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Meera Muktavali Bhav मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (11-15)
Meera Muktavali Bhav Edited by Narottamdas Swami in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! हम अब तक नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली” के कुल 10 पद पढ़ चुके है। आज हम इसके अगले 11-15 पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या समझने जा रहे है :
नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित “मीरा मुक्तावली“ के पदों का विस्तृत अध्ययन करने के लिये आप
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Meera Muktavali Bhav मीरा मुक्तावली के पदों की विस्तृत व्याख्या (11-15)
Narottamdas Swami Sampadit Meera Muktavali Ke 11-15 Pad Bhav in Hindi : दोस्तों ! “मीरा मुक्तावली” के 11से लेकर 15 तक के पदों की व्याख्या निम्नानुसार है :
पद : 11.
Meera Muktavali 11-15 Pad Bhav in Hindi
या मोहन के मैं रूप लुभानी।
सुंदर बदन, कमल-दल-लोचन, वांकी चितवन, मंद मुसकानी।।
जमना के नीरे-तीरे धेन चरावै, बंसी में गावै मीठी बानी।
तन मन धन गिरधर पर वांरू, चरण-कंवल मीरा लपटानी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | लुभानी | लुभा गई हूँ |
2. | वांकी | टेढी |
3. | चितवन | दृष्टि |
4. | नीरे | जल |
5. | तीरे | किनारा |
6. | धेन | गाय |
7. | वांरू | न्योछावर |
8. | लपटानी | लिपटना |
व्याख्या :
दोस्तों ! मीराबाई कहती है कि मैं इस मोहन के रूप पर लुभा गई हूँ। ये मोहन सुंदर मुख के हैं। इनके नेत्र कमल के दल के समान है। इनकी टेढ़ी दृष्टि है और ये मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।
ये यमुना के जल के किनारे गाय चरा रहे हैं और अपनी बंसी से मीठी-मीठी मंद ध्वनि निकाल रहे हैं। मैं तन-मन=धन अर्थात् संपूर्ण समर्पण, उन पर न्योछावर करती हूँ। मैं उनके कमल रूपी चरणों से लिपटकर रहना चाहती हूँ।
पद : 12.
Meera Muktavali Bhav – Narottamdas Swami in Hindi
मैं तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार, बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गयी कुमत, लयी साध की संगत, भगत-रूप भयी सांची।
गाइ-गाइ हरि के गुण निसदिन, काल-ब्याल सों वांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काची।
मीरा श्रीगिरधर लाल सूं भगति रसीली जाची।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | राची | रंग गई हूँ |
2. | तजि | त्यागकर |
3. | कुमत | कुबुद्धि |
4. | सांची | सच्चे |
5. | व्याल | साँप |
6. | वांची | बच गई हूँ |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि मैं तो साँवरे श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ। संपूर्ण साज-श्रृंगार करके पैरों में घुँघरू बांध करके, लोक-लाज त्याग करके मैं तो नाच रही हूँ। आगे मीरा बाई कहती है कि ईश्वर जी के भक्त लोग ही सच्चे हैं और ऐसे साधुओं की संगत करके मेरी कुबुद्धि नष्ट हो गई है।
मैं अब अपने प्रभु श्रीकृष्ण जी के गुणों को रात-दिन गाती रहती हूँ और मैं काल रुपी साँप से भी बच गई हूँ। मीरा कहती है कि श्रीकृष्ण जी के बिना यह सारा संसार शुष्क है। संसार की सभी बातें मुझे कच्ची लगती है अर्थात् झूठी लगती है।
मीराबाई कहती है कि गिरधर लाल से मेरी भक्ति रसीली है। मेरे मन ने जाँच लिया है कि श्रीकृष्ण जी की भक्ति रसीली है। यह संसार सब मिथ्या है।
पद : 13.
