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    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र

    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र : आचार्य भरतमुनि रस संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। उन्होंने नाट्य शास्त्र की रचना की औरउसमें नाटक के मूल तत्वों का विवेचन करते हुए रस का भी विवेचन किया है। वह रस को नाटक का प्राण मानते हैं।

    भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में जो रस सूत्र दिया वह इस प्रकार है :

    “विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगादर्श निष्पत्ति : ”

    अर्थात विभाव, अनुभव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।



    भरतमुनि के अनुसार :

    ” जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों, औषधियों एवं द्रव्य पदार्थों के मिश्रण से भुज रस की निष्पत्ति होती है ; उसी प्रकार नाना प्रकार के भावों के संयोग से स्थाई भाव भी नाट्य रस को प्राप्त हो जाते हैं। “

    भरतमुनि के अनुसार :

    ” रस नाटक का वह तत्व होता है जो कि सहृदय को आस्वाद प्रदान करता है और
    जिसके आस्वाद से वह हर्षित हो उठता है। ”

    मुनिजी रस को आस्वाद्य मानते हैं , आस्वाद नहीं I रस विषयीगत भी नहीं होता है, वह विषयगत होता है। विभावादी के संयोग से स्थाई भाव ही रस रूप में परिणत होता है।


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र का व्याख्याकार


    Bharat Muni Ka Ras Sutra | भरतमुनि का रससूत्र का व्याख्याकार : रससूत्र के प्रमुख व्याख्याकार चार हैं, जिनके नाम है –

    1. भट्ट लोल्लट
    2. आचार्य शंकुक
    3. भट्ट नायक
    4. आचार्य अभिनव गुप्त।

    1. आचार्य भट्ट लोल्लट | Acharya Bhatt Lollat

    भरतमुनि के रस सूत्र की व्याख्या करने वाले पहले आचार्य हैं। इनके दर्शन को मीमांसा दर्शन कहते हैं। इनकी व्याख्या आचार्य भरतमुनि की व्याख्या के सर्वाधिक निकट की है।

    भट्ट लोल्लट सिद्धांत को उत्पत्तिवाद, आरोपवाद, प्रतीतिवाद या उपचयवाद कहा जाता है। आचार्य भट्ट लोल्लट कहते हैं कि सहृदय अनुकर्ता नट को देखकर आनंद की प्राप्ति नहीं करता बल्कि वह अनुकर्ता में अनुकार्य का आरोप करके आनंद की प्राप्ति करता है।

    आचार्य भट्ट लोल्लट ने रस की मूल स्थिति को अनुकार्य में और गौणत: अनुकर्ता में स्वीकार किया है। इनके अनुसार सामाजिक या सहृदय में केवल स्थाई भाव होता है, रस नहीं। इनके सिद्धांत में सामाजिक कोई महत्व नहीं दिया गया है ।

    इन्होंने निष्पत्ति से अर्थ लिया है – उत्पत्तिसंयोग से अर्थ लिया है – उत्पाद्य उत्पादक भाव संबंध


    2. आचार्य शंकुक | Acharya Shankuk

    आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद :

    रस सूत्र के दूसरे व्याख्याता आचार्य शंकुक है। यह अनुमितिवादी आचार्य हैं। आचार्य महिम भट्ट ने अपने ग्रंथ “व्यक्ति विवेक” में शंकुक के अनुमिति वाद का समर्थन किया है।

    आचार्य शंकक के अनुसार प्रेक्षक अनुकर्ता को देखकर आनंद की प्राप्ति नहीं करता बल्कि अनुकर्ता में अनुकार्य की अनुमानिक कल्पना करके आनंद की प्राप्ति करता है।

    इस संदर्भ में आचार्य शंकुक ने अपने चित्र-तुरंग न्याय की परिकल्पना करके अपने सिद्धांत की पुष्टि की है। जैसे दीवार पर चित्रित घोड़े को देखकर उन्हें वास्तविक समझ लिया जाता है।

    आचार्य शंकुक पहले आचार्य हैं जिन्होंने पहली बार गौण मात्रा में ही सही लेकिन सामाजिक को महत्व प्रदान किया है। इन्होंने रस की मूल स्थिति को अनुकार्य में और गौणत: सामाजिक में मानी है। इन्होंने अनुकर्ता में केवल स्थाई भाव माना है रस नहीं।

    आचार्य शंकुक ने काव्य प्रतीति को लौकिक प्रतीति से विलक्षण बताकर रस की अलौकिकता सिद्ध की है। इन्‍होने कल्पना तत्व को सर्वाधिक महत्व दिया है। इन्‍होने अपने सिद्धांत में अभिनेयत्व को प्रधानता दी है, काव्यत्व को गौणता।

