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Bhramar Geet Saar Arth in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या
Bhramar Geet Saar Arth Vyakhya in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या : नमस्कार दोस्तों ! आज के नोट्स में प्रस्तुत है : रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” के पद 57 से लेकर 59 तक के पदों की विस्तार से व्याख्या। तो चलिए जल्दी से शुरू करते है :
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भ्रमरगीत सार अर्थ Bhramar Geet Saar Arth in Hindi [पद #57-59]
Bhramar Geet Saar Pad Arth 57-59 in Hindi भ्रमरगीत सार व्याख्या : दोस्तों ! अब हम “भ्रमरगीत सार” के 57-59 तक के पदों की विस्तृत व्याख्या पर एक नज़र डालते है :
#पद : 57.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Arth Meaning in Hindi
निरखत अंक स्यामसुन्दर के बारबार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मसि मिलि कै ह्वै गइ स्याम स्याम की पाती।।
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुं बयारि लगी नहिं ताती।
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती।।
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।
प्राननाथ तुम कब धौं मिलौगे सूरदास प्रभु बालसँघाती।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | निरखत | देखते ही |
02. | अंक | अक्षर, पत्री |
03. | लावति | लगाती है |
04. | लोचन-जल | नेत्र-आंसू |
05. | कागद-मसि | कागज पर स्याही |
06. | पाती | चिट्ठी, पत्री |
07. | बयारि | हवा |
08. | ताती | गरम |
09. | बेनुनाद | मुरली की मधुर ध्वनि |
10. | लाड | प्रेम |
11. | गनति | गिनती, समझती |
12. | काहू | किसी को |
13. | निसिदिन | रात-दिन |
14. | रासरसमाती | रास-रंग में उन्नत |
15. | बालसँघाती | बालपन के साथी |
व्याख्या :
दोस्तों ! इस पद में गोपियाँ उस पत्र की चर्चा कर रही है, जिसमें श्री कृष्ण ने अपना संदेश भिजवाया था। श्रीकृष्ण की चिट्ठी को पाकर वे अत्यंत भाव विभोर हो उठी थी। गोपियों की उसी समय की स्थिति का वर्णन करते हुये सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ श्री कृष्ण के पत्र में लिखे अक्षरों को बार-बार देखकर अपनी छाती अर्थात् हृदय से लगाने लगी। प्रेमावेश के कारण उनके नेत्रों में आंसू आ गये और इन अश्रुओं से श्याम के द्वारा भेजी गई चिट्ठी भीग जाती है।
कागज पर नेत्र-जल गिरने से सारे कागज पर स्याही फैल जाती है और पूरी की पूरी चिट्ठी ही काली हो जाती है। पत्र को निहारते ही गोपियों की पूर्व काल की स्मृतियां साकार हो उठती है। गोपियाँ कहती है कि गोकुल में श्री कृष्ण के साथ जब हम रहा करती थी, तब हमें कभी वायु भी गरम नहीं लगी। हमें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। तब कोई विपत्ति नहीं आई।
हे उद्धव ! हम उस समय की क्या चर्चा करें ? जब हम श्री कृष्ण की मधुर ध्वनि सुनकर उनके पास दौड़ी चली जाती थी एवं उनके प्रेम में अनेक प्रकार की रास क्रीड़ायें किया करती थी और उससे आनंदित हुआ करती थी। श्री कृष्ण के प्रेम को पाकर हम इतनी गर्वित हुआ करती थी कि अपने सम्मुख किसी को कुछ भी नहीं समझती थी।
इस प्रकार पुरानी बातें याद करके गोपियाँ अत्यंत भाव विभोर हो उठती है। वे श्री कृष्ण को पुकार रही हैं और श्री कृष्ण को कहती है कि हे प्राणनाथ ! आप हमें कब मिलेंगे ? कब हमें दर्शन देंगे तथा कब आपका और हमारा मिलन हो सकेगा ?
#पद : 58.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Arth Raag Maaru with Hard Meaning in Hindi
राग मारू
मोहिं अलि दुहूं भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली, अब भई कूबरी सौत।।
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अँग।
इन बिरहिन में कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग?
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।
यहाँ तरल तरिवन कहँ देखे अरु तनसुख की सारी।।
परम बियोगिनि रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तो चलो वेगि मधुबन को जहाँ जोग को ज्ञान।।
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर घर डोलौ, लेहु लेहु धरि सूप।।
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | दुहूं भाँति | दोनों अवस्थाओं में |
02. | जोगमत | योग-साधना |
03. | सुमन | पुष्प |
04. | गुहाये | सजाई हो |
05. | कानन | कानों में |
06. | मेखली | करधनी, गले में डालकर पहना जानेवाला पहनावा |
07. | तनसुख | एक प्रकार का क्षीण कपड़ा |
08. | सारी | साडी |
09. | जोग को ज्ञान | योग के ज्ञाता ,पारखी |
10. | निसिदिन | रात-दिन |
11. | जीजतु | जीती है |
व्याख्या :
दोस्तों ! गोपियाँ अपने भाग्य को दोष देती है और उद्धव से कहती है कि हे उद्धव ! हे भ्रमर ! हमें तो दोनों ही अवस्था में, चाहे वह श्री कृष्ण का सामीप्य हो या आज हम उनसे दूर हैं, इन दोनों ही अवस्था में हमें एक ही जैसा फल मिला है। जब यहां श्री कृष्ण हमारे निकट थे तो मुरली उनके होठों पर हमेशा सजी रहती थी और वह मुरली ही उनके अधरों का पान किया करती थी। उनके होठों से लगी रहती थी और इस अमृत से हम वंचित थी।
अब वह कुब्जा हमारी सौत बन गई है। आज मुरली का स्थान उस कुब्जा ने ले लिया है और वह श्री कृष्ण के सामीप्य का लाभ उठा रही है। तुम हम विरहणियों को योग-साधना के द्वारा प्राप्त निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए आये हो और चाहते हो कि हम अपने शरीर पर भस्म का लेप कर ले। क्या तुमने किसी गोपी को अपनी मांग में फूल चढ़ाये हुये देखा है ?
