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Meera Muktavali Bhavarth मीरा मुक्तावली के पदों की व्याख्या (16-20)
Meera Muktavali Bhavarth Edited by Narottamdas Swami in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! आज हम नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के अगले 16-20 पदों का शब्दार्थ सहित भावार्थ समझने जा रहे है। तो चलिए जल्दी से शुरू करते है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali Bhavarth मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (16-20)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 16-20 Pad Bhavarth in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 16 से लेकर 20 तक के पदों की भावार्थ सहित व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 16.
Meera Muktavali 16-20 Pad Bhavarth in Hindi
या ब्रज में कछु देख्यो री टोना।
लै मटुकी सिर चली गुजरिया, आगे मिले बाबा नंदजी के छोना।
दधि को नाम बिसरि गयो प्यारी, ले लेहु री कोउ स्याम सलोना।।
बिंद्राबन की कुंज-गलिन में, नेह लगाइ गयो मन-मोहना।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सुंदर स्याम सुघर रस-लोना।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | या | इस |
2. | टोना | टोटका/ जादू |
3. | छोना | पुत्र |
4. | मटुकी | मटका |
5. | विसरी | भूल गई |
6. | नेह | प्रेम |
7. | सुघर | चतुर |
8. | रस-लोना | रसिक मनोहर |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई ब्रज के संदर्भ में कह रही है कि मैंने इस ब्रज में कोई जादू या टोटका देखा है। गुजरिया सिर पर मक्खन का मटका लेकर जा रही है और आगे रास्ते में नंदबाबा का पुत्र मिल जाता है अर्थात् श्रीकृष्ण मिलते हैं। उनको देखकर गोपियों पर कुछ ऐसा जादू हुआ कि दही का नाम तो वे भूल गई और लेलो रे कोई श्याम सलोना कहकर बोलने लग गई।
श्रीकृष्ण जी को देखकर वे सब सुध-बुध भूल गई और वृंदावन की, जो कुँज-गलियाँ है, उनमें गोपियों के मनमोहन ने प्रेम फैला दिया है। मीरा के प्रभु श्री गिरधर नागर हैं और वे सब-कुछ सुंदर श्याम ही है। मेरे श्याम चतुर और रसिक मनोहर है।
पद : 17.
Meera Muktavali Bhavarth – Narottamdas Swami in Hindi
लागी सोही जाणै, कठण लगण दी पीर।
विपत्ति पड्यां कोई निकट न आवै, सुख में सब को सीर।।
वाहरि घाव कछूँ नहिं दीसै, रोम-रोम दी पीर।
जन मीरां गिरधर कै ऊपर सदकै करूं सरीर।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | लागी | जिसे लगी हो |
2. | सोही | वही |
3. | जाणै | जानेगा |
4. | लगण | प्रेम |
5. | दी | की |
6. | पीर | पीड़ा |
7. | सीर | हिस्सा |
8. | दीसै | दिखलाना |
9. | सदकै | न्योछावर |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि जिसको प्रेम पीर लगी हो, उसकी पीड़ा वही जानता है। प्रेम की पीड़ा बड़ी कठिन होती है। जब विपत्ति पड़ती है तो कोई पास भी नहीं आता है, पर सुख में सब को हिस्सा चाहिए। बाहर कोई घाव दिखलाई नहीं देता है, लेकिन रोम-रोम में पीड़ा समाहित है। मीराबाई कहती है कि मैं तो गिरधर के ऊपर अपने शरीर को न्योछावर करती हूँ।
पद : 18.
Meera Muktavali Ki Pad-Bhavarth Shabdarth Sahit in Hindi
लगन का नावं न लीजै, री भोळी !
