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Bhramar Geet Saar in Hindi | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या


Bhramar Geet Saar in Hindi : नमस्कार दोस्तों ! पिछले नोट्स में हमने रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” के 17वें पद के कुछ भाग की व्याख्या समझ ली थी। पद लम्बा होने के कारण हम पिछले नोट्स में इसे पूरा नहीं कर पाये थे। तो चलिए आज हम पद #17 के शेष भाग 17.3 एवं 17.4 का अध्ययन करते है :

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Bhramar Geet Saar in Hindi | भ्रमरगीत सार व्याख्या [#17.3-4 पद]


Ramchandra Shukla Bhramar Geet Saar in Hindi : दोस्तों ! रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित कृति “भ्रमरगीत सार” के 17वें पद के शेष भाग की व्याख्या इसप्रकार से है :

#पद : 17.3.

Bhramar Geet Saar Vyakhya Bhavarth or Mool Bhaav in Hindi

नासिका-अग्र है तहाँ ब्रह्म को बास
अबिनासी बिनसै नहीं, हो, सहज ज्योति-परकास।।

घर लागै औघूरि कहे मन कहा बँधावै।
अपनो घर परिहरे कहो को घरहि बतावै ?

शब्दार्थ :

क्रम संख्या शब्द अर्थ
01. नासिका-अग्र त्रिकुटी
02. बास निवास
03. जादवजात उद्धव
04. दधिमाखन
05. तोतरे बैन तोतले वचन
06. सौं सौगंध

व्याख्या :

गोपियां आगे कहती हैं कि तुम्हारे ब्रह्म का निवास नेत्र और नासिका के अग्रभाग अर्थात् त्रिकुटी पर कहा जाता है। वह अविनाशी है और कभी नष्ट नहीं होने वाला है। वह स्वयं ज्योति स्वरूप है। तुम्हारा आग्रह है कि हम ऐसे ब्रह्म में अपने मन को एकाग्र करें, परंतु मन की तो यह दशा प्रसिद्ध है कि वह घूम फिरकर पुनः अपनी उसी पूर्व स्थिति में आकर ही विश्राम पाता है। उसे समझा-बुझाकर किसी एक स्थान पर बांधे रखना अथवा एकाग्र करना एक असंभव कार्य है और इसी कारण यह हमारे लिए असंभव है।

इसलिए हमारे लिए संभव नहीं कि हम अपने मन को साकार साक्षात ब्रह्म रूप श्री कृष्ण के अनुराग से वंचित करके तुम्हारे नीरस, निर्गुण ब्रह्म में लगाए यद्यपि यह संभव है कि यह मन पल भर के लिए तुम्हारे समझाने में आकर निर्गुण की उपासना करना प्रारंभ कर दें, किंतु यह निश्चित है कि यह अंततः श्री कृष्ण के अनुराग में ही आनंद प्राप्त करेगा।

कोई व्यक्ति अपने घर का त्याग करके अन्यत्र कहीं भी सुख प्राप्त नहीं करेगा और यही मन की स्थिति है। इस प्रकार हमारे मन श्री कृष्ण की साक्षात प्रीति को त्याग कर घरहीन व्यक्ति की भांति भटककर अन्य किसी ब्रह्म का ठिकाना ढूंढने में असमर्थ है। जब उसे सच्चा और प्रिय आश्रय प्राप्त है तो उसके लिए भटकना उचित भी नहीं है।

मूरख जादवजात हैं हमहिं सिखावत जोग।
हमको भूली कहत हैं हो, हम भूली किधौं लोग?

गोपिहु ते भयो अंध ताहि दुहुं लोचन ऐसे!
ज्ञाननैन जो अंध ताहि सूझै धौं कैसे?

बूझै निगम बोलाइ कै, कहै वेद समुझाय।
आदि अंत जाके नहीं, हो, कौन पिता को माय?

चरन नहीं भुज नहीं, कहौ, ऊखल किन बाँधो?
नैन नासिका मुख नहीं चोरि दधि कौन खाँधो?

व्याख्या :

हे उद्धव ! तुम तो निपट मूढ़ हो, जो हमें ज्ञानमार्गी शिक्षा प्रदान करने आए हो। तुम हमें भ्रमित कर रहे हो, पथभ्रष्ट कर रहे हो, किंतु एक बार विचार करके अपना मन टटोलकर देखो कि वस्तुतः हम पथभ्रष्ट हैं या वे लोग, जो अबलाओं को अपना घर त्यागकर, धूनी रमाकर घर-घर भटकने और अज्ञात भ्रम की खोज करने के लिए कह रहे हैं।

तुम तो हम गोपियों से भी अधिक अंधे प्रतीत हो रहे हो अर्थात् तुम्हारे तो बाहरी और ज्ञान नेत्र दोनों नष्ट हो गए हैं, जिससे तुम ऐसी बहकी-बहकी बातें करते हो। जिसके ज्ञान रूपी नेत्र नष्ट हो गए हो, उसे फिर उचित-अनुचित का भान किस प्रकार हो सकता है ?

