढ़ेंगे कबीर दास जी द्वारा रचित साखी भाग का “Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग”। इसके महत्वपूर्ण 20 पद जो कॉलेज लेक्चरर के सिलेबस में लगे हुए है, उसी को ध्यान रखते हुए हम आज के नोट्स लिख रहे हैं। आज हम “Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग” के 20 पदों का अध्ययन करने जा रहे है ।
गुरुदेव कौ अंग” में 20 पद या दोहे लगे हैं। उन्हें पढ़ने से पहले हम इसके मूल-भाव को पढ़ेंगे, क्योंकि इसके मूल-भाव को ध्यान में रखते हुए हम आगे के 20 पदों का अध्ययन करेंगे। इसका सार क्या है ? क्या इसकी संवेदना है ? कबीर दास जी क्या संदेश देना चाहते हैं ? ये सभी जानने का प्रयास करेंगे।
Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग का मूल-भाव
भारतीय संत परंपरा में और विशेषकर निर्गुण भक्ति परंपरा में संतों द्वारा गुरु को विशेष महत्व दिया गया है। इस अंग में कबीर ने भी गुरु की महत्ता का वर्णन किया है । वह बताते हैं कि गुरु के समान कोई नहीं है। उनके समान अपना हितैषी और सगा कोई नहीं है। इसलिए मैं अपना तन-मन और सर्वस्व गुरु को समर्पित करता हूं।
जो एक ही क्षण में अपनी कृपा से मनुष्य को देवता बनाने में समर्थ है, उनकी महिमा अनंत है। इसे वही समझ सकता है, जिसके ज्ञान रूपी चक्षु खुल गए हैं। गुरु की कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यहां तक कि कलयुग में व्याप्त पाप और दुष्कर्मों का प्रभाव भी उस पर नहीं पड़ता।
गुरु ही अपने शिष्य के अंदर ज्ञान रूपी ज्योति जलाने में समर्थ है। गुरु ही सच्चा शूरवीर है। गुरु के द्वारा ज्ञान प्राप्त होते ही मनुष्य सांसारिक माया-बंधनों से मुक्त हो जाता है।
Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग का मूल-भाव
ऐसा गुरु बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है परंतु यदि दुर्भाग्यवश किसी व्यक्ति को कोई विद्वान गुरु प्राप्त नहीं होता तो ऐसे मनुष्य की कभी भी मुक्ति नहीं हो सकती। बल्कि वह गुरु तो अपने साथ अपने शिष्य को भी लेकर डूब जाता है ।
केवल गुरु का मिलना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि शिष्य के शुद्ध अंतःकरण की भी उतनी ही आवश्यकता है। शिष्य का हृदय विशुद्ध होना चाहिए। क्योंकि यदि शिष्य के हृदय में कोई विकार भाव है तो गुरु की कृपा होने पर भी शिष्य को कोई विशेष लाभ नहीं होता है।
अपनी इसी विशेषता के कारण गुरु का स्थान भगवान के स्थान के समान है, अर्थात गुरु और भगवान एक समान है। जिन लोगों के पास कोई सच्चा गुरु नहीं होता, वे लोग कितनी भी तप साधना कर ले, उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिलता।
सभी प्रकार से समर्थ गुरु मिलने पर ही समस्त सांसारिक और मानसिक दु:ख नष्ट हो पाते हैं। और आत्मा पवित्र और निर्मल होकर प्रभु भक्ति में रम जाती है। इस प्रकार गुरु की महिमा अनंत और निर्वचनीय है।
Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग के दोहों की व्याख्या
आज हम कबीर दास रचित गुरुदेव कौ अंग के कुछ महत्वपूर्ण दोहों की व्याख्या कर रहे है। जो प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। तो चलिए समझते है :
दोहा : 1.
सतगुरु सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।
हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति॥
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
सवाँन | समान |
सोधी | साधु |
सई | समान |
दाति | दाता |
हरिजन | प्रभु-भक्त |
अर्थ : संसार में सतगुरु के समान कोई अपना सगा या हितैषी नहीं है। प्रभु की खोज करने वाले साधु के समान कोई दाता नहीं है। क्योंकि गुरु अपना समस्त ज्ञान अपने शिष्य पर उड़ेल देता है।
ऐसे दयालु प्रभु के समान हमारा कोई हितैषी नहीं है। और प्रभु-भक्तों के समान कोई जाति नहीं है। प्रभु का जो भक्त होता है, वही सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।
दोहा : 2.
बलिहारी गुरु आपणै, द्यौं हाड़ी के बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
आपणै | अपने |
हाड़ी | शरीर |
अर्थ : कबीर दास जी कह रहे हैं कि मैं अपने शरीर को अपने गुरु के ऊपर बार-बार न्योछावर करता हूं। मैं उन पर बलि-बलि जाता हूं, जिन्होंने मुझे अत्यंत अल्प समय में ही मनुष्य से देवता बना दिया है।
दोहा : 3.
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
लोचन अनंत | प्रज्ञाचक्षु |
अनंत | ब्रह्म |
अर्थ : इसमें कबीर दास जी कह रहे हैं कि सतगुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने मेरे ऊपर महान उपकार किया है। उन्होंने मेरे ज्ञान के चक्षु खोल दिए हैं। दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी है, जिसके कारण उस अनंत ब्रह्म के दर्शन हो गए।
दोहा : 4.