लगन लगी को पैडो ही न्यारो, पाँव धरत तन छीजै।
जै तूं लगन लगायी चाहै, सीस को आसन कीजै।
लगन लगी जैसे पतंग दीप से, वारि-फेर तन दीजै।
लगन लगी जैसे मिरघा नाद से, सनमुख होय सिर दीजै।
लगन लगी जैसे चकोर चन्द से, अगनी भक्षण कीजै।
लगन लगी जैसे मछियन जल से, बिछड़त तन ही दीजै।
लगन लगी जैसे भंवर पुसप से, फूलन बीच रहीजै।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, चरण-कंवळ चित दीजै।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | लगन | प्रेम की |
2. | नावं | नाम |
3. | पैडौं | मार्ग |
4. | न्यारो | निराला |
5. | वारि-फेरी | न्योछावर करके |
6. | मिरघा | मृग |
7. | नाद | वीणा का स्वर |
8. | भक्षण | खाना |
9. | पुसप | पुष्प |
10. | वीच | मध्य |
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि हे सखी ! तुम प्रेम की बात मत करो। जिसको प्रेम की लगन लग जाती है, उसका तो मार्ग ही निराला हो जाता है। इस मार्ग पर पांव रखने से शरीर क्षीण होता जाता है, क्योंकि शरीर विरह का कष्ट पाता रहता है। यदि तू लगन लगाना चाहती है तो हे सखी ! अपने शीश को आसन बनाना होगा अर्थात् अत्यंत विकट कार्य होगा।
अब जैसे लगन लगती है पतंगा को दीप से तो पतंगा अपना सब कुछ नष्ट कर देता है और अपना शरीर न्योछावर कर देता है। जैसे मृग वीणा की स्वर लहरी में मुग्ध हो जाता है और शिकारी बड़ी आसानी से शिकार कर लेता है। सामने आते ही वह अपना सिर प्रदान कर देता है।
आगे फिर मीराबाई कह रही है कि जैसे चकोर प्रेम करता है चंद्रमा से और चकोर को चंद्रमा से इतना प्रेम है कि वह अग्नि को खाता है, क्योंकि अग्नि में उसको चंद्रमा की चमक की भ्रांति होती है। जैसे मछली जल से प्रेम करती है और जल से बिछुड़ते ही वह अपने प्राण त्याग देती है। भँवर जैसे पुष्प से प्रेम करता है और फूल के मध्य बंद हो जाता है, वैसे ही मीरा के प्रभु गिरधर नागर है। मैं तो उनके कमल रूपी चरणों में ही चित्त लगाती हूँ।
पद : 19.
Meera Muktavali Bhavarth with Hard Meanings in Hindi
अैसी लगन लगाइ कहां तूं जासी ?
तुम देखे बिन कल न परत है, तलफि-तलफि जिव जासी।।
तेरे खातिर जोगण हूंगी, करवत लूंगी कासी।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, चरण-कंवळ की दासी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | अैसी | ऐसी |
2. | लगन | प्रेम |
3. | जासी | चला गया है |
4. | तलफि-तलफि | तड़प-तड़प कर |
5. | जिव | प्राण |
6. | कल | शांति |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि इस प्रकार की लगन लगाकर के हे कान्हा ! तू कहाँ चला गया है। तुम्हें देखे बिना मुझे शांति नहीं पड़ती है और तड़प-तड़प कर मेरे प्राण जा रहे हैं। तेरे लिये मैं जोगन (सन्यासिन) हो गई हूँ और मैं काशी में करवट लूँगी। हे मीरा के प्रभु गिरधर नागर ! मैं तो तुम्हारे चरण कमलों की दासी हूँ।
पद : 20.
Meera Muktavali Ke Pad 16-20 Ka Bhavarth in Hindi
जोगी ! मत जा, मत जा, मत जा,
पाइं परूँ, मैं चेरी तेरी हौं।
प्रेम-भगति को पैड़ो ही न्यारो, हम कूँ गैल बता जा।
अगर-चंदण की चिता बणाऊँ, अपणे हाथ जळा जा।।
जळ-बळ भयी भसम की ढेरी, अपणे अंग लगा जा।
मीरां कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | जोगी | श्रीकृष्ण |
2. | चेरी | दासी |
3. | पेडौं | मार्ग |
4. | पाइं | चरण |
5. | जोत | ज्योति |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि हे जोगी अर्थात् श्रीकृष्ण मत जा, मत जा। मैं तुम्हारे पाँव पडती हूँ, प्रार्थना कर रही हूँ। मैं तुम्हारी दासी हूँ। हे जोगी ! हमने आपसे प्रेम-भक्ति की है। इस प्रेम-भक्ति का मार्ग ही न्यारा है तो हमको कुछ रास्ता तो बता जाओ कि मैं आपसे कैसे मिल पाऊँगी।
मैं अगर और चंदन की चिता बना लेती हूँ और तू मुझे अपने हाथों से जलाकर चला जा। उस जलने के बल पर मैं भस्म की ढेरी बन जाऊँगी तो हे जोगी ! उस भस्म को अपने अंगों पर लगा जा, जिससे मुझे आपसे निकटता का बोध मिल जायेगा। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, जीवात्मा से परमात्मा को एकाकार कर ले, ज्योति से ज्योति को मिला जा।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के 16-20 पदों का शब्दार्थ सहित भावार्थ समझा। फिर मिलते है आगे के कुछ पदों के साथI
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एक गुजारिश :
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