Jaishankar Prasad Krit Kamayani | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 4


नमस्कार दोस्तों ! कामायनी महाकाव्य जयशंकर प्रसाद की एक उत्कृष्ट कृति है। इसमें 15 सर्ग है, जिसमें सबसे पहला सर्ग चिंता सर्ग है। यह चिंता सर्ग हमारे कॉलेज लेक्चरर की परीक्षा के पाठ्यक्रम में लगा है। आज हम “Jaishankar Prasad Krit Kamayani | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 4” का विस्तार से अध्ययन करने जा रहे हैं। इसी क्रम में हम आगे के पदों को समझने जा रहे हैं :

आप जयशंकर प्रसाद कृत “कामायनी महाकाव्य” का विस्तृत अध्ययन करने के लिए नीचे दी गयी पुस्तकों को खरीद सकते है। ये आपके लिए उपयोगी पुस्तके है। तो अभी Shop Now कीजिये :


कामायनी महाकाव्य के चिंता सर्ग के पदों की व्याख्या


Jaishankar Prasad Krit Kamayani | कामायनी महाकाव्य के चिंता सर्ग के 18-24 पदों की विस्तृत व्याख्या इसप्रकार से है :

पद : 18.

Jaishankar Prasad Krit Kamayani Chinta Sarg Pad Vyakhya in Hindi

चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जात, रेखायें दु:ख की।

अर्थ :

मनु कहते हैं कि विगत दिनों की मनोहर स्मृतियों के संबंध में, वे जितना अधिक सोचते हैं, उतना ही अधिक उन्हें दु:ख होता है। वास्तव में चिंताग्रस्त मानव मन में अतीत की स्मृतियों का उभरना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। और वे स्मृतियां व्यथित चित्र को और भी दुखी कर देती है।



पद : 19.

Kamayani Ke 18 to 24 Pado Ka Arth Bhaav in Hindi

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।

अर्थ :

मनु देवजाति के पतन की कहानी सुनाते हुये कहते है कि जिन देवताओं का जन्म इस धरती पर सबसे पहले हुआ था और जिन्हें इस सृष्टि का अग्रदूत कहा जाता था, उन्हीं का आज अस्तित्व ही समाप्त हो गया है और वे इस अपार जल राशि में विलीन गये।

जिस प्रकार मछलियां स्वयं ही अपनी जाति का विस्तार करती है, परंतु एक समय ऐसा भी आता है, जब वे परस्पर एक-दूसरे को खाकर स्वयं ही नष्ट कर देती है। इस प्रकार जिन देवताओं ने अपनी जाति का उत्थान किया था। उन्होंने आठों पहर विलास में ही लीन रहकर अपने आप को नष्ट कर डाला। कवि यह संकेत करना चाहते हैं कि जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार बड़ी शक्ति छोटी शक्ति को नष्ट कर देती है।


पद : 20.

Jaishankar Prasad Krit Kamayani Ke Chinta Sarg Ka Hindi Arth

अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नर्तन,
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावर्तन।

अर्थ :

प्रस्तुत पंक्तियों में मनु कह रहे हैं कि जल प्रलय पूर्व दिन-रात आंधियों और बिजलियों का भयंकर नृत्य होता रहा अर्थात् दिन-रात आंधियाँ चलती थी और बिजलियाँ भी गिरती थी। पर देवगण भोग विलास में ही लीन रहे और उस विलासितापूर्ण जीवन से बैरंग नहीं हुए। प्रकृति ने इस प्रकार आंधी चलाकर और बिजली गिराकर देवताओं को वासना से विमुक्त करने का भरसक प्रयास किया, परंतु वे जब सचेत नहीं हुये तो पुनः अपना भीषणतम रूप धारण कर उन्हें सर्वथा नष्ट कर दिया।



पद : 21.