Meera Muktavali Ki Pad-Bhav Shabdarth Sahit in Hindi
मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।।
रैण पड़ै तब ही उठ जाऊँ, भोर भये उठ आऊँ।
रैण-दिना वा के संग खेलूँ, ज्यूँ-त्यूँ ताहि रिझाऊँ।।
जो पहिरावै सोई पहरूँ, जो देवे सोई खाऊँ।
मेरी उण की प्रीत पुराणी, उण विन पल न रहाऊँ।।
जहाँ बैठावें तित ही बैठूँ, बेचै तो बिक जाऊँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | म्हाँरो | मेरा |
2. | साँचो | सच्चा |
3. | भये | हो जाने तक |
4. | रैण | रात्रि |
5. | ताहि | उसे |
6. | उण विन | उनके बिना |
7. | तित | वही |
8. | बलि | न्योछावर |
व्याख्या :
मीराबाई कह रही है कि मैं तो गिरधर के घर जा रही हूँ। गिरधर ही मेरा सच्चा प्रियतम है और मैं उनके रूप को देखते ही लुभा जाती हूँ। रात्रि होते ही मैं उठ जाती हूँ और सुबह हो जाने तक मैं जगी ही रहती हूँ।
रात-दिन में श्रीकृष्ण जी के साथ खेलती हूँ और जैसे-तैसे मैं अपने प्रभु श्रीकृष्ण जी को रिझाती हूँ। मुझे जो, वो पहनने के लिये देते हैं, वही पहनती हूँ। जो खाने को देते हैं, वही मैं खाती हूँ।
मेरा प्रेम उनसे बहुत पुराना है। उनके बिना तो मैं पल भर भी नहीं रह सकती। जहाँ बिठाते हैं, वहीं बैठ जाती हूँ और वो मुझे बेच दे तो मैं बिक भी जाऊँगी। मैं बार-बार अपने प्रियतम गिरधर नागर पर न्योछावर हो जाती हूँ।
पद : 14.
Meera Muktavali Bhav with Hard Meanings in Hindi
आली री ! मेरे नैणाँ बाण पड़ी।
चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरति, उर विच आन अड़ी।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ, अपणै भवन खड़ी।।
कैसे प्राण पिया बिन राखूँ, जीवन-मूर जड़ी।
मीरां गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहें बिगड़ी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | आली | सखी |
2. | नैणाँ | नेत्र |
3. | चित्त | मन |
4. | उर | ह्रदय |
5. | विच | मध्य |
6. | आन | आकर |
7. | ठाढ़ी | खड़ी |
व्याख्या :
मीरा कहती है कि हे सखी ! मेरे नेत्रों को आदत पड़ गई है कि श्रीकृष्ण जी की सुंदर मूरति मेरे हृदय में आकर स्थिर हो गई है और मैं अपने घर पर खड़ी अपने प्रियतम का रास्ता निहार रही हूँ। मैं कैसे अपने प्राणों को प्रियतम के बिना रख सकूँगी ?
मेरे प्राणों के आधार और मेरे संजीवनी-बूटी तो श्रीकृष्ण जी हैं। मीरा तो गिरधर के हाथों बिक गई है अर्थात् श्रीकृष्ण जी के प्रेम में बिक चुकी है, पर लोग कहते हैं कि मीरा बिगड़ गई है।
पद : 15.
Meera Muktavali Ke Pad 11-15 Ka Bhav in Hindi
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची,
मैं तो मेरे नारायण सूं , आपहि हो गई साची।
लोग कहै, मीरा भइ बावरी, न्यात कहै कुळ-नासी।।
विस का प्याला राणा भेज्या, पीवत मीरां हाँसी।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर, सहज मिले अविनासी।।
शब्दार्थ :
क्र.सं. | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
1. | साची | सच्ची |
2. | भइ | हो गई |
3. | न्यात | कुटुम्ब के लोग |
4. | नासी | नष्ट करने वाली |
5. | विस | विष |
व्याख्या :
मीरा पैरों में घुँघरू बांध कर नाचती है और कहती है कि मैं तो मेरे नारायण के सच्चे रंग में रंग गई हूँ अर्थात् पूर्ण रूप से नारायण की हो गई हूँ। लोग मीरा को पागल कहते हैं और कुटुंब के लोग कुलनासी कहते हैं। मीरा कुल को नष्ट करने वाली है।
मीरा के लिये राणा ने विष का प्याला भेजा और मीरा ने उसे हँसी-हँसी में पी लिया। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, जो अविनाशी है, वे मीरा को सहज में ही मिल गये हैं। मैंने उनको सहज में ही प्राप्त कर लिया है।
इसप्रकार दोस्तों ! आज हमने “मीरा मुक्तावली” के 11-15 पदों का शब्दार्थ सहित भाव समझा। अगले अध्याय में आगे के कुछ पदों के साथ फिर मिलते है।
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एक गुजारिश :
दोस्तों ! आशा करते है कि आपको “Meera Muktavali Bhav मीरा मुक्तावली की शब्दार्थ सहित व्याख्या (11-15)” के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I
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