Gurudev Ko Ang – Kabir Dohe | गुरुदेव कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे
कबीर ग्रंथावली : आज हम “Gurudev Ko Ang – Kabir Dohe | गुरुदेव कौ अंग” साखी भाग के अगले 10 दोहों की व्याख्या करने जा रहे है। तो चलिए हम हिंदी साहित्य पाठ्यक्रम में कबीर की साखियों में “गुरुदेव कौ अंग” के दोहे और उनका भावार्थ समझने की कोशिश करते है।
कबीर हिंदी साहित्य के निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि है। जब हम कबीर दास जी का अध्ययन करते हैं, तो पाते है कि कबीर पहले एक भक्त है और उसके बाद एक कवि के रूप में माने जाते हैं। उनकी साखियों में सर्वप्रथम गुरु की वंदना की गयी है। उन्होंने गुरु की महत्ता पर प्रकाश डाला है। अगर हम कबीर की रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो ये हमें तीन रूपों में दिखाई देती है :
- साखी
- सबद
- रमैनी
- साखी — जो दोहों में है ।
- सबद — जो गेय पदों में है ।
- रमैनी — जो दोहा और चौपाईयों में है।
कबीर के लिए भाषा कभी भी साध्य नहीं रही है। वह केवल उनके लिए साधन थी। कबीर जैसा चाहते थे, वैसा अपनी भावनाओं के अनुरूप अपनी भाषा को ढाल लिया करते थे। “गुरुदेव कौ अंग” में कबीर दास जी ने गुरु की महिमा का गुणगान अपने दोहों के माध्यम से किया है।
इन दोहों में बताया गया है कि शिष्य को यदि सच्चा गुरु मिल जाता है तो ऐसा गुरु उसे ज्ञान रूपी चक्षु देकर इस संसार सागर से पार करने में सहायता करता है। सच्चे गुरु के कारण ही शिष्य को अपने भीतर स्थित उस परमब्रह्म का ज्ञान होता है।
Gurudev Ko Ang – Kabir Dohe | गुरुदेव कौ अंग के दोहों की व्याख्या
कबीरदास जी की रचनाएं कबीर ग्रंथावली में संकलित है, जो डॉ. श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित है। आज हम इसी के “Gurudev Ko Ang – Kabir Dohe | गुरुदेव कौ अंग” के आरंभिक 20 पदों का अध्ययन करने जा रहे है। पिछले नोट्स में हम इसके प्रारंभिक 10 दोहों का अध्ययन कर चुके हैं। आगे के 10 पदों का अध्ययन (11 से 21) तक हम आज के लेख में प्रस्तुत करेंगे।
दोहा : 11.
पीछै लागा जाइ था, लोक बेद के साथि।
आगै थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दिया हाथि।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
दीपक | ज्ञान की ज्योति |
अर्थ : यहां कबीर दास जी कह रहे हैं कि मैं तो संसार में वेद-विहित मार्ग का अनुकरण करता हुआ जा रहा था। परंतु आगे रास्ते में मुझे मेरे गुरुदेव मिल गए। उन्होंने मेरे हाथ में ज्ञान रूपी दीपक रख दिया। उसके प्रकाश में, मैं अपना पद स्वयं खोजता हुआ अपने लक्ष्य अर्थात् परम ब्रह्म तक पहुंच गया।
विशेष : इसमें सांगरूपक एवं रूपक-अतिशयोक्ति अलंकार आया है।
दोहा : 12.
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट ।
पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि ना आँवौं हट्ट।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
अघट्ट | कभी घटने न वाली |
बिसाहूणाँ | क्रय-विक्रय |
हट्ट | बाजार |
अर्थ : इसमें कबीर दास जी कह रहे हैं कि मेरे सतगुरु ने मुझे प्रेम रूपी तेल से भरा दीपक देकर, कभी घटने न वाली बाती अर्थात् ज्ञान वर्तिका से युक्त दीपक मुझे दिया है। इसके प्रकाश से संसार रूपी बाजार में, मैंने अपने कर्मों का समस्त क्रय-विक्रय समस्त रीति से कर लिया है।
अतः मैं इस संसार रूपी बाजार में अब नहीं आऊंगा अर्थात् इस ज्ञान ज्योति (प्रकाश) द्वारा, मैं जीवन मुक्त हो जाऊंगा। इसका अर्थ है कि मुझे दोबारा इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ेगा।
विशेष : सांगरुपक एवं रूपक-अतिशयोक्ति अलंकार है।
दोहा : 13.