शास्त्रों के साक्ष्य देखकर जिस ब्रह्म के विषय में विचार किया जाता है, वेदों के संदर्भ में जिसकी व्याख्या की जाती है, ना कोई आदि है और ना ही अंत है, जिसके माता-पिता अर्थात् जन्मदाताओं के विषय में कोई सूचना नहीं है, जिसके ना तो चरण है अर्थात् जो चलने-फिरने में असमर्थ है, ना उसकी भुजाएं हैं अर्थात् वह कर्म करने में समर्थ नहीं है, फिर भी उसे यहां ब्रज में ऊखल में बांधा गया। ब्रह्म के नेत्र, नासिका और मुख नहीं है, फिर इंद्रियों की सहायता से किसने चोरी करके माखन खाया।

कौन खिलायो गोद में, किन कहे तोतरे बैन?
ऊधो ताको न्याव है, हो, जाहि न सूझै नैन।।

हम बूझति सतभाव न्याव तुम्हरे मुख साँचो।
प्रेम-नेम रसकथा कहौ कंचन की काँचो।।

व्याख्या :

गोपियाँ कहती है कि हमें बताओ तो ऐसा किसके साथ हुआ है, तुम्हारे मत में। कौन यहां आकर ब्रजवासियों की गोद में खेला और किसने अपने तोतले वचनों से सभी को प्रसन्न और आनंदित किया है। हे उद्धव ! तुम्हारी बातें तो आंखों से अंधों को ही उचित और न्याय पूर्ण प्रतीत होगी, किंतु हम ना तो अज्ञानी है और ना ही अंधे।

गोपिया कहती हैं कि तुम हमारी समझ में ज्ञानवान और नेत्रों वाले हो अर्थात् हम तुम्हें न्यायाधीश स्वीकार करती हैं और सत्य भाव से तुम से न्याय चाहती हैं कि हमारे प्रेम मार्ग और तुम्हारी योग साधना में कौनसा मार्ग स्वर्ण के समान शुद्ध और खरा है और कौनसा कांच के समान एक ही झटके से नष्ट हो जाने वाला है अर्थात् त्याज्य है ?

जो कोउ पावै सीस दै ताको कीजै नेम।
मधुप हमारी सौं कहो, हो, जोग भलो किधौं प्रेम।।

प्रेम प्रेम सों होय प्रेम सों पारहि जैए।
प्रेम बँध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैए।।

एकै निहचै प्रेम को जीवन-मुक्ति रसाल।
साँचो निहचै प्रेम को, हो, जो मिलिहैं नँदलाल।।

व्याख्या :

योग साधना उसी वस्तु के लिए उचित होती है, जिसे प्राण देकर प्राप्त करने का प्रण हो, किंतु हमने आज तक ऐसा नहीं सुना कि योग साधना के बल पर ब्रह्म के साथ तादात्म्य स्थापित किया हो अथवा उसे प्राप्त किया हो। फिर ऐसे निर्गुण ब्रह्म के लिए प्राणों को संकट में डालना कहां तक उचित है। इससे तो हमारा प्रेम मार्ग ही ठीक है, जिसमें आराध्य देव के साथ साक्षात्कार करना संभव तो है। इसलिए हे मधुप ! तुम्हें हमारी सौगंध है, तुम निर्णय करके शीघ्र बता दो कि तुम्हारे योग मार्ग और हमारे प्रेम मार्ग में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है ?

आगे गोपियाँ कहती है कि प्रेम, प्रेम से ही संभव होता है। प्रेम के द्वारा ही संसार के रहस्य को जानना और उससे पार पाना संभव है। इस प्रेम के कारण समस्त संसार परस्पर बाध्य है। प्रेम के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति संभव है। इस बात में कोई संशय नहीं है कि प्रेम के माध्यम से ही मधुर जीवन-मुक्ति, जिसका बड़े बड़े भक्त स्वप्न देखते है, उपलब्ध हो सकती है।


#पद : 17.4.

