Kamayani Mahakavya | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 3


Kamayani Mahakavya Ka Chinta Sarg in Hindi : दोस्तों ! कामायनी महाकाव्य जयशंकर प्रसाद की रचना है। यह रचना RPSC द्वारा आयोजित कॉलेज लेक्चरर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। जैसाकि आप जानते हैं कि कामायनी में 15 सर्ग हैं और हम इसके चिंता सर्ग का अध्ययन कर रहे हैं।

इस सर्ग में मनु प्रलयकारी स्थिति के बाद चिंताग्रस्त स्थिति में बैठे हैं। वह एक साधक की भांति बैठे हैं। उसी स्थिति का वर्णन यहां कवि कर रहे हैं। चिंता सर्ग के कुछ पदों का अध्ययन हम कर चुके हैं। अब हम आगे के कुछ पदों का अध्ययन करने जा रहे है :


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Kamayani Mahakavya | कामायनी के चिंता सर्ग के पदों की व्याख्या


Kamayani Mahakavya Ke Chinta Sarg Ke Pado Ki Vyakhya in Hindi : दोस्तों ! आज के नोट्स में हम आपको कामायनी के अगले 13 से 17 पदों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत कर रहे है, जो इस प्रकार से है :

पद : 13.

Jaishankar Prasad Krit Kamayani Mahakavya Chinta Sarg Pad in Hindi

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी- अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

अर्थ :

जयशंकर प्रसाद कह रहे हैं कि चिंता मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार की व्यथाओं को उत्पन्न करने वाली है। इसके कारण न केवल मन व्याकुल रहता है, अपितु शारीरिक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं।

चिंता के कारण मन हमेशा व्याकुल रहता है और यह अभिशाप तो है ही, पर इसे एक मधुर अभिशाप ही समझना चाहिए। अगर जीवन में चिंता नहीं होगी तो मनुष्य सुख प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न ही नहीं कर पायेगा और वह जीवन की मधुरता से वंचित रह जायेगा।

चिंता का उदय उसी प्रकार विध्वंस का द्योतक है, जिस प्रकार आकाश में पुच्छल तारे के उदय होने पर सृष्टि में विनाश की आशंका होने लगती है। इस प्रकार चिंता एक कल्याणकारी भाव होते हुए भी एक सुंदर पाप के समान है, क्योंकि उसका परिणाम अंत में अच्छा ही होता है।


पद : 14.

Kamayani Ke 13 to 17 Pado Ka Arth Bhaav in Hindi

मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

अर्थ :

मनु चिंता को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि अपितु तू आज मुझे इतना सोच विचार करवा कर, इतना व्यथित कर रही है, पर मुझे इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है। मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि जीव परमात्मा का ही अंश है, इसलिए वह अमर है और इसमें कोई संदेह नहीं है।

जीवात्मा को नष्ट करने की शक्ति किसी में नहीं है। मनु यही कहते हैं कि चिंता के कारण, चाहे मुझे कितना भी दु:ख क्यों ना हो, लेकिन यह किसी भी प्रकार से मेरे जीवन का अंत नहीं कर सकती।

इन पंक्तियों में मनु का अदम्य आत्मविश्वास व्यक्त हुआ है और दार्शनिकता की साफ़ झलक दिखाई देती है। यहां कवि यह स्पष्ट करना चाह रहे हैं कि जीवात्मा तो अमर रहती है। हमारा बाहरी शरीर ही नष्ट होता है। जीवात्मा को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचती है।



पद : 15.

Kamayani Ke Pratham Chinta Sarg Ke 13 to 17 Pado Ki Vyakhya

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन-सी।

अर्थ :

मनु कहते हैं कि जिस प्रकार पृथ्वी में छुपे हुए धन का पता उसी व्यक्ति को होता है, जो उसे छुपाता है। उसी प्रकार चिंता भी मनुष्य के अंतः करण में छिपी रहती है और उसका पता वही जान पाता है, जो चिंता से ग्रस्त होता है।

जिस प्रकार लहराते हुए खेतों पर ओलावृष्टि करने वाले बादल घराते रहते हैं, उसी प्रकार चिंता का आवागमन भी ओलो भरे मेघ के समान ही विनाशकारी है।


पद : 16.