राम नाम के पटतरै देबै कौं कछु नाहिं।
क्या लै गुरु संतोषिए, हौस रही मन मौहि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
पटतरै | बदले में |
संतोषिए | संतुष्ट करूँ |
हौस | प्रबल इच्छा |
अर्थ : कबीर दास जी कह रहे हैं कि गुरु ने राम-नाम का जो अमूल्य मंत्र दिया है। उसके बदले में मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। क्योंकि उस राम-नाम के सम्मुख सभी वस्तुएं तुच्छ है। फिर भला मैं ऐसा क्या देकर मेरे गुरुदेव को संतुष्ट करूँ। यही प्रबल इच्छा मेरे मन में ही रह जाती है।
दोहा : 5.
सतगुरु के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ ।
कलयुग हम स्यूं लड़ि पड़या, मुहकम मेरा बाछ ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
साछ | साक्षी |
बाछ | रक्षक |
अर्थ : मैं सतगुरु पर प्राण-प्रण से न्योछावर हूं। एवं अपने हृदय को साक्षी करके कहता हूं कि कलयुग अर्थात माया-मोह जैसे प्रपंच मुझसे लड़ व जूझ रहे हैं।
पापों का और मन का संघर्ष चल रहा है, किंतु मेरे गुरुवर इतने शक्तिशाली हैं कि वह मेरी रक्षा कर रहे हैं। अतः पाप-पुंज मुझे परास्त नहीं कर सकते।
विशेष : इसमें मानवीकरण अलंकार प्रस्तुत हुआ है।
दोहा : 6.
सतगुरु लई कमाँण करि, बौहण लागा तीर।
एक जु बाह्या प्रीति स्यूं, भीतरि रह्या सरीर।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
कमाँण | धनुष |
बौहण लागा | बरसाने लगा |
अर्थ : सतगुरु ने हाथ में धनुष धारण कर लिया और तीरों की वर्षा करने लगे अर्थात् अपने शिष्य को ज्ञान के उपदेश देना प्रारंभ कर दिया। इन बाणों में से एक बाण (प्रेम का बाण) इस प्रकार प्रेमपूर्वक चलाया, जिसने अंतर हृदय को भेदकर घर कर लिया।
हृदय की गहराई तक वह बाण समस्त अंधकार रुपी आवरणो को भेदकर गया है। इसलिए यह हृदय में जाकर रह गया, यह बाण था — प्रेम का।
विशेष : रूपक अतिशयोक्ति अलंकार ( केवल उपमान पक्ष धनुष बाण का उल्लेख होने से)
दोहा : 7.
सतगुरु साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक ।
लागत ही मैं मिलि गया, पड्या कलेजै छेक।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
सूरिवाँ | सूरमा, वीर |
बाह्या | मारा |
मैं | अहंकार |
अर्थ : सद्गुरु ही सच्चा सूरमा है, शूरवीर हैं। जिस प्रकार रणभूमि में सुर अपने विरोधी पक्ष को बाण वर्षा से परास्त कर देता है। उसी प्रकार उस सतगुरु रूपी शूरवीर ने उपदेश का बाण चलाया।
उसके लगते ही हृदय में प्रेम की टेक का छिद्र हो गया। अर्थात् यह प्रेम उस सद्गुरु रूपी बाण का ही परिणाम है।
दोहा : 8.
सतगुरु मार्या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि ।
अंगि उघाडै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
मार्या | मारा |
भरि | पूर्ण शक्ति से |
दवा | दावाग्नि |
अर्थ : सतगुरु ने साधक के ऊपर यह उपदेश पूर्ण शक्ति से खींचकर एवं मूठ को लक्ष्य करके सीधा मारा, जिससे दावाग्नि सी फूट पड़ी है। समस्त वासना, माया आदि जल-जल कर क्षार होने लगे।
साधक शरीर के वस्त्र, माया आदि आवरण उतारकर फेंकने लगा। अर्थात् उसका वस्तुस्थिति अर्थात् प्रभु से साक्षात्कार हो गया है।
दोहा : 9.
हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुरु कै हथियारि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
उनमनी | योग की उन्मन दशा |
भिद्या | भेद दिया |
अर्थ : योग की उन्मन दशा का वर्णन कबीर दास जी करते हैं। मन की चंचल वृतियों को समाप्त कर सतगुरु के उपदेश (प्रेम का) ने हृदय में भेद्य दिया। जिसका परिणाम यह दशा है, जिसमें शिष्य ना बोलता है और ना हँसता है अर्थात् सांसारिक हास-विलास से विरक्त हो गया है।
दोहा : 10.
गूंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुरु मार्या बाण।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
पाऊँ थै | पैरों से |
पंगुल | पंगू या लंगड़ा |
अर्थ : सतगुरु के उपदेश का बाण लगते ही गूंगा, पागल और कानों से बहरा हो गया। वह अपनी वाणी और कानों का प्रयोग फालतू के वाद-विवाद में नहीं करता है।
उसके कान भी प्रेम-भक्त्ति पर चर्चा के अतिरिक्त अन्य विषयों के लिए बहरे हैं एवं सांसारिक प्रयत्न से विरत होने के कारण लंगड़ा हो गया है। ऐसी विशेष स्थिति के कारण ही उसे पागल बताया गया है।
तो दोस्तों ! ये थे कबीर दास जी रचित “Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग” के प्रथम 10 पद। आज के इस लेख में हम “Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग” के 10 पद ही पढ़ पाये हैं। आगे के 10 पद हम अगले नोट्स में प्रस्तुत करेंगे।
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एक गुजारिश :
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