Surdas’ Bhramar Geet Saar Arth with Hard Meaning in Hindi

सुनि गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो।
गावत गुन-गोपाल फिरत कुंजन में फूल्यो।।

छन गोपिन के पग धरै, धन्य तिहारो नेम।
धाय धाय द्रुम भेंटहीं, हो, ऊधो छाके प्रेम।।

धनि गोपी, धनि गोप, धन्य सुरभी बनचारी।
धन्य, धन्य! सो भूमि जहाँ बिहरे बनवारी।।

शब्दार्थ :

क्रम संख्या शब्द अर्थ
01. गोप को बेस गोप का वेश
02. छाँड़ि छोड़कर
03. पकरे पाय पैर पकड़ लिए
04. नयननि नीर नैनों में जल भरना
05. पीतपटपीले वस्त्र
जोग योग

व्याख्या :

सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों की बातें सुनकर उद्धव अपनी योग साधना को भूल गए अर्थात् वह भी गोपियों की प्रेम भावना से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सके। वह प्रफुल्लित होकर श्री कृष्ण के गुण गाते हुए ब्रज के कुंजो में भ्रमण करने लगे। एक क्षण तो गोपियों के चरण पकड़ लेते हैं और उनसे कहते कि तुम्हारा प्रेम नियम धन्य है। उद्धव प्रेम में इतने डूब गये कि दौड़कर वृक्षों से लिपटकर भेंट करने लगे। श्री कृष्ण ने इन्हीं वृक्षों की छाया में बैठकर गोपियों के साथ प्रेम की क्रीड़ाएं की थी।

श्री कृष्ण के प्रेम में मदोन्मत होकर वे कहते हैं कि ये ब्रजवासी गोपियां धन्य है और ब्रज में भ्रमण करने वाली ये गायें भी धन्य है। यह ब्रजभूमि धन्य है कि यहां बनवारी श्री कृष्ण ने विहार किया था, क्रीड़ाएं की थी। मैं इन गोपियों को योग साधना का उपदेश देने आया था, किंतु यहां आकर मैंने गोपियों से स्वयं ज्ञान प्राप्त किया है।

उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस।
ऊधो जदुपति पै गए, हो, किए गोप को बेस।।

भूल्यो जदुपति नाम, कहते गोपाल गोसाँई।
एक बार ब्रज जाहु देहु गोपिन दिखराई।।

गोकुल को सुख छाँड़ि कै कहाँ बसे हौ आय।
कृपावंत हरि जानि कै, हो, ऊधो पकरे पाय।।

व्याख्या :

सूरदास जी कहते हैं कि मैं योग साधना के भ्रम में भटक रहा था। मैंने आज प्रेम मार्ग के महत्व को जाना। इसके बाद उद्धव गोप का वेश धारण करके श्री कृष्ण के पास जाते हैं। प्रेम के वशीभूत होकर, वे श्री कृष्ण को यदुपति के नाम से सम्बोधन करना भूल गये और गोपाल गोसाँई के नाम से संबोधन किया।

उन्होंने श्री कृष्ण को संबोधित करते हुए अनुरोध किया कि वे एक बार ब्रज जाकर गोपियों को दर्शन दे आये। उन्होंने श्री कृष्ण से पूछा कि आप गोकुल का सुखानंद छोड़कर यहां कैसे आ बसे हो ? इस प्रकार श्री कृष्ण को सब पर दयालु जानकर, उनके पैर पकड़ लिए।

देखत ब्रज को प्रेम नेम कछु नाहिंन भावै।
उमड़्यो नयननि नीर बात कछु कहत न आवै।।

सूर स्याम भूतल गिरे, रहे नयन जल छाय।
पोंछि पीतपट सों कह्यो, ‘आए जोग सिखाय’?

व्याख्या :

सूरदास जी कह रहे हैं कि इस समय उद्धव अपने अज्ञान बोध के कारण अत्यंत लज्जा अनुभव कर रहे थे। ब्रजवासियों का श्री कृष्ण के प्रति प्रेम और विश्वास देखकर उद्धव को अपने ऊपर धिक्कार होने लगा। अब उन्हें अपना योग अच्छा नहीं लगता। प्रेमाधिक्य के कारण उनके नैनों में जल भरा हुआ है, गला भी भरा हुआ है। कुछ कहते नहीं बनता है।

वे प्रेम विहल होकर श्री कृष्ण के सम्मुख पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री कृष्ण ने अपने तन पर पहने हुए पीत वस्त्र से उनके आंसुओं को पोंछा और उनसे इतना ही पूछा कि “क्या हुआ योग सीखा आये ?

सूरदास जी ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग की विजय दिखाने के लिए इस पद की रचना करते हैं। इस पद में निर्गुण धारा के भक्तों पर व्यंग्य किया गया है। अंत में उद्धव को गोपियों की प्रेम साधना से प्रभावित दिखाकर निर्गुण पर सगुण ब्रह्म की विजय की ओर कवि ने संकेत किया है।


दोस्तों ! आज हमने Bhramar Geet Saar in Hindi | भ्रमरगीत सार के पद 17 के शेष भाग 17.3 एवं 17.4 की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। उम्मीद है कि आपको अच्छे से समझ में आया होगा। अगले पदों की व्याख्या के साथ फिर से मिलते है। धन्यवाद !

ये भी अच्छे से समझे :


एक गुजारिश :

दोस्तों ! आशा करते है कि आपको Bhramar Geet Saar in Hindi | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या के बारे में हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी I यदि आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बतायें I हम आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश करेंगे I

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