    शंकुक के अनुसार संयोग का अर्थ है – अनुमान और निष्पत्ति का अर्थ है – अनुमिति

    आचार्य शंकुक ने अपने सिद्धांत में अभिनेयत्व को प्रमुखता दी है। ऐसी स्थिति में श्रव्य काव्य में रसानुमिति कैसे संभव होगी? वास्तव में रस तो काव्य में ही होता है। अभिनेय तो उसका पोषक मात्र है।



    3. आचार्य भट्ट नायक | Acharya Bhatt Nayak

    आचार्य भट्ट नायक रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता है। इन्होंने सांख्य दर्शन के आधार पर भरतमुनि के रस सूत्र को विश्लेषित किया है। इनका सिद्धांत भुक्तिवाद कहलाता है।

    इनके अनुसार रस की न तो उत्पत्ति होती है और न अनुमिति होती है अपितु रस की भुक्ति होती है। रस निष्पत्ति में भट्ट नायक को सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि साधारणीकरण व्यापार की कल्पना है। इससे सामाजिक में रसानुभूति का प्रतिपादन सरलता से हो जाता है।

    साधारणीकरण व्यापार की परिकल्पना करके आचार्य भट्ट नायक ने रस को सार्वभौमिक, सार्वजनीन एवं सर्वव्यापक बना दिया। आचार्य भट्ट नायक पहले आचार्य हैं जिन्होंने सामाजिक सहृदय को सर्वाधिक महत्व देते हुए सामाजिक की समस्या का पूर्ण समाधान प्रस्तुत किया।

    भट्टनायक के अनुसार सत्वगुण के उद्रेक में रस की स्थिति होती है। भट्ट नायक काव्य में तीन व्यापारो की बात करते हैं :-

    1. अभिधा
    2. भावकत्व
    3. भोजकत्व।

    भावकत्व की स्थिति रस व साधारणीकरण के निकट की है। भट्टनायक के अनुसार विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावो के द्वारा भोज्य-भोजक भाव संबंध से रस की भुक्ती हो जाती है। भावकत्व व्यापार के द्वारा भाव्यमान स्थायी भाव ही रस के रूप में परिणत हो जाता है।

    अभिनव गुप्त के अनुसार भट्ट नायक के दो नए व्यापार (भावकत्व-भोजकत्व) ना तो अनुभव सिद्ध है और ना ही इनका कोई शास्त्रीय प्रमाण है लेकिन अभिनव गुप्त ने भट्टनायक के साधारणीकरण व्यापार को स्वीकार किया है।

    भट्टनायक ने रस को विद्यान्तर स्पर्श शुन्य एवं ब्रह्मानंद सहोदर कहा है।


    4. आचार्य अभिनव गुप्त | Acharya Abhinav Gupt

    रस सूत्र के चौथे व्याख्याता आचार्य अभिनव गुप्त हैं। उनके अनुसार रस की न तो उत्पत्ति होती है और न अनुमिति होती है और न ही भुक्ति होती है अपितु रस की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए उनका मत अभिव्यक्तिवाद कहलाता है।

    इनका दर्शन वेदांत दर्शन है और इनके सिद्धांत को अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है।

    इन्होंने निष्पत्ति से अर्थ लिया है – अभिव्यक्ति। संयोग से अर्थ लिया है – व्यंग्य -व्यंजक भाव संबंध

    अभिनव गुप्त के सिद्धांत में रस ध्वनि का सुंदर समन्वय हुआ है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार रस व्यंग्य है और विभावादी व्यंजक है। ध्वनि वादियों की व्यंजना शब्द शक्ति ही रस की अभिव्यक्ति करती है।

    अभिनव गुप्त का रस सिद्धांत शैव मत पर आधारित है। जिस प्रकार यह जगत शिव की इच्छा की अभिव्यक्ति है उसी प्रकार प्रेक्षक के मन में वासना रूप से अवस्थित स्थाई भाव की निर्विघ्नं अभिव्यक्ति रस है।

    इन्होंने रस की सत्ता को आत्मगत माना है। रस सामाजिक के हृदय में व्याप्त रहता है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार –

    “रस न तो कार्य है , न हीं ज्ञाव्य । न तो वह निर्वैक्तिक ज्ञान का विषय है,
    न हीं सविकल्प ज्ञान का विषय अपितु वह तो उभयात्मक है।”

    आचार्य अभिनव गुप्त

    चर्वणा दशा में रस पूर्णत: आत्मविश्रान्तिक रुप होता है। मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधार भूमि पर स्थापित होने के कारण अभिनव गुप्त का सिद्धांत सर्वमान्य बन गया है।


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