Kamayani Mahakavya Ke Pahle Sarg Ki Vyakhya in hindi

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

अर्थ :

मनु का कहना है कि चिंता के ना जाने कितने नाम है। चिंता अथवा चिंतन द्वारा ही मनुष्य सत्य और असत्य का निर्णय कर पाता है। यह प्रबुद्धि कहलाती है। हृदय में ज्ञान उत्पन्न करती है। अतः इसे मनीषा भी कहा जाता है।

चिंता ही मति भी कहलाती है, क्योंकि मनुष्य उसी की सहायता से किसी विवाद ग्रस्त विषय के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा बना पाता है। मनुष्य की शोकावस्था में चिंता ही आशा के रूप में सांत्वना प्रदान करती है।

मनु यह भी कहते है कि चिंता के इतने रूप है कि वह जिस रूप में उनके हृदय में उदय हुई है, वह अत्यंत अशुभ है। और अब उसे उनके हृदय से शीघ्र ही हट जाना चाहिए। क्योंकि अब यहाँ पर उसका कुछ भी काम नहीं है। प्रस्तुत पंक्तियों में चिंता को पाप कहा गया है।



पद : 17.

Kamayani Mahakavya Ka Pratham Sarg-Pad Arth Vyakhya in hindi

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।”

अर्थ :

चिंता से व्याकुल मनु कहते हैं कि विस्मृति को उनके मस्तिष्क में छा जाना चाहिए। ताकि वह अतीत की ओर की सुखद स्मृतियों को भुला सके, जिन्हें स्मरण कर आज उन्हें रह-रहकर पीड़ा हो जाती है।

मनु यह भी कहना चाहते हैं कि उनके शरीर में शिथिलता आ जाये, जिससे उनमें तनिक भी सोचने-विचारने की क्षमता ना रहे। और ना ही सोचने-विचारने का उत्साह ही रहे। इस प्रकार शांति की भावना को संबोधित करके मनु अपने हृदय में उठने वाली समस्त हलचलों को शांत करना चाहते हैं और अपनी समस्त चेतना को विलुप्त होती हुई भी देखना चाहते हैं, ताकि उन्हें किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक व्यथा की अनुभूति ना हो।

वस्तुतः संज्ञानता की अवस्था में ही मनुष्य को सुख और दु:ख की अनुभूतियां हो पाती है। और इसलिए सुख की अवस्था में मनुष्य स्वाभाविक रूप से यह अभिलाषा करने लगता है कि चेतना की अपेक्षा जड़ता ही उचित है, क्योंकि जड़ प्रकृति को दु:ख का भान / आभास नहीं होता है।

प्रस्तुत पंक्तियों में मानव मन का स्वाभाविक निरूपण किया गया है। कवि यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सुख और दु:ख की अनुभूति स्वाभाविक है । चेतनता और जड़ता दोनों को ही रुचिकर समझना चाहिए। प्रस्तुत पंक्तियों में कामायनी की कथावस्तु का बीज विद्यमान है, क्योंकि इन पंक्तियों में मनु चिंता को दूर भगाना चाहते है। साथ ही विस्मृति और जड़ता को बुलाते हुये अपने हृदय में शून्यता भरना चाहते है। ताकि उनके हृदय की समस्त हलचल शांत हो जाये तथा उन्हें चिर-शांति और आनंद प्राप्त हो जाये।

दोस्तों प्रसाद जी की कामायनी का मुख्य कार्य भी आनंद की प्राप्ति करना ही है। इन पंक्तियों में मनु इसी आनंद के लिए व्याकुल दिखाई देते हैं।


अंतिम बात :

इसप्रकार आज हमने Kamayani Mahakavya | कामायनी महाकाव्य के चिंता सर्ग के 13-17 पदों को विस्तार से समझ लिया है। इसी क्रम में हम आगे के पदों की भी विस्तृत व्याख्या लेकर आने वाले है। तो जुड़े रहिये हमारे साथ। धन्यवाद !

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एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Kamayani Mahakavya | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 3 के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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