तुम हमें कह रहे हो कि हम अपने कानों में मुद्रा पहनकर मूंज की करधनी, जटा-जूट और आधारी धारण करें। एक बात बताओ, तुमने हम में से किसी को अपने कानों में कर्ण-फूल या तनसुख कपड़े से बनाई हुई साड़ी धारण किये हुये देखा है ? हम तो श्री कृष्ण के प्रेम-विरह में संतप्त हैं। हमने पहले ही शारीरिक साज-सज्जा व सौंदर्य प्रसाधन छोड़ दिया है।
Bhramar Geet Saar Arth in Hindi
हम तो पहले से ही योगिनी बनी हुई हैं। हे उद्धव ! उचित यही होगा कि तुम शीघ्र ही मथुरा नगरी लौट जाओ, क्योंकि वहां तुम्हें तुम्हारे इस योग के अनेक पारखी मिलेंगे। इसलिए वहीँ तुम्हारे योग का आदर और सम्मान हो पायेगा। हम तो रात-दिन श्री कृष्ण के मनोहर रूप को देखकर और स्मरण करके जीवित रह रही हैं।
हे उद्धव ! तुम अपने इस योग को व्यर्थ ही लादे हुए घर-घर घूम रहे हो। अपना समय बर्बाद कर रहे हो, क्योंकि यहां तुम्हारे इस योग का कोई ग्राहक नहीं है। तुम वही कार्य कर रहे हो, जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने ग्राहकों से, अपने माल को भलीभांति सूप से छान-फटक कर खरीदने का आग्रह करता है। लेकिन तुम चाहे जितना प्रयत्न कर लो, हम तुम्हें विश्वास दिलाती हैं कि तुम्हारी इस बेकार सी चीज का यहां कोई खरीदार नहीं मिलेगा। इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। इसलिए तुम इसे लेकर मथुरा चले जाओ। वहाँ इसके पारखी है और उन्हीं को जाकर तुम यह योग देना।
#पद : 59.
भ्रमरगीत सार व्याख्या Bhramar Geet Saar Arth Raag Sarang Shabdarth Sahit in Hindi
राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमरी बात।
डरपति बचन कठोर कहति, मति बिनु पति यों उठि जात।
जो कोउ कहत जरे अपने कछु फिरि पाछे पछितात।
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात।।
मन जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिनरात।
‘सूर स्याम तें जोग अधिक’ केहि कहि आवत यह बात?
शब्दार्थ :
क्रम संख्या | शब्द | अर्थ |
---|---|---|
01. | बिलग जनि मानौ | बुरा मत मानो |
02. | पति यों उठि जात | मर्यादा जाती रहती है |
03. | जरे अपने | अपना जी जलने पर |
04. | तर | नीचे |
05. | रहत | रहता है |
व्याख्या :
गोपियाँ उद्धव से कहती है कि हे उद्धव ! तुम हमारी बात का बुरा मत मानना। हम तुमसे कठोर वचन कहती तो है, पर हमें डर लगता है। क्योंकि जो बिना विचारे, बिना विवेक के कठोर वचन कहता है, उसकी मर्यादा उसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार तुम्हारी हो गई है। तुम हमें श्री कृष्ण को त्याग कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने को कहते हो। जैसे कोई स्वयं अपना जी जलने पर उटपटांग बातें कह जाये, और फिर मन ही मन पछताता रहे।
हे उद्धव ! आपको जो यहाँ इतना प्रसाद मिल रहा है, वह केवल श्री कृष्ण का नाम लेने के कारण ही मिल रहा है अर्थात् जो सम्मान आपको यहाँ ब्रज में मिल रहा है, वो इसी कारण मिल रहा है कि आपने श्री कृष्ण का नाम लिया।
आपका मन रात-दिन श्री कृष्ण के चरणों में दृढ़तापूर्वक लगा रहता है और फिर भी आपने यह बात कैसे कह दी कि आपका योग श्री कृष्ण से श्रेष्ठ है। हे उद्धव ! श्री कृष्ण-भक्त होने पर भी आप ऐसी बातें कर रहे हैं। क्या यह आपकी कृतघ्नता नहीं है ? इस प्रकार गोपियाँ उद्धव की कृतघ्नता और एहसान-फरामोशी पर व्यंग्य कर रही हैं।
दोस्तों ! आज हमने भ्रमरगीत सार के 57-59 पदों की शब्दार्थ सहित व्याख्या को जाना और समझा। हमेशा की तरह आज भी हमने बहुत ही आसान तरीके से आपको समझाने की कोशिश की है। ठीक है दोस्तों ! फिर मिलते है नये पदों के साथ। आपके प्यार और सहयोग के लिये दिल से धन्यवाद !
ये भी अच्छे से समझे :
एक गुजारिश :
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