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
जिनि | नहीं |
बीसरि | छोड़ना |
अर्थ : कबीर दास जी कह रहे हैं कि मेरे गुरुदेव से भेंट होने पर मेरे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो गया है। ऐसे ज्ञान स्वरूप सच्चे सद्गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए अर्थात् उनका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। यह मुझ पर मेरे प्रभु की ही कृपा है कि गुरुदेव मुझे मिल गए अर्थात् भगवान की कृपा से मुझे ऐसे गुरु मिले हैं।
विशेष : यहाँ विशेष बात यह है कि सच्चे सद्गुरु की प्राप्ति के लिए कबीर दास जी भगवान जी की कृपा को आवश्यक मानते हैं।
दोहा : 14.
कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव घरौगे कूँण।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
गुर | गुरु |
गरवा | गौरवमय |
लूँण | नमक |
अर्थ : कबीर दास जी कह रहे हैं कि मेरे सतगुरु गौरवमय है और ऐसे गौरवमय गुरुदेव के मुझे दर्शन हुए है। गुरुदेव ने मुझे अपने ज्ञान-स्वरूप से इस प्रकार एक कर लिया, अपने में मिला लिया जैसे आटे में नमक मिल जाता है और फिर उसे अलग नहीं किया जा सकता।
अर्थात् गुरुदेव से इस प्रकार ऐक्य हो जाने पर मेरा स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह गया और मेरे स्वतंत्र व्यक्तित्व के बोधक अर्थात् जाति-पाति, कुल आदि सब नष्ट हो गए। अब इस संसार में मुझे गुरु से पृथक मानने के लिए किस नाम से पुकारोगे।
भाव यह है कि अब मेरा गुरुदेव के ज्ञान-स्वरूप के साथ ऐक्य स्थापित हो गया है। अब इसे अलग नहीं किया जा सकता।
दोहा : 15.
जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
अंधला | अंधा, मूर्ख |
खरा | पूर्ण रूप से |
निरंध | मूर्ख |
कूप | कूआं |
अर्थ : यहां कबीर दास जी कह रहे हैं कि गुरु योग्य होना चाहिए। जिस शिष्य का गुरु अंधा है अर्थात् अज्ञानी है। और शिष्य भी पूर्ण रूप से अंधा और मूर्ख है तो वे दोनों लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकेंगे।
अँधा अँधे को, अज्ञानी अज्ञानी को, बिना देखे ही ठेल-ठेलकर मार्ग पर बढ़ाएगा तो परिणाम भी वैसा ही होगा कि दोनों ही कुएं में गिरेंगे अर्थात् पतन रूपी कुएं में गिर पड़ेंगे। इसलिए हमारा गुरु ज्ञानी और योग्य होना चाहिए।
दोहा : 16.
नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या दाव।
दुन्यूँ बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
सिष | शिष्य |
बूड़े | डूब गए |
पाथर | पत्थर, अज्ञान |
अर्थ : यहां अर्थ यह है कि ना तो सद्गुरु ही ज्ञानी मिला और ना ही शिष्य वास्तविक परिभाषा में शिष्य है अर्थात् ज्ञान का अभिलाषी ही न था। दोनों ही गुरु और शिष्य ज्ञान के नाम पर लालच का भाव खेलते रहे। वे एक-दूसरे को धोखे में रखते रहे और दोनों इस प्रकार तट (लक्ष्य) तक पहुंचने से पहले ही मंझधार में डूब गए।
और अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि वह पत्थर की नाव के सहारे सागर पार करेंगे तो बीच में ही डूब जाएंगे। अतः अज्ञान के सहारे संसार रूपी सागर पार नहीं कर पाएंगे।
विशेष : उपमा अलंकार दिया है।
दोहा : 17.
चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा माँहि।
तिहिं धरि किसकौ चानिणौं, जिहि धरि गोबिंद नाहिं ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
जोइ करि | जलाकर प्रकाशित करके |
चानिणौं | चहेता |
अर्थ : कबीर दास जी कह रहे हैं कि यदि कोई अपने ह्रदय में चौसठ कलाओं की ज्योति जला कर प्रकाशित कर ले। चंद्रमा की चौदह कलाओं के समान प्रकाशपूर्ण चौदह विधाओं का भव्य प्रकाश, उज्जवल प्रकाश, प्रकाशित कर ले
अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हो जाए किंतु यदि वह मंदिर प्रभु-भक्ति के अभाव में अंधकार में हो तो वह किसी का भी चहेता अर्थात् किसी को भी अच्छा नहीं लगेगा। भाव यह है कि मनुष्य-जीवन की सार्थकता भगवान की प्राप्ति में ही है।
विशेष : कबीर यहां ज्ञान और भक्ति को पोषित करते दिखाई दिए हैं और भक्ति को ज्ञान के ऊपर मानते हैं।
चौदह कलाओं के कहने से कबीर पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है।
दोहा : 18.
निस अधियारी कारणैं, चौरासी लख चंद।
अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
निस | रात, अज्ञान |
ऊदै किया | उदित किया, प्राप्त किया |
मंद | मूर्ख |
अर्थ : कबीर कहते हैं कि मुझे अपने अज्ञान के अंधकार के कारण बार-बार चौरासी लाख योनियों में भटककर उनकी यातना सहनी पड़ी और तब बड़ी मुश्किल से मनुष्य की योनि में आया हूं। मूर्ख की फिर भी आंख नहीं खुलती। वह फिर भी कुमार्ग की ओर ही बढ़ रहा है।
दोहा : 19.
भली भई जू गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
नहीं तर | अन्यथा |
पूरी जाँणि | सर्वस्व समझकर |
अर्थ : यहां साधक कह रहा है कि अच्छा हुआ जो मुझे गुरुदेव मिल गए अन्यथा मुझे तो बहुत बड़ी भारी हानि होती। जिस प्रकार से शलभ दीपशिखा को सर्वस्व जान कर उस पर जल मरता है, उसी प्रकार मैं भी सांसारिक माया-मोह को सर्वस्व मान कर, कीड़े-पतंगे की तरह जलकर नष्ट हो जाता।
विशेष : दितीय पंक्ति में उपमा अलंकार दिया है।
दोहा : 20.
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पड़ंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत ।।
शब्दार्थ :
शब्द | अर्थ |
---|---|
भ्रमि-भ्रमि | मंडरा-मंडरा कर |
इवै | उसी पर |
अर्थ : यह माया रूपी दीपक पर मानव रूपी पतंगा मंडरा-मंडरा कर उसी दीपक के प्रकाश पर गिर कर नष्ट होता है और कबीर कहते हैं कि इस माया दीपक के आकर्षण से कोई एकाध विरले ही गुरु से ज्ञान प्राप्त कर बच पाते हैं।
कोई विशेष व्यक्ति ही, जिसको सच्चा गुरु मिलता है, वही इस दीपक की लौ से बच सकता है। केवल सच्चे गुरु का ज्ञान ही उसे बचा सकता है।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने आपको “Gurudev Ko Ang – Kabir Dohe | गुरुदेव कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोहे” के कुल 1 से 20 पदों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। उम्मीद है कि आपको इसका मूल-भाव और भावार्थ अच्छे से समझ आया होगा। आप इन सभी पदों को परीक्षा की दृष्टि से अवश्य तैयार कर लेवे। ये बहुत ही महत्वपूर्ण नोट्स है।
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