Kamayani Ke Pratham Chinta Sarg Ke 18 to 24 Pado Ki Vyakhya

मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अर्थ :

मनु कहते हैं कि जिस देवजाति को अभी तक इस बात का अहंकार था कि उसका विनाश कोई भी नहीं कर सकता। वे ही अब इस जल प्रलय के कारण नष्ट हो गये। देवताओं के अहंकार के कारण ही इसप्रकार उनका नाश हुआ और अब मनु को अपना भविष्य भी निराशापूर्ण और अंधकारमय लग रहा था।

उनका कहना है कि जिस प्रकार अंधकारपूर्ण स्थान पर रखा हुआ एक छोटा सा दीपक केवल अपने आस-पास ही थोड़ा सा प्रकाश कर पाता है। अपने चारों ओर व्याप्त तिमिर राशि को पूर्ण रूप से नष्ट कर देने की शक्ति उसमें नहीं रहती है, उसी प्रकार आज वह स्वयं भी अपने भविष्य के विषय में कुछ भी सोचने विचारने में असमर्थ है। प्रस्तुत पंक्तियों में प्रसाद जी यह संकेत करना चाह रहे हैं कि देवगण अत्यंत बलशाली होते हुए भी जल प्रलय में नष्ट गये और उनका भविष्य अंधकारमय हो गया।


पद : 22.

Jaishankar Prasad Krit Kamayani Ke Chinta Sarg Ke Pado Ka Mool Bhaav in Hindi

अरे अमरता के चमकीले पुतलो, तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद।

अर्थ :

आज तक जिन देवताओं का जयघोष चारों तरफ गूँजा करता था, अब देवजाति का पतन हो जाने से, वे ही जय ध्वनियाँ दीनता और दुःखपूर्ण स्वरों में परवर्तित हो गयी है। कभी जहां विजय घोष होता था, वहां अब दीनता और शोक की सघन छाया दिखायी दे रही है। प्रस्तुत पंक्ति में प्रसाद जी देवताओं को “अमरता के चमकीले पुतले” कहते हैं। ऐसा कहते हुये, वे यह संकेत करते हैं कि परम शक्ति और अतुलित वैभव के कारण देवताओं को ये घमंड हो गया था कि वे अमर है। और अब वह घमंड चूर-चूर हो गया है।



पद : 23.

Kamayani Mahakavya Ke Pahle Chinta Sarg Ko samjhaye in hindi

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में।

अर्थ :

मनु कहते हैं कि अंत में प्रकृति की ही विजय हुई और घमंड के वशीभूत देवताओं को पराजय स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार देवता ये भूल गये थे कि विलासिता की अधिकता से उनका नाश हो जायेगा। वे अज्ञानतावश हमेशा भोग विलास की ही नदी में डूबे रहे और यह कभी नहीं सोचा कि डूबने पर क्या परिणाम होगा। प्रस्तुत पंक्तियों में प्रसाद जी आधुनिक वैज्ञानिकों को भी संकेत करना चाहते हैं कि उन्हें भी ये स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सर्वथा असंभव है।


पद : 24.

Jaishankar Prasad Krit Kamayani Mahakavya Ke Chinta Sarg Pad Kaunse Hai

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।

अर्थ :

मनु कहते हैं कि न केवल वे देवगण ही नष्ट हो गये, जो हमेशा भोग विलास में ही लीन रहा करते थे, बल्कि उनका समस्त ऐश्वर्य भी नष्ट हो गया। आज इस जल प्लावन के कारण उमड़ता हुआ समुद्र चारों ओर दिखाई दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो देवताओं का वैभव ही पानी बनकर इस अगाध सागर के रूप में चारों ओर फैला हुआ है। और वह उनके समस्त सुखों को अपने में लीन कर भारी दुःख ध्वनि कर रहा है।



इसप्रकार आज हमने Jaishankar Prasad Krit Kamayani |कामायनी के चिंता सर्ग के 18-24 पदों का विस्तृत अध्ययन कर लिया है।

उम्मीद है कि आपको इन पदों का अर्थ अच्छे से समझ में आ रहा होगा। आगे के पदों का अर्थ लेकर फिर से मिलते है, अगले नोट्स में। तब तक के लिए आप इन्हें तैयार कर लीजिये। आपका शुक्रिया !

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एक गुजारिश :

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1 thought on “Jaishankar Prasad Krit Kamayani | कामायनी का चिंता सर्ग भाग – 4”

  1. नमस्कार , कृपया मुझे संपूर्ण चिंता सर्ग एवं श्रृद्धा सर्ग के लिए व्याख्या उपलब्ध हो सकती है ?
    में सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी साहित्य को अपना वैकल्पिक विषय के रूप में चयन कर रही हूं
    कृपया आपसे निवेदन है मेरी इस कठिन यात्रा को सुगम मार्ग दर्शा कर सरल बनाए
    धन्यवाद्

